गुरु सदा शिष्य की संभाल करते हैं | GURU SADA SHISHYA KI SAMBHAL KARTE HAIN | PRAVACHAN-MAHARSHI-MEHI | SANTMAT-SATSANG

गुरु सदा शिष्य की संभाल करते हैं!
योगहीनं कथं ज्ञानं मोक्षदं भवतीह भोः। 
योगोऽपि ज्ञानहीनस्तु न क्षमो मोक्षकर्मणि।।१३।।
तस्माज्ज्ञानं च योगं च मुमुक्षुर्दृढमभ्यसतेत् ।    -योगशिखोपनिषद अ0 1 
योग कहते हैं जोड़ने को, मिला देने को। ज्ञान कहते हैं, जानने को। हम किससे मिलें और हम मिलावें तो क्या मिलावें, किसको  किससे योग करें यह जानना पड़ेगा। क्या करेंगे, पहले इसको जानने की आवश्यकता है। बिना पहिचाने जानना परोक्ष ज्ञान है। यह परोक्ष ज्ञान श्रवण। मनन और निदिध्यासन;तीन दर्जों में है। श्रवण ज्ञान में कुछ सुनना, मनन ज्ञान में विचारना और निदिध्यासन उसको अभ्यास में लाना निदिध्यासन है। श्रवण ज्ञान अग्नि के समान है, वह मायाजल से बुझ जाती है। मनन ज्ञान बिजली के समान है, निदिध्यासन ज्ञान बड़वानल के समान है और अनुभव ज्ञान महाप्रलय की अग्नि के समान है, उससे सारे द्वैत प्रपंच नष्ट हो जाते हैं। अनुभव ज्ञान का दर्जा बड़ा ऊँचा है। बिना पहचाने ज्ञान पहले ही मिलावे किससे? चित्तवृत्ति मिलावे मिले किससे? ईश्वर से मिले। ईश्वर प्रणिधान में ईश्वर से मिलने के लिए कहता है। चित्तवृत्ति मिल जाए तो सिमटाव में आवेगी। सिमटाव से उर्ध्वगति होगी। संसार का सुख संतोष दायक नहीं है। संसार की सीमा के बाद परमात्मा है। यदि उसको पकड़ोगे तो परमानन्द को प्राप्त कर लोगे। उसको प्राप्त होने से शान्तिमय सुख उससे मिलने लगेगा। संसार  या माया का पसार परिवर्तनशील है, परन्तु परमात्मा जस का तस रहता है। परमात्मा इन्द्रियातीत है। वह काल-कर्म से बाहर है। उल्टे-उल्टे गुण होते हैं। परिवर्त्तनशील वाले सुख से संतुष्टी नहीं होती है, अपरिवर्तनशील वाले सुख से संतुष्टी होती है। अपरोक्ष ज्ञान-योग के द्वारा ही उसे प्राप्त कर सकते हैं। 
जौं लौं सत्य स्वरूप न सूझत । 
तौं लौं मनु मणि कण्ठ विसारे, फिरत सकल वन बूझत।। 
  -संत सूरदास 
प्रभु से मिलने की कोशिश करनी ही भक्ति है। योग और भक्ति दोनों की महिमा बराबर है। इसमें बड़ी होशियारी चाहिए। 

जाकी सुरत लगी रहे जहवाँ ,कहै कबीर सो पहुँचे तहवाँ । 
नन्ह  बालक  नहिं  जोवने  नह   वृद्धि  कछु  बन्ध । 
वह अवसर  नहिं जानिये  जब आय  पडे  जमफंद ।। 

कुछ समय पहले जितने बच्चे जवान और बूढ़े आदमी हैं इनमें से कितने मर गए। हमारी वर्तमान की हालत मरने के समय में अच्छा रहे, ऐसा कर लीजिए। गीता में कहा गया है- 

