मानव-शरीर क्यों?
छाग के चमड़े से वाद्ययंत्रादि, गौवृषभादि के चमड़ों पदत्राणादि, गेंड़े के चमड़ों से ढाल और मृगाव्याघ्रादिक के चमड़ों से ऋषि-मुनियों के आसन बनते हैं; किन्तु आपने अपने लिए भी सोचा है कि आपके चमड़े का क्या होगा? उसका कुछ भी नहीं। इसलिए कहा गया है-
या देही का गर्व न करिये, स्यार काग गिध खइहैं।
तीन नाम तन विष्टा कृम होय, नातर खाक उडइहैं।।
यह शरीर सियार, काग और गृधदि का भोजन होगा, जलकर भष्मसात् या खाक, सड़कर विष्ठावत् और फिर उससे कीड़े उद्भूत होंगे। और क्या होगा? संत कबीर के शब्दों में-
कबीर गर्व न कीजिए, चाम लपेटे हाड़।
हय वर ऊपर छत्र तर, तौ भी देवैं गाड़।।
कबीर गर्व न कीजिये, ऊँचा देखि अवास।
ऊपर ऊपर हल फिरैं, ढोर चरेंगे घास।।
धन यौवन का गर्व न कीजै, झूठा पँच रंग चोल रे।
भगवान बुद्ध ने कहा था- ‘अपफसोस! थोड़े ही समय में यह शरीर तुच्छ हालत में बेजान-बेकार लट्ठे की तरह पृथ्वी पर पड़ा रह जाएगा।’ ऐसी परिस्थिति में हमें क्या करना चाहिए? क्या हथेली-पर-हथेली रखकर चुपचाप बैठ जाना चाहिए? अथवा मनुष्य-शरीर की क्या उपयोगिता है, इसे भी जानना चाहिए? अच्छा, अब आइए और संतवाणी पर विचार कीजिए। रामचरितमानस में आया है-
देह धरे कर यहि फल भाई।
भजिय राम सब काम बिहाई।
अर्थात्, हे भाई! मानव-शरीर प्राप्त करने का फल यह है कि सांसारिक सभी कामनाओं को छोड़कर परमात्म-भजन करना। इसको संत कबीर के शब्दों में कह सकेंगे-
नहिं अचाह नहिं चाहना चरणन लौ लीना रे।
अर्थात् परमार्थ-साधन में अनिच्छा-रहित और स्वार्थ-साध्न में इच्छा-रहित रहते हुए प्रभु-चरणों में लवलीन रहना, नर-तन का यह पुनीत कर्त्तव्य है। रामचरितमानस में भगवान श्रीराम ने मनुष्य-शरीर की दुर्लभता और विशेषता की भूरि-भूरि प्रशंसा करते हुए कहा है-
आकर चारि लाख चौरासी। योनि भ्रमत यह जीव अविनासी।।
फिरत सदा माया कर प्रेरा। काल कर्म सुभाव गुन घेरा।।
कबहुँक करि करुना नर देही। देत ईस बिनु हेतु सनेही।।
साधन धाम मोक्ष कर द्वारा। पाइ न जेहि परलोक सँवारा।।
अर्थात् यह जीव चार खानियों- स्थावर, (उद्भिजद्ध), उष्मज, अण्डज और पिण्डज तथा चौरासी लक्ष योनियों में भटकते हुए, उन स्थानों की असह्य यातनाओं को सहन करते-करते जब श्रान्त-कलान्त, दुःख से जर्जर, आकुल एवं अधीर हो अपना धैर्य खो बैठता है, तब ईश्वर अपनी अहैतुकी कृपा से मनुष्य का शरीर देते हैं, जो शरीर सभी साध्नाओं का घर और मोक्ष का द्वार है। यह शरीर इतना उत्कृष्ट है कि इसके अंदर सभी विद्याएँ, सभी देवता और सभी तीर्थ विराजमान हैं।
इसके साथ ही इस पिण्ड में अखिल ब्रह्माण्ड भी है।
