Maharshi Mehi लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं
Maharshi Mehi लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं

शब्द जितना छोटा होगा, उतना ही सिमटाव होगा | ऊँ नमः सिद्धम् | Maharshi Mehi Paramhans ji Maharaj | Santmat Satsang | Kuppaghat-Bhagalpur


संत सद्गुरु महर्षि मेँहीँ परमहंस जी महाराज की वाणी:-

शब्द जितना छोटा होगा, उतना ही सिमटाव होगा और जितना बड़ा शब्द होगा, उतना ही फैलाव होगा। तन्त्र में एकाक्षर का ही जप करने का आदेश है और वेद में भी वही एक अक्षर। कबीर साहब कहते हैं- पढ़ो रे मन ओ ना मा सी धं ।
अर्थात् ‘ऊँ नमः सिद्धम्।’ तात्पर्य यह कि सृष्टि इसी ‘ऊँ’ से है। शब्द से सृष्टि हुई है। यह (ऊँ) त्रैमात्रिक है, इसीलिए इस प्रकार भी ‘ओ3म्’ लिखते हैं। इसको इतना पवित्र और उत्तम माना गया कि इस शब्द के बोलने का अधिकार अमुक वर्ण को ही होगा, अमुक वर्ण को नहीं। इतना प्रतिबन्ध लगाया गया कि बड़े ही कहेंगे। सन्तों ने कहा, कौन लड़े-झगड़े; ‘सतनाम’ ही कहो, ‘रामनाम’ ही कहो, आदि। बाबा नानक ने ‘ऊँ’ का मन्त्र ही पढ़ाया- *1ऊँ सतिगुरु प्रसादि।*  और कहा-  *चहु वरणा को दे उपदेश।* यह ईश्वरी शब्द है; किन्तु हमलोग इसका जैसा उच्चारण करते हैं, वैसा यह शब्द सुनने में आवे, ऐसा नहीं। यह तो आरोप किया हुआ शब्द है, जिसके मत में जैसा आरोप होता है। जैसे- पंडुक अपनी बोली में बोलता है, किन्तु कोई उस ‘कुकुम कुम’ और कोई उसी शब्द को ‘एके तुम’ आरोपित करता है। किन्तु यथार्थतः इस (ओ3म्) को लौकिक भाषा में नहीं ला सकते, यह तो अलौकिक शब्द है। इस अलौकिक शब्द को लौकिक भाषा में प्रकट करने के लिए सन्तों ने ‘ऊँ’ कहा। क्योंकि जिस प्रकार वह अलौकिक ¬ सर्वव्यापक है, उसी प्रकार यह लौकिक ‘ऊँ’ भी शरीर के सब उच्चारण-स्थानों को भरकर उच्चरित होता है। इस प्रकार का कोई दूसरा शब्द नहीं है, जो उच्चारण के सब स्थानों को भरकर उच्चरित हो सके। इसी शब्द का वर्णन सन्त कबीर साहब इस प्रकार करते हैं- 


आदि नाम पारस अहै, मन है मैला लोह। 
परसत ही कंचन भया, छूटा बन्धन मोह।। 
शब्द शब्द सब कोइ कहै, वो तो शब्द विदेह। 
जिभ्या पर आवै नहीं, निरखि परखि करि देह।। 
शब्द शब्द बहु अन्तरा, सार शब्द चित देय। 
जा शब्दै साहब मिलै, सोइ शब्द गहि लेय ।। 

आदिनाम वा शब्द सर्वव्यापक है। इसी प्रकार एक शब्द लो, जो उच्चारण के सब स्थानों को भरपूर करे, तो संतों ने उसी को ‘ऊँ’ कहा तथा इसी शब्द से उस आदि शब्द ¬ का इशारा किया। यह जो वर्णात्मक ओ3म् है, जिसका मुँह से उच्चारण करते हैं, यह वाचक है तथा इस शब्द से जिसके लिए कहते हैं, वह वाच्य है तथा उस परमात्मा के लिए वह भी वाचक है तथा परमात्मा वाच्य है। तो इस एक शब्द का दृढ़ अभ्यास, एक तत्त्व का दृढ़ अभ्यास करना है। (17-1-1951)
प्रेषक: शिवेन्द्र कुमार मेहता, गुरुग्राम