प्रयाण काले मनसा चलेन  भक्त्त्या युक्तो योग बले न चैव।
भ्रुर्वोर्मध्ये   प्राणमावेश्य   सम्यक   पुरुष   मुपैति  दिव्यम् ।। 

मरने के समय में जो अचल मन से भक्ति-युक्त होकर योगबल से अपने भ्रुमध्य में दृष्टि को स्थिर रखते हुए शरीर छोड़ता है, वह परम प्रभु की प्राप्ति करता है।

सतगुरु शिष्य का बंधन काटे, गुरु का शिष्य विकार ते हाटे। 

गुरु सदा शिष्य की संभाल करते हैं। गुरु इसीलिए सत्संग का प्रचार करते हैं कि हमारा सेवक दुःखी न हो हमारे सेवक की संभाल हो। ऐसा ख्याल गुरु को तो रहता ही है। गुरु का दण्ड (छड़ी) कड़ी फटकार है। जो जीवन काल में बहुत अभ्यास करेगा, उसको कष्ट नहीं होगा। मरने के समय जो-जो भावना करेगें, वही-वही होगा। बुरी भावना मत कीजिए। मरने के बाद मुक्ति होगी, यह उपनिषद और संतवाणी को मान्य नहीं है। जीतेजी मुक्ति होगी। इसके लिए कितना अभ्यास करना होगा सो सोचिए। पूर्वापर (पहले की बात पर) विचार हुए बिना अर्थ ठीक नहीं होता है। तीन अवस्था से हट जाओ और त्रयगुणातीत हो जाओ। स्थान भेद से अवस्था भेद होता है। अवस्था भेद से ज्ञान भेद होता है। जाग्रत अवस्था से स्वप्न अवस्था में जाने से ज्ञान बदल जाता है। जगने के समय अगर आँख के स्थान में न हां, तो आँख नहीं देख सकती है। सबसे ऊपर आँख है। आँख से ऊपर कोई इन्द्रिय नहीं है। देखने से विशेष ज्ञान होता है। स्वप्न में कण्ठ में रहते हैं। आप वर्णों में बोलते हैं।ं वर्ण दो किस्म के होते हैं-स्वर और व्यंजन। स्वर अपने  आप बोला जाता है। कण्ठ में 26 स्वर हैं। स्वप्नावस्था में आप बोलते हैं कभी-कभी मुँह से आवाज निकल जाती है। इसलिए विश्वास होता है कि स्वप्नावस्था में हैं। हृदय में 12 कमल हैं। ‘अ’ सब अक्षरों में व्यापक है। हृदय में शब्द बन्द हो जाता है। कोई भावना शब्द के बिना नहीं होती। तुरीय अवस्था आँख से ऊपर जाने में होता है। आँख से ऊपर की जो पहली सीढ़ी है वहाँ से तुरीय अवस्था का आरम्भ है। छठे चक्र से सत्यलोक तक तुरीय अवस्था है। जहाँ तक यह भेद रहता है कि मैं अनुभव कर रहा हूँ वहाँ तक तुरीय अवस्था रहती है। समरूप के तीन गुण का स्थान भँवर गुफा है। तुरीय में ब्रह्म की पहचान होती परन्तु उससे मिलाप नहीं। तुरीयातीता पद निर्विकल्प असमप्रज्ञात समाधि है। प्रभाशून्यं मनः शुन्यं बुद्धिशून्यं चिदात्मकम्। तुरीय में समप्रज्ञात समाधि है। किसी की आभा अच्छी नहीं होती है, किसी कि आभा अच्छी होती है। सब कोई अपनी-अपनी आभा में रहता है। सबको अपनी आभा है। भजन-सत्संग करने के स्थान में वही आभा चढ़ता है। जहाँ सत्संग भजन नहीं होता है वहाँ का आभा गड़बड़ हो जाता है। मैंने एक दिन भीख माँगा तो उस माता ने बड़ी गाली दी, क्योंकि उसका बेटा मर गया था। लकड़ी काटकर बेच लो या घास निकालकर बेच लो कुछ रोजगार करो 1909 ई0 की बात है। मैंने मन कहा कि जिस दिन तुम भीख माँगकर लाओगे मैं वह फेंक दूँगा। अब मुझे यह ख्याल नहीं है कि कोई मुझे खिलावे या नहीं खिलावे। गुरु के बताए हुए तरीके से जो चलता है, उसका कभी अकल्याण नहीं होता। जो इन्द्रियों के धर्म में बरत रहे हैं, वे गुरु नहीं है। जो इन्द्रियों के धर्म से बच बच के बरतते हैं, वे गुरु हैं। आयु छिन-छिन घटता जाता है और समय छिन-छिन बढ़ता जाता है। यह हरेक आदमी को सोचना चाहिए कि बहुत जरूरी काम क्या है? शरीर छोड़ने के बाद कहाँ जाएँगे? शरीर छोड़कर कोई दुःख में जाना नहीं चाहता है। नरक दुःख का स्थान है। कब शरीर छूट जाएगा, इसका ठिकाना नहीं है। इस लिए ईश्वर भजन बहुत जरूरी है। हमारी आयु जितनी चली गई वह लौटकर नहीं आवेगी। आत्मा तो सदा रहेगी। यदि थोड़ी खुशी छोड़ने से बड़ी खुशी प्राप्त हो तो थोड़ी खुशी को छोड़कर बड़ी खुशी की ओर जाओ। विषय सुख थोड़ा सुख है। आत्म सुख प्राप्त करो। समय गुजरते देर नहीं होगी। अपनी सुरत की धारों को एकत्र करो या चित्तवृत्ति का निरोध करो, यही सुरत का बेड़ा बाँधना है। काम, क्रोध, अहंकार और तृष्णा और सब बिकारों को छोड़ दो, यह सिक्खों के नवें गुरु तेगबहादुर का वचन है। 

