मैं संतों का पुजारी हूँ।
अनन्त एक ही है, इसलिए ईश्वर एक है। सब सांतों के पार में अनन्त अवश्य है। उसके गुण और शक्ति का परिमित बुद्धि से निर्णय होना संभव नहीं है। गुण-कर्मों के द्वारा उनका निर्णय नहीं हो सकता है। अपरिमित शक्ति कैसी होती है, यह परिमित बुद्धि को नहीं मालूम होता है। विषय क्षणभंगुर है। संसार में विषयों से नकली काम चलता है। संसार से हृदय अलग करके रखना चाहिए। राजा भरत हिरण से प्रेम करता था। शरीर छोड़ते समय हिरण में मन चला गया, इसलिए हिरण बनना पड़ा। आत्मा सबका एक है, भिन्न नहीं है और शरीर भाव से भिन्न-भिन्न है। जैसे -
सुरति शबदु भवसागर तरिअै नानक नामु बखानै।।
जो संसार का कार्य संभालता है, वह संसार में शोभा पाता है। अर्जुन से भगवान श्री कृष्ण ने कहा-तुम युद्ध भी करो और मेरा ध्यान भी करते रहो।
‘गृही माहि जो रहै उदासी, कहै कबीर मैं तिनके दासी।’
‘कबीर चाले हाट को, कहे न कोइ पतियाय।
पाँच टके का दोपटा, सात टके को जाय।।’
‘अनविचार रमनीय महा संसार भयंकर भारी।’
लोग कहते हैं कि मैं पुजारी हूँ। मैं भी संतों का पुजारी हूँ।
‘संत भगवन्त अन्तर निरन्तर नहीं किमपि मति विमल कह दास तुलसी।’
मैंने अभी संतों का प्रसाद बाँट दिया। संतों के जितने वचन हैं, ये भी प्रसाद हैं। यह संसार विषयों का सागर है और हमलोग इसमें डूब रहे हैं। संत इस बात को जानते हैं और चेताते हैं।
मरिये तो मरि जाइये छूट पडै जंजार।
होशियारी की बात है कि अपने सरोकारी वस्तुओं से लाग (संबंध) हटा लो। इन्द्र बन जाओ, तब भी विकार नहीं छूटेगा। संसार और परमार्थ दोनों कामों के साथ-साथ चलो। संसार से बचने का ज्ञान संत-महात्मा बतला देते हैं। उनके प्रसाद से राम-नाम सब कोई जाने। -संत सद्गुरु महर्षि मेँहीँ परमहंस जी महाराज
संकलन: शिवेन्द्र कुमार मेहता, गुरुग्राम

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