हमलोग आर्य हैं। आर्य का अर्थ-बुद्धिमान, विद्वान, सभ्य आदि है। Hamlog Arya hain | Budhiman-Vidwan-Sabhya | Maharshi Mehi Paramhans Ji | Santmat Satsang

हमलोग आर्य हैं। 

हमलोग आर्य हैं। आर्य का अर्थ-बुद्धिमान, विद्वान, सभ्य आदि है। गीता में, महाभारत में, बौद्ध ग्रन्थों में हमारे लिए ‘आर्य’ शब्द छोड़कर दूसरा नहीं आया है। हाल में तुलसीदासजी हुए, इनकी रचना में ‘आर्य’ के सिवा दूसरा शब्द नहीं है। ‘आर्य’ कहते हैं-बुद्धिमान को। हमको बुद्धिमान बनना चाहिए। ‘बुद्धि’ वह हो, जिसमें आत्मज्ञान हो।  
हमलोग सत्संग करते हैं। यह सत्संग तीर्थराज है। इस सत्संग में सरस्वती की धारा अधिक बहती है। गोस्वामी तुलसीदासजी का कहना है कि सत्संग तीर्थराज है। तीर्थराज में गंगा, यमुना और सरस्वती की धारा बहती है।

राम भगति जहँ सुरसरि धारा।
सरसइ ब्रह्म विचार प्रचारा ।। 
विधि निषेधमय कलिमय हरनी। 
करम कथा रविनंदिनी बरनी ।। 
मुझको सरस्वती की धारा में स्नान करना है और आपको भी इसी में स्नान कराना है। 
-संत सद्गुरु महर्षि मेँहीँ परमहंस जी महाराज
संकलन: शिवेन्द्र कुमार मेहता, गुरुग्राम

इस शरीर में विशेष बात क्या है? What is special about this body? | Maharshi Mehi Paramhans Ji Maharaj | Santmat Satsang

इस शरीर में विशेष बात क्या है?

विशेष बात इस शरीर में क्या है? इसमें साधनों का धाम और मोक्ष का द्वार है। समूचा शरीर द्वार नहीं है। इस शरीर में नौ द्वार हैं। यह जो नौ द्वार हैं, इनमें से कोई द्वार मोक्ष का द्वार नहीं है। 

संतवाणी से पता चलता है कि जो नौ द्वार वाले शरीर में रहते हैं, वे संसार में दौड़ते रहते हैं। इस शरीर में दसवां द्वार भी है। उस द्वार से गमन करो, तो निज घर में पहुंच जाओगे। यह शरीर स्थूल घर है। संत जो कहते हैं कि इसमें दशम द्वार है यह बहुत कम लोग जानते हैं। बाहर से अपने को समेटकर अंतर प्रविष्ट होकर अंतर्मुखी जहां तक होना होता है, वही दसवां द्वार है। यह दसवां द्वार ही मोक्ष का द्वार है। इसमें शरीर नहीं जाता, मन अवश्य जाता है। यह इस बार की विलक्षणता है। दसवें द्वार को योगियों के यहां आज्ञाचक्र कहा जाता है। यही है अन्तर्ज्योति और अन्तर्नाद का द्वार। -संत सद्गुरु महर्षि मेँहीँ परमहंस 
संकलन: शिवेन्द्र कुमार मेहता, गुरुग्राम

यही संतमत की विशेष बात है | Yahi Santmat ki vishesh baat hai | Maharshi Mehi Paramhans Ji Maharaj | Santmat Satsang |