पिंड माहिं ब्रह्माण्ड ताहि पार पद तेहि लखा। (तुलसी साहब)
(1. राम ब्रह्म परमारथ रूपा। अविगत अलख अनादि अनूपा।।
सकल विकार रहित गत भेदा। कहि नित नेति निरूपहिं वेदा।।
(रामचरितमानस)
2. देहस्थाः सर्वविद्याश्च देहस्थाः सर्व देवताः।
देहस्थाः सर्वतीर्थाणि गुरुवाक्येन लभ्यते।।
(ज्ञानसंकलिनीतंत्राद्ध))
ब्रह्माण्डलक्षणं सर्वदेहमध्ये व्यवस्थितम्। (ज्ञानसंकलिनी तंत्र) संत कबीर और संत गुरु नानक साहब ने पिण्ड को बूँद और ब्रह्माण्ड को समुद्र की उपमा देते हुए कहा है कि समुद्र में बूँद है, इसको तो सभी जानते हैं और देखते हैंऋ किन्तु बूँद; अर्थात् पिण्डद्ध के अंदर समुद्र; (अर्थात् ब्रह्माण्ड) है, इसको विरले ही जानते और देखते हैं।
बुँद समाना समुँद में, यह जानै सब कोय।
समुँद समाना बुँद में, बूझै विरला कोय।।
(संत कबीर)
सागर महिं बूँद बूँद महि सागरु कवणु बुझै विधि जाणै।
उतभुज चलत आपि करि चीणै आपे तत्तु पछाणै।।
(गुरु नानक)
इतना ही नहीं गुरु नानकदेवजी ने तो बताया है कि इस शरीर-रूप गुफा में अखूट भंडार भरा हुआ है और परम प्रभु परमात्मा भी इस शरीर में विराजमान है-
इस गुफा महि अखुट भंडारा । तिसु विचि बसै हरि अलख अपारा।।
संत कबीर साहब ने कहा है- यह शरीर- रूप घर देखने में तो साढ़े तीन हाथ का या अध्कि-से-अध्कि पौने चार हाथ का है, लेकिन इसकी गहराई महासमुद्र से भी अत्यध्कि है; क्योंकि समुद्र की तो थाह है और यह शरीर अथाह है, लेकिन जो इनमें डुबकी लगाता है, वह बहुमूल्य रत्नराज परमात्मा को पाता है-
‘कहा चुनावै मेडिया, लंबी भीति उसारि।
घर तो साढे तीन हथ, घना तो पौने चार।।’
‘काया बडे समुद्र केरो, थाह न पावै कोइ ।
मन मरि जैहैं डूबि के हो, मानिक लावै सोइ ।।’
(संत कबीर)
इस प्रकार यह शरीर जलचर, थलचर और नभचर को तो कौन कहे, देवशरीर से भी बढ़कर है। साथ ही, ‘साधन धाम मोक्ष कर द्वारा’ कहकर भगवान श्रीराम ने इसको और भी उत्कृष्ट बना दिया है। इसलिए चाहे किसी प्रकार की साधना या किसी भी प्रकार का ज्ञान (आधिभौतिक या आध्यात्मिक) हो, वह सभी शरीरों में सुलभ है। और, जबकि इस शरीर में परम प्रभु परमात्मा निवास करते हैं, तब उनके स्वरूप की अपरोक्षानुभूति भी अन्य शरीरों में कैसे संभव है? अर्थात् परमात्म- स्वरूप की प्राप्ति भी इसी में पूर्णरूपेण अपेक्षित है। इसलिए इस शरीर की इतनी महत्ता है और इन्हीं कारणों से मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान श्रीराम भी अपने मुखारविन्द से बिना किसी हिचकिचाहट के सुस्पष्ट कह देते हैं-
बडे भाग मानुष तनु पावा ।
सुर दुर्लभ सब ग्रंथहिं गावा ।।