कमठ दृष्टि जो  लावई, सो  ध्यानी  परमान ।। 
सो ध्यानी  परमान, सुरत   से   अण्डा   सेवै । 
आप रहे  जल  माहिं, सूखे  में  अण्डा   देवै ।। 
जस  पनिहारी  कलस  भरे  मारग  में  आवै । 
कर छोडै मुख वचन चित्त  कलसा  में  लावै ।। 
फणि मणि धरै उतारि आपु  चरने  को  जावै । 
वह गाफिल ना परै, सुरति मणि   माहिं रहावै ।। 
पलटू कारज सब  करै, सुरति  रहै  अलगान । 
कमठ दृष्टि जो  लावई, सो  ध्यानी  परमान ।।     
   -संत पलटू साहब 
कछुवी सूखी जमीन पर अण्डा देती है और अपने पानी में रहती है। वह अपने ख्याल को अण्डे पर लगाए रखती है, नहीं तो अण्डा सड़ जाएगा। इसी प्रकार तुम अपने ख्याल को ध्येय में लगाए रखो, यह मानस-ध्यान है। पनिहारी घड़े में पानी भरकर सिर पर रखती है और मुँह से बोलती जाती है। सखियों से बात करती है, फिर भी उसके सिर से घड़ा गिरता नहीं है। सुरत से घड़ा को पकड़ी हुई रहती है। यह भी मानस-ध् यान है। ऐसे भक्त इतने बड़े होते हैं कि उनका दर्शन बिरले को हो पाता है। एक का पदार्थ उससे दूर है और एक का पदार्थ उसके अंग-संग मौजूद है। सिर के ऊपर जो ख्याल है वह इन्द्रियों के ऊपर ख्याल है। कछुवी का ख्याल नीचे है। मणिवाला साँप मणि की ज्योति के अन्दर में घूमता है। यह उससे ऊँचा है। 
निशदिन रहै सुरत लौ लाई । पल पल राखो तिल ठहराई ।। 
हमारा तिल भी पनिहारी के तरह अंग-संग मौजूद है। जिस प्रकार पनिहारी घड़े को देखती है उसी प्रकार यदि साधक एक बार भी तिल को देख ले तो उनका ख्याल भी तिल पर  पल-पल रहेगा। जैसे मूर्त्ति का ध्यान करके मानस-ध्यान  होता है, उसी प्रकार तिल का भी मानस-ध्यान होता है। बारम्बार इन्द्रियों के ऊपर चढ़े तो  वह  संयमी  हो  जाएगा। प्रत्यक्ष ज्योति के अन्दर विचरण करना बिना ध्यान  के  नहीं होगा। जो ध्यान में सदा संलग्न रहेगा, वही ऐसा कर सकता है। अगर खास भक्ति करते हो तो मेरे उपदेश को मानो। ईश्वर ने जो तुम्हारी भलाई की है, उसके उपकार को मानो। जो आत्मतत्त्व का प्रत्यक्ष ज्ञान लाभ किया है, उसकी सेवा करो। दुःख, सुख, मान, अपमान