यही संतमत की विशेष बात है।
एक संत की वाणी पढ़कर जितना लाभ, उतना लाभ अन्य संतों की वाणी पढ़ने से भी होता है। सबमें एक ही बात जान पड़ती है, यही संतमत की विशेष बात है। सब संतों का आदर और सब सद्ग्रन्थों का आदर बहुत अच्छा लगता है। 
जो सत्संग करें, वे सभी सत्संगी, कोई गैर सत्संगी नहीं। मनुष्य की हैसियत से हम सभी भाई-भाई हैं। यहाँ हमलोग सभी सत्संगी हैं। भले कोई भेद जानते हैं और कोई नहीं जानते हैं। 
ईश्वर सत्य है और सब उसकी माया है। दिखावटी हो, असलियत नहीं, यह माया है। जबतक ईश्वर को पाया नहीं, माया सत्य मालूम पड़ती है। ईश्वर सत्य है। माया को पार नहीं करने के कारण हम माया में फँसे रहते हैं। उसके पार होने के लिए चिन्ह चाहिए। ईश्वर-निर्मित और नर-निर्मित चिन्ह होते हैं। जो चिन्ह ईश्वर से निर्मित है, वह श्रेष्ठ है। ईश्वर-निर्मित चिन्ह के आधार से भक्ति करें। ईश्वर-निर्मित चिन्ह ज्योति और शब्द हैं। ये दोनों नर निर्मित नहीं, ईश्वर-निर्मित हैं। सूर्य में से ज्योति निकाल लीजिए तो कुछ नहीं देखेंगे। ऐश्वर्यवान विभूति संसार में सूर्य है, यह प्रत्यक्ष है। इससे ज्योति निकल जाय तो कुछ नहीं बचेगा। इसलिए ज्योति ही सार है। -संत सद्गुरु महर्षि मेँहीँ परमहंस जी महाराज 
प्रेषक: शिवेन्द्र कुमार मेहता, गुरुग्राम

ईश्वर-भजन से सुख होता है | Eshwar Bhajan se Sukh hota hai | Maharshi Mehi Paramhans Ji Maharaj | Santmat Satsang

ईश्वर-भजन से सुख होता है।

सत्संग से हमारा कल्याण होगा, यह निश्चय है। सत्संग से जो कल्याण होता है, उसका रूप है मोक्ष, जहाँ सारे भोगों की निवृत्ति होती है। सब लोगों के लिए सुख बहुत प्यारी चीज है। संसार के सुख में संतुष्टि नहीं है। जो मन-इन्द्रियों को सुहाता है, उसी को लोग सुख कहते हैं। जो मन-इन्द्रियों को नहीं सुहाता है, उसे दुःख कहते हैं। विषय से क्षणिक सुख का अनुभव होता है। इस लोक के निवासी के लिए कहा गया है कि- 
एहि तन कर फल विषय न भाई। 
स्वर्गउ  स्वल्प अन्त दुखदाई।। 
नर तनु पाइ विषय मन देहीं। 
पलटि सुधा ते सठ विष लेहीं।।

मन चंचलता का रूप है। जो चंचल रूप हो, वह स्थिर वस्तु को पकड़ सके संभव नहीं है। इन्द्रियों की शक्ति थोड़ी है। जैसे छोटे बर्तन के बटखरे से अधिक चीज को माप नहीं सकते हैं, उसी प्रकार इन्द्रियों के द्वारा विशेष वस्तु को माप नहीं सकते हैं। 

राकापति षोडस उगहिं, तारागण समुदाय। 
सकल गिरिन्ह दव लाइये, बिनु रवि राति न जाय।। 
ऐसेहि बिनु हरि भजन खगेसा।
मिटहिं न जीवन केर कलेसा।। 
      -गोस्वामी तुलसीदासजी

ईश्वर-भजन के बिना सुख नहीं होता है। ईश्वर-भजन से सुख होता है। -संत सद्गुरु महर्षि मेँहीँ परमहंस जी महाराज
प्रेषक: शिवेन्द्र कुमार मेहता, गुरुग्राम

मैं संतों का पुजारी हूँ | Mai Santon ka pujari hun | I am the priest of the saints | Maharshi Mehi Paramhans Ji Maharaj | Santmat Satsang


मैं संतों का पुजारी हूँ।

अनन्त एक ही है, इसलिए ईश्वर एक है। सब सांतों के पार में अनन्त अवश्य है। उसके गुण और शक्ति का परिमित बुद्धि से निर्णय होना संभव नहीं है। गुण-कर्मों के द्वारा उनका निर्णय नहीं हो सकता है। अपरिमित शक्ति कैसी होती है, यह परिमित बुद्धि को नहीं मालूम होता है। विषय क्षणभंगुर है। संसार में विषयों से नकली काम चलता है। संसार से हृदय अलग करके रखना चाहिए। राजा भरत हिरण से प्रेम करता था। शरीर छोड़ते समय हिरण में मन चला गया, इसलिए हिरण बनना पड़ा। आत्मा सबका एक है, भिन्न नहीं है और शरीर भाव से भिन्न-भिन्न है। जैसे -