ऐसी परिस्थिति में मनुष्य यदि देव-देह या देवलोक या देव-रिझावन के लिए यत्न करे, तो विचारवान सहज ही समझ सकते हैं, वह अपने कितने बड़े लाभ की उपेक्षा करके कितनी बड़ी क्षति की ओर अग्रसर हो रहा है। इसलिए तो गोस्वामी तुलसीदासजी महाराज ने सापफ ही कहा है-
देव दनुज मुनि नाग मनुज सब माया बिबस बिचारे ।
इनके हाथ दास तुलसी प्रभु कहा अपनपौ हारे।।
(विनय-पत्रिका)
उन्नीसवीं शताब्दी में एक महात्मा हो गए हैं, जिनका नाम था तुलसी साहब। देव-शरीर एवं देवलोकवासियों की अपेक्षा मानव-शरीर को उत्कृष्ट बतलाते हुए वे कहते हैं-
वह नरतन दुर्लभ देव को, सब कोइ कहै पुकार ।।
सब कोइ कहै पुकार, देव देही नहिं पावै ।
ऐसे मूरख लोग, स्वर्ग की आस लगावै ।।
पुण्य क्षीण सोइ देव, स्वर्ग से नरक में आवै ।
भरमे चारिउ खानि, पुण्य कहि ताहि रिझावै ।।
तुलसी सत मत तत गहे, स्वर्ग पर करे खखार ।
नरतन दुर्लभ देव को, सब कोइ कहै पुकार ।।
कविहृदय स्वाभाविक ही भावुक होता है। इनके कहने का ढंग निराला एवं मर्मस्पर्शी होता है। अतएव उनके काव्यकला-गांभीर्य से प्रभावित हुए बिना जनसाधरण बच नहीं सकते। संतों के अनुभव-ज्ञान से अपने अनुमान ज्ञान को मिलाकर मानो ऐक्य की स्थापना कर देते हैं। कैसी अच्छी उक्ति है उनकी! उनका कहना है कि मनुष्य-शरीर बहुत दुर्लभ है। इसको प्राप्त करके मनुष्य को चाहिए कि गुरु-प्रदत्त मंत्रा का जप प्रति श्वास में करे। परमात्म-प्रेम की ज्वाला प्रज्वलित करके पाप के बीज को भूनकर भस्म कर डाले और दुःखभंजन निरंजन (माया-रहित) परमात्मा के नाम को भूलकर भी न भूले अर्थात् सतत स्मरण करता रहे, तभी मानव-जन्म सार्थक है-
अति दुर्लभ है तन मानुष को यह पारस ज्ञान विचारिये जी ।
गुरु मन्त्र दियो जो दया करके सोइ श्वास में श्वास उचारिये जी ।।
प्रभु प्रीति की ज्वाल प्रज्वाल करो अरु पाप के बीच को जारिये जी ।
दुखभंजन नाम निरंजन को कबहूँ मति भूल बिसारिये जी ।।
हमारे राष्ट्रपिता पूज्य बापू (गाँधी जी) ने ‘मनुष्य-अवतार किसलिए हुआ तथा हममें और पशु में क्या अन्तर है’, पर प्रकाश डालते हुए कहा था- ‘हमारा मानव-अवतार इसलिए हुआ कि हमारे अन्तर में जो ईश्वर बसता है, उसका साक्षात्कार हम कर सकें। पशुओं और हममें अन्तर यही है।’ मनुष्य अपनी वाणी द्वारा भाव की अभिव्यक्ति कर सकता हैऋ सदाचारी बनकर परमात्म-स्वरूप का अपरोक्ष ज्ञान प्राप्त कर सकता है, किन्तु पशु न तो अपनी बोली द्वारा भाव की अभिव्यक्ति कर सकते हैं और न परमात्म-स्वरूप का परोक्ष वा अपरोक्ष ज्ञान प्राप्त कर सकते हैं।’ (महर्षि मेँहीँ)
उत्तरगीता के दूसरे अध्याय में भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन से कहा है-