और बड़ाई में अपने को समान रखो। जैसे बेंग (मेढ़क) साँप को पकड़ लेता है, उसी प्रकार काल ने हम सबको पकड़ लिया है, सिर्फ मुँह बाँकी है। हम काल से ग्रसित हैं। जीव भी संसारी वासना में फँसे हुए हैं। इस शरीर के लिए दूसरे को दुःख मत दो, नहीं तो तुम कपटी भक्त हो। कपट से लौ लगाने पर राम नहीं मिलते।
 प्यारे मित्रो! क्यों बिलम्ब करते हो, शीघ्रता से आकाश के द्वार पर  चढ़  जाओ। आँख बन्द कर देखो, तुम  अंधकार  में  हो। अंधकार  का गुण अज्ञानता है। इस अंधकार में रहने के कारण भ्रम और अज्ञानता में डूबे हुए हो। आकाश का द्वार तिल है। यह ऐसा निशाना है कि जिस निशाने पर स्थिर होने से देखोगे कि अंधकार नहीं है। अंधकार में पतलापन आ गया अर्थात कम हो गया। तुलसी साहब कहते हैं- 
श्यामकंज लीला गिरि सोई । तिल परिमान जान जन कोई् ।। 
छिन छिन मन को तहाँ लगावै। एक पलक छूटन नहि पावै।। 
श्रुति ठहरानि रहे आकासा। तिल खिडकि में निस दिन वासा।। 
गगन द्वार  दीसे  एक  तारा। अनहद नाद सुनै झनकारा ।। 
प्रकाश हो गया यह बात ऐसी है कि  ‘खग जाना खग ही की भाषा’  करो तो अवश्य मालूम होगा। शरीर रूपी नगरी में अंधकार समाया हुआ है, इसमें भूल भरम होता है। नवों द्वारों में  वृत्ति नहीं रहने दो तो प्रकाश देखोगे। पहला परदा  अंधकार  है। आँख में ज्योति है तो तुम्हारे अन्दर में गर्मी है। प्रकाश है तो अन्दर में शब्द भी है। है वह जहाँ अंधकार और प्रकाश का मिलन स्थान है, आकाश का द्वार है। बाहरी सत्संग के बिना अंतरी सत्संग का ज्ञान नहीं होगा। 
है सब में सब ही ते न्यारा । 
जीव जन्तु जलथल सब ही में। शब्द व्यापत बोलनहारा।।   
अपने को जानने के लिए अपने अन्तर में अभ्यास करना चाहिए। अपने आप को पहचानो, चाहे तू कहीं रहो। तुम्हारे शरीर के अंदर ब्रह्म तत्त्व हई है। सहज में उससे मिल सकते हो। यदि अपने में खोजो तो वह प्रभु अवश्य मिलेगें।
निज तन खोज सज्जन बाहर न खोजना। 
अपने ही घट में हरि है अपने में खोजना।।

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