जल महि कमलु निरालमु  मुरगाई  नैसाणै। 
सुरति शबदु भवसागर तरिअै नानक नामु बखानै।। 

जो संसार का कार्य संभालता है, वह संसार में शोभा पाता है। अर्जुन से भगवान श्री कृष्ण ने कहा-तुम युद्ध भी करो और मेरा ध्यान भी करते रहो। 

‘गृही माहि जो रहै उदासी, कहै कबीर मैं तिनके दासी।’ 
‘कबीर चाले हाट को, कहे न कोइ पतियाय। 
पाँच  टके  का  दोपटा, सात  टके  को जाय।।’ 
‘अनविचार  रमनीय  महा संसार भयंकर भारी।’ 

लोग कहते हैं कि मैं पुजारी हूँ।  मैं भी संतों का पुजारी हूँ। 

‘संत भगवन्त अन्तर निरन्तर नहीं किमपि मति विमल कह दास तुलसी।’  

मैंने अभी संतों का प्रसाद बाँट दिया। संतों के जितने वचन हैं, ये भी प्रसाद हैं। यह संसार विषयों का सागर है और हमलोग इसमें डूब रहे हैं। संत इस बात को जानते हैं और चेताते हैं।  

मरिये तो मरि जाइये छूट पडै जंजार।  

होशियारी की बात है कि अपने सरोकारी वस्तुओं से लाग (संबंध) हटा लो। इन्द्र बन जाओ, तब भी विकार नहीं छूटेगा। संसार और परमार्थ दोनों कामों के साथ-साथ चलो। संसार से बचने का ज्ञान संत-महात्मा  बतला देते हैं। उनके प्रसाद से राम-नाम सब कोई जाने।  -संत सद्गुरु महर्षि मेँहीँ परमहंस जी महाराज
संकलन: शिवेन्द्र कुमार मेहता, गुरुग्राम

केवल ध्यानयोग से ही पापों से बच सकते हैं | Kewal dhyanyog se hi papon se bach sakte hain | Saved from sins only by meditation | Maharshi Mehi | Santmat Satsang

यदि शैल समं पापं विस्तीर्ण बहुयोजनम्। 
भिद्यते ध्यानयोगेन नान्यो भेदः कदाचन।।       
-ध्यानबिन्दु उपनिषद् 

मनुष्य अनिवार्य और वार्य दोनों तरह का कर्म करता ही रहता है। वह कर्म करने से बच नहीं सकता है। कर्म में पाप और पुण्य दोनों कर्म होते हैं। कोई पुण्य कर्म अधिक करते हैं और पाप कर्म कम। वही पुण्यात्मा कहलाते हैं। पाप कर्म का फल दुःख होता है और पुण्य कर्म का फल सुख होता है। बन्ध दशा में ही लोग पाप और पुण्य के फलों को भोगते हैं। पुण्य का फल मीठा लगता है और पाप फल कडुवा लगता है। केवल ध्यानयोग से ही पापों से बच सकते हैं। युधिष्ठिर जी झूठ बोले थे। उनको भी पाप का फल भोगना पड़ा। थोड़ा भी पाप किए हैं तो उसका फल भी भोगना ही पड़ेगा। सिर्फ तीर्थ-दान करने से ही कोई पाप के फल से नहीं बच सकता है। श्रद्धा चाहिए, परन्तु अन्धी श्रद्धा नहीं। -संत सद्गुरु महर्षि मेँहीँ परमहंस जी महाराज
संकलन: शिवेन्द्र कुमार मेहता, गुरुग्राम

वह कुल बहुत उत्तम है | Vah kull {Khaandaan} bahut uttam hai | Maharshi Mehi Paramhans Ji Maharaj | Santmat Satsang | Kuppaghat-Bhagalpur



वह कुल बहुत उत्तम है!

