ईश्वर में प्रेम
प्यारे लोगो!
संतों की वाणी में दीनता, प्रेम, वैराग्य, योग भरे हुए हैं। इसे जानने से, पढ़ने से मन में वैसे ही विचार भर जाते हैं। तभी निर्विकारता, विरक्ति आती है। इसलिए संतवाणी का पाठ अवश्य करना चाहिए। देखिए हमारी कैसी दशा है, हम अपने समय को फजूल बिताते हैं। अपने समय को फजूल नहीं बिताना चाहिए। जो समय निर्दिष्ट नहीं रखते वे भजन नहीं कर सकते हैं। जो नियम पूर्वक साधन नहीं करते और संयम से नहीं रहते वे भजन नहीं कर सकते हैं। पहले योग्य बनो तब अभिलाषा करो। केवल अभिलाषा से क्या होता है। भजन करने की अभिलाषा यह है अपने को संयमित करना, ईश्वर प्रेमी बनना और विकारों से बचते रहना। लोभ- लालच परहेजगारी है। परहेज के बिना भजन में उन्नति नहीं हो सकती। योग्यता विहीन रहते हुए कोई भजन नहीं कर सकता है। संत कबीर साहब का वचन है-
मोरे जियरा बडा अन्देसवा, मुसाफिर जैहौ कौनी ओर।।
मोह का शहर कहर नर नारी, दुइ फाटक घनघोर।
कुमती नायक फाटक रोके, परिहौ कठिन झिंझोर।।
संशय नदी अगाडी बहती, विषम धार जल जोर।
क्या मनुवाँ तुम गाफिल सोवौ, इहवाँ मोर न तोर ।।
निस दिन प्रीति करो साहेब से, नाहिंन कठिन कठोर।
काम दिवाना क्रोध है राजा, बसैं पचीसो चोर ।।
सत्त पुरुष इक बसैं पछिम दिसि तासों करो निहोर ।
आवै दरद राह तोहि लावै, तब पैहो निज ओर ।।
उलटि पाछिलो पैडो पकडो, पसरा मना बटोर।
कहै कबीर सुनो भाइ साधो, तब पैहो निज ठौर ।।
यहाँ सब कोई मुसाफिर हैं, फिर भी कहते हैं कि मेरा घर है। किसी को यह यकीन नहीं है कि मैं सदा नहीं रहूँगा। माया मुलुक को कौन चलावे संग न जात शरीर । हम किधर को जाएँगे, मालूम नहीं है। संत कबीर जी को बड़ी चिन्ता हो रही है कि संसार से जाना जरूर है। बहुत अन्देशे की बात है। लोग अपना मार्ग नहीं जानते कि कहाँ जाएँगे। यह संसार अज्ञानता का शहर है। इसमें दो जुल्मी फाटक है-एक पुरुष का देह है दूसरा स्त्री का देह है। स्त्री देह में आवे तो भी विकार, पुरुष देह में आवे तो भी विकार। यहाँ से जाने का विचार होता है तो कुबुद्धि उसको जाने नहीं देती। संसय में मत रहो, संसार से हटने (अनासक्त होने) की साधन करो। यहाँ गाफिल मत सोओ। यहाँ मेरा तुम्हारा कोई नहीं। सदा ईश्वर में प्रेम रखो। काम क्रोध लोभ और अहंकार बड़े कठिन कठोर हैं। यह सब शरीर के स्वभाव हैं। उनके वश जो रहते हैं, वे दुःख पाते हैं। जो साधु भजन करता है, उसकी वृत्ति प्रकाश में चली जाती है। उससे निहोरा करो। उस पुरुष का स्वभाव बाहर में बड़ा उत्तम होता है। वह बराबर भजन करता रहता है, जिससे उसका विकार दूर हो जाता है। उनको दया होगी और वे आपको सच्ची राह में लगा देगें। जो पुरुष सच्चा अभ्यासी हो, संयम-नियम से रहता हो उससे निवेदन करो। वह तुमको सही रास्ता पर चढ़ा देगा। उलटो अर्थात बहिर्मुख से अन्तर्मुख हो जाओ। नौ द्वारों से दसवें द्वार की ओर चलो, यह मकरतार है। आप जिस चेतन धारा से आए हैं वही आपका रास्ता है। वह चेतन धार ज्योति और शब्द रूप में है। अपने पसरे हुए मन को समेटो। सिमटाव होगा तो ऊर्ध्वगति होगी और ऊर्ध्वगति होने से अपने स्थान पर चले जाओगे। शब्द ही संसार का सार है। शब्द ही वह स्फोट है जिससे संसार बना है। सब बनावट कम्पनमय है। कम्प शब्दमय है। सृष्टि गतिशील, कम्पनमय है। जो उस शब्द को पकड़ता है वह सृष्टि के किनारे पर पहुँचता है। जिसके ऊपर सृष्टि नहीं है, वह परमात्मा है। मानसजप, मानसध्यान से दृष्टियोग करने की योग्यता होती है। दृष्टियोग से शब्द मार्ग में चलने की योग्यता होती है।
सद्गुरु वैद्य वचन विश्वासा।संयम यह न विषय की आशा ।
सद्गुरु वचन पर विश्वास करो, संयम से रहो सत्संग भजन करते रहो इसी में कल्याण है।