आहारनिद्राभयमैथुनंच सामान्यमेतत् पशुभिर्नराणाम् ।
ज्ञानं नराणामधिकं विशेषो ज्ञानेनहीनाः पशुभिः समानाः।।
अर्थात् आहार, निद्रा, भय तथा मैथुन; इन सब विषयों में पशु और मनुष्य में कुछ भी प्रभेद नहीं है। केवल ज्ञानलाभ करने पर ही मनुष्य पशु से श्रेष्ठ हो सकता है, सुतरां स्पष्ट प्रतीत होता है कि ज्ञानहीनता मनुष्य पशुतुल्य है।
संत कबीर साहब ने तो वाणी में कमाल ही कर दिया है। वे बड़े मजे में कहते हैं-
बैल गढन्ता नर गढा, चूका सींग अरु पूँछ ।
एकहि गुरु की भक्ति बिन, धिक दाढी धिक मूँछ ।।
गो0 तुलसीदासजी की वाणी भी जरा सुन लीजिए-
रामचन्द्र के भजन बिनु, जो चह पद निर्वान ।
ज्ञानवन्त अपि सो नर, पसु बिन पूँछ विषान ।।
उपर्युक्त उद्धरणों से ज्ञात होता है तथा मनीषियों ने बताया है कि मनुष्य और पशु में केवल ज्ञान का ही अन्तर है। ज्ञानसम्पन्न मानव देवता से बढ़कर है और ज्ञानहीन मानव दानव से भी बदतर। यहाँ ‘ज्ञान’ को भी जान लेना आवश्यक है। ‘ज्ञान’ शब्द से विषय-ज्ञान जानना नितान्त भूल है; क्योंकि मनुष्य-शरीर में विषय- भोग को वमन-तुल्य कहा गया है-
जो विषया सन्तन्ह तजी, मूढ ताहि लपटात ।
जौं नर डारत वमन करि, स्वान स्वाद सों खात।।
अतएव स्पष्ट है कि श्वान-सदृश विषय- रूपी सूखी हड्डी चबाने के लिए मनुष्य-शरीर नहीं है। यह तो निर्विषय तत्त्व परमात्मा का भजन तथा उनकी प्राप्ति करने के लिए है। भगवान श्रीराम ने अपनी प्रजा को यही सीख दी थी कि मनुष्य-शरीर पाने का फल विषय- विलास नहीं है और न स्वर्ग की आस ही है; क्योंकि इससे आत्मशक्ति का ”ह्रास होता है और जीवन का विनाश होता है। नरतन पाकर जो विषय में रमण करते हैं, वे निश्चय ही शमन-भवन को गमन करते हैं। भगवान श्रीराम कहते हैं- अमृतत्व से हट विषय-विष को लेनेवाला शठ है। भला, उसको कौन भला कह सकता है, जो पारसमणि को तजकर गुंजा ग्रहण करता है?
एहि तन कर फल विषय न भाई। स्वर्गउ स्वल्प अन्त दुखदाई।।
नर तन पाइ विषय मन देहीं। पलटि सुधा ते सठ विष लेहीं।।
ताहि कबहूँ भल कहइ न कोई। गुँजा ग्रहइ परसमनि खोई।।
(रामचरितमानस)
इसलिए यह बात अत्यन्त दृढ़तापूर्वक जाननी चाहिए कि उपर्युक्त ‘ज्ञान’ शब्द का व्यवहार ‘आत्मज्ञान’ के लिए हुआ है, जिसकी विलक्षण व्याख्या भगवान श्रीकृष्ण ने श्रीमद्भगवद्गीता, अध्याय 13/2 में की है; यथा-
क्षेत्रज्ञं चापि मां विद्धि सर्वक्षेत्रेषु भारत ।
क्षेत्रक्षेत्रज्ञयोर्ज्ञानं यत्तज्ज्ञानं मतं मम ।।
अर्थात् हे भारत! सब क्षेत्रों में क्षेत्रज्ञ भी मुझे ही समझ। क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ का जो ज्ञान है, वही मेरा (परमेश्वर का) ज्ञान माना गया है। पुनः इसी त्रायोदश अध्याय के ग्यारहवें श्लोक में है-