अन्तर में चलने के लिए भोजन पवित्र होना चाहिए। मांस-मछली का तो कहना ही क्या? आपलोगों को पहले से ही मालूम है, जिस-जिस कुल में मांस-मछली खाने का चलन नहीं है, वह कुल बहुत उत्तम है। नशा में अपव्यय, अपवित्रता और रोग है। चावल को धोकर भी खाते हैं; किंतु तंबाकू को बिना धोए ही मुँह में डालते हैं। कोई भी नशा अच्छा नहीं है, इससे रोग उत्पन्न होते हैं। इसको नहीं खाना चाहिए। जो खाते हो, उन्हें छोड़ देना चाहिए। इसके अतिरिक्त और नशा है- 

मद तो बहुतक भाँति का, ताहि न जानै कोय। 
तनमद मनमद जातिमद, मायामद सब लोय।। 
विद्यामद और गुणहु मद,  राजमद उनमद्द। 
इतने मद को रद्द करै, तब  पावै अनहद।।
   -कबीर साहब 

तानसेन से बैजूबाबरा गाने में विशेष था। अकबर के दरबार में तानसेन रहता था। वह गाने-बजाने में बहुत प्रवीण था। वह अकबर से हुक्म दिला दिया कि दिल्ली में कोई गाना गाने न पावे। जो गावे, उसको सजा मिल जाती थी। बैजूबाबरा जान-बूझकर शहर में गाना गाने लगा। गिरफ्तार करके दरबार में लाया गया। तानसेन से उसका मुकाबला हुआ। तानसेन हार गया। भगवान बुद्ध का वचन है- ‘किसी से वैर मत करो। जो तुमसे वैर करता है, उससे प्रेम करो। वैर पर ख्याल मत करो। वह पीछे तुम्हारा मित्र बन जाएगा।’ इसी तरह जीवन जीना चाहिए। -संत सद्गुरु महर्षि मेँहीँ परमहंस जी महाराज
संकलन: शिवेन्द्र कुमार मेहता, गुरुग्राम

पूरा मर्द वही है जो घर बार में रहते हुए भजन करते हैं | Pura mard vahi hai jo ghar me rahte huye bhajan karta hain | Maharshi Mehi Paramhans | Santmat Satsang

पूरा मर्द वही है जो घर बार में रहते हुए भजन करते हैं!

पहले का किया हुआ पाप कर्ममण्डल से आगे बढ़ने पर छूट जाता है। मन की एकाग्रता में पूर्ण सिमटाव होता है। सिमटाव का फल ऊर्ध्वगति है। ऊर्ध्वगति में एक तल से दूसरे तलपर जाना बिल्कुल संभव है। जिस मण्डल तक कर्म बन्धन है, उस मण्डल से आगे बढ़ने पर पहले का किया हुआ पाप नष्ट हो जाता है। वासा में कहा गया है- ‘बीजाक्षरं परम बिन्दुं’।  बाहर में किसी महीन-से-महीन चिन्ह करने पर भी परिभाषा के अनुकूल बिन्दु नहीं होता है। कोई भी स्थूल पदार्थ से वह चिन्हित नहीं होगा। जहाँ सूक्ष्मधार की नोक पड़ेगी वहीं बिन्दु बनेगा। दृष्टि की धार सूक्ष्म पदार्थ है। तिल के द्वार में देखो। सूक्ष्म विषय दृश्य है, रूप है। बिन्दु दर्शन भी रूप का दर्शन है। सूक्ष्म विषय को भी त्याग देना चाहिए इसके ऊपर नाद की स्थिति है। दृश्य से छूटकर अदृश्य में आते हैं। शब्द में अपने उद्गम स्थान में खींचने का आकर्षण है। तुम मनुष्य हो तो मननशील, विचारवान हो जाओ। दरअसल में तुम देह नहीं हो। जो अपने को नहीं पहिचाने वह अपना क्या जाने। जहाँ अपने की पहचान नहीं है, वहाँ अपने संबंधी की भी पहचान नहीं है। देह में चन्द्रमा है लेकिन देख नहीं पाते हैं।  
 
चन्दा झलके यहि घट माही, अन्धी आँखिन सूझे नाहीं। 
तन में मन आवै नहीं निसदिन, बाहरि जाय।। 
दादू मेरा जिव दुःखी, रहै नहीं लौ  लाय।। 

हमारा धर्म कहता है कि किसी भेष में रहो परन्तु अविहित काम नहीं करो, पाप कर्म से छूटे हुए रहो। अपने को ठीक तरह से रखिएगा तो लोग आपके पास स्वयं आवेगें। पूरा मर्द वही है जो घर बार में रहते हुए भजन करते हैं। जो संसार के कामों के डर से भाग गया, वह कमजोर है। अपने से कमाकर खानेवाला स्वावलम्बी होता है और भीख माँगकर खानेवाला परावलम्बी होता है। तनमन को निजमन में रखो यही अभ्यास है। जैसे संयमी होकर नितप्रति आहार करने से शरीर बढ़ता है, उसी प्रकार नितप्रति भजन करने से आत्मबल बढ़ता है और ज्ञान पुष्ट होता है। जो कोई भजन की विधि को जानकर भजन करते हैं, वे परमात्मा की सेवा करते हैं। -संत सद्गुरु महर्षि मेँहीँ परमहंस जी महाराज
प्रेषक: शिवेन्द्र कुमार मेहता, गुरुग्राम

उस निशाने को कौन पावेगा | Us nisane ko kaun pavega | Maharshi Mehi Paramhans Ji Maharaj | Santmat Satsang | Kuppaghat-Bhagalpur


!! उस निशाने को कौन पावेगा !!

ईश्वर के प्रेमियों! केवल बाहर- ही-बाहर ईश्वर को नहीं खोजो। बाहर-बाहर खोजने के बाद अंदर-अंदर भी खोज करो। बिना किसी के सिखाए आप एक अक्षर भी नहीं लिख सकते । बुद्ध भगवान ने कहा है- "ज्ञानी केवल सिखाने वाले हैं, करना तुमको ही पड़ेगा।" अपना सिमटाव करो, जहां मैंने बताया है। सदग्रंथ गुरु का वाक्य और अपना विचार मिल जाए तो कितना विश्वास होगा। गुरु नानक ने कहा है-

अंतरि जोत भाई गुरु साखी चीने राम करंमा।। 

अंतर में प्रकाश हुआ, यह गुरु की गवाही है और तब गुरु के दयादान को पहचाना। इस सहारा को पकड़ो। जो इस को पकड़ता है, वह विषयानंद में नहीं दौड़ता। गोस्वामी तुलसीदास जी ने कहा है-

ब्रह्म पीयूष मधुर शीतल, जो पै मन सो रस पावै। 
तौ कत मृगजल रूप विषय, कारण निशिवासर धावै।।

विषय रस में जो दौड़ता है, इसका मतलब है कि ब्रह्म-पीयूष उसको मिला नहीं है। मनुष्य अपने अंदर अभ्यास करके ब्रह्म ज्योति और ब्रह्मनाद को प्रत्यक्ष देख सुन सकता है। यही सहारे हैं! संतों की वाणीयों में हम यही बात पढ़ते हैं। क्या वेद और क्या उपनिषद - ज्ञान सबमें यह बात है। आज भी जो करते हैं, उनको चिन्ह मिलता है। भजन करने की भी शक्ति होती है। जो अभ्यास को बढ़ा लेते हैं, उसको चिन्ह देखने में आता है। जो ब्रह्म दृष्टि से कुछ देखना चाहता है, वह नहीं देख सकता। अंतर्दृष्टि करो, तब देखने में आवेगा। आंख बंद करो, मानसिक-रचना को छोड़ो, बाहर का देखना छोड़ो, अंतर में दृष्टि रखो तब देखने में आवेगा कि अंतर में क्या है। पवित्रता से रहो ईश्वर भजन करो श्रवण मनन और साधन होना चाहिए, इसमें बल पाने के लिए सदाचार का पालन आवश्यक है। सदाचार पालन के बिना अंतर ज्योति और अंतर्नाद को कोई नहीं पा सकता। -संत सद्गुरु महर्षि मेँहीँ परमहंस जी महाराज 

संकलन: शिवेन्द्र कुमार मेहता, गुरुग्राम

ईश्वर में प्रेम | सदा ईश्वर में प्रेम रखो | सत्संग भजन करते रहो इसी में कल्याण है | Maharshi Mehi | Santmat Satsang | यहाँ सब कोई मुसाफिर हैं, फिर भी कहते हैं कि मेरा घर है।

ईश्वर में प्रेम  प्यारे लोगो!  संतों की वाणी में दीनता, प्रेम, वैराग्य, योग भरे हुए हैं। इसे जानने से, पढ़ने से मन में वैसे ही विचार भर जाते...