अध्यात्मज्ञाननित्यत्वं तत्त्वज्ञानार्थ दर्शनम् ।
एतज्ज्ञानमिति प्रोक्तमज्ञानं यदतोऽन्यथा ।।
अर्थात् अध्यात्म-ज्ञान को नित्य समझना और तत्त्व-ज्ञान के सिद्धान्त का परिशीलन- इनको ज्ञान कहते हैं। इसके अतिरिक्त जो कुछ है, सब अज्ञान है। श्रीमद्भगवद्गीता के चौथे अध्याय में भगवान श्रीकृष्ण ने महाबाहु अर्जुन से ज्ञान की महिमा कही है-
अपि चेदसि पोपेभ्यः सर्वेभ्यः पापकृत्तमः।
सर्वं ज्ञानप्लवेनैव वृजिनं संतरिष्यसि ।।36।।
यथैधांसि समिद्धोऽग्निर्भस्मसात्कुरुतेऽर्जुन।
ज्ञानाग्निः सर्वकर्माणि भस्मसात्कुरुते तथा।।37।।
न हि ज्ञानेन सदृशं पवित्रमिह विद्यते ।
तत्स्वयं योगसंसिद्धः कालेनात्मनि विन्दति ।।38।।
श्रद्धावाँल्लभते ज्ञानं तत्परः संयतेन्द्रियः।
ज्ञानं लब्ध्वा परां शान्तिमचिरेणाधिगच्छति।।39।।
तस्मादज्ञानसंभूतं हृत्स्थं ज्ञानासिनात्मनः।
छित्त्वैनं संशयं योगमातिष्ठोत्तिष्ठ भारत ।।42।।
अर्थात् समस्त पापियों में तू सबसे बड़ा पापी हो, तो भी ज्ञानरूपी नौका द्वारा सब पापों को तू पार कर जाएगा ।।36।।
हे अर्जुन! जैसे प्रज्वलित अग्नि ईंधन को भस्म कर देती है, वैसे ही ज्ञानरूपी अग्नि सब कर्मों को भस्ममय कर देती है ।।37।।
ज्ञान के समान इस संसार में कुछ भी पवित्र नहीं है। योग में पूर्णता प्राप्त मनुष्य समय पाकर अपने-आपमें उस ज्ञान को प्राप्त करता है।।38।।
श्रद्धावान, ईश्वरपरायण, जितेन्द्रिय पुरुष ज्ञान पाता है और ज्ञान प्राप्त कर तुरन्त परम शान्ति पाता है ।।39।।
इसलिए हे भारत! हृदय में अज्ञान से उत्पन्न हुए संशय को आत्मज्ञान-रूप तलवार से नष्ट करके योग-समत्व धरण के लिए खड़ा हो ।।42।।
महाभारत, शान्ति पर्व, उत्तरार्द्ध, मोक्षधर्म, अध्याय 154 में भगवान श्रीकृष्ण ने कहा है- दया-धर्म ही उत्तम है, शान्त होना ही बड़ा पराक्रम है और ज्ञानों में आत्मज्ञान श्रेष्ठ है।
बृहत्तन्त्रासार में लिखा है कि ज्ञान से मोक्ष मिलता है, इसलिए ज्ञान सर्वश्रेष्ठ है-
ज्ञानान्मोक्षमवाप्नोति तस्माज्ज्ञानं परात्परम् ।
गो० तुलसीदासजी ने भी ठीक इसी तरह कहा है-
धर्म ते बिरति जोग तें ज्ञाना। ज्ञान मोक्षप्रद वेद बखाना।।
इस प्रकार अन्त में हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि ज्ञान-योगयुक्त ईश्वर की भक्ति करके परमात्म-स्वरूप की प्रत्यक्षानुभूति करना ही मानव-जीवन का परमोत्कृष्ट कर्त्तव्य है या सीधे शब्दों में हम कह सकेंगे कि सद्ज्ञान-अर्जन करके परमात्म-स्वरूप की अपरोक्षानुभूति के लिए ही मानव-शरीर मिला है।





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