महर्षि संतसेवी परमहंस का जीवन-चरित | PART-4 (मनिहारी-प्रवास | गुरुदेव का स्थायी सान्निध्य | दर्शन और आध्यात्मिक ग्रंथों का गहन अध्ययन | नवीन नामकरण) Maharshi Santsevi Paramhans Jeevan-Charit

महर्षि संतसेवी परमहंस का जीवन-चरित | PART-4 
(मनिहारी-प्रवास | गुरुदेव का स्थायी सान्निध्य | दर्शन और आध्यात्मिक ग्रंथों का गहन अध्ययन | नवीन नामकरण)      
मनिहारी-प्रवास:
मनिहारी के कुछ सत्संगियों ने गुरुदेव से प्रार्थना की- ‘‘ये तो ‘संतमत-सत्संग  मंदिर’ में रहते ही हैं। अगर अपना कुछ समय निकालकर ये हमारे बच्चों को पढ़ाने में दिया करें, तो उनको भी कुछ लाभ हो जाए और इनके सत्संग से हमें भी कुछ लाभ हो जाए।’’ गुरुदेव ने इन्हें पढ़ाने का आदेश दे दिया। ये मनिहारी के दुर्गास्थान में जाकर बच्चों को पढ़ा आया करते। पर कुछ दिनों के बाद समयाभाव के कारण इन्होंने गुरुदेव की आज्ञा से पढ़ाने का काम छोड़ दिया। सत्संगियों ने पुनः गुरुदेव से इसके लिए विनती की। अब ये सत्संग-आश्रम में ही बच्चों को पढ़ाने का कार्य करने लगे। इस दौरान इन्हें एक बार चेचक हो गया। इन्हें काफी पीड़ा हुई। श्रीनारायण अग्रवाल की पुण्यमयी माताजी ने इस दौरान इनकी काफी सेवा-सुश्रूषा की। ये इस बीमारी से कुछ स्वस्थ हुए कि इनके पास पढ़ने के लिए आनेवाले बच्चे भी इस बीमारी की चपेट में आ गए। इनके हृदय में अपने छात्रों के प्रति करुणा उमड़ आयी। चेचक के अधसूखे घाव की चिंता किये बिना, ये मनिहारी आश्रम से आधा मील दूर बाजार जाकर उन बच्चों से मिले और उनके स्वस्थ होने की प्रार्थना परमाराध्य गुरुदेव से की।

 गुरुदेव का स्थायी सान्निध्य:
सन् 1949 ई0 में गुरुदेव ने इनसे अध्यापन का कार्य छुड़वा दिया। दस वर्ष पूर्व जो सदिच्छा इनके भीतर अंकुरित हुई थी, वह इस समय आकर पूरी हुई। ये स्थायी रूप से गुरुदेव के सान्निध्य में रहने लगे। इन्हें इससे आत्मतुष्टि का बोध हुआ। अब ये पूर्ण समर्पित भाव से गुरुदेव की सेवा में संलग्न रहने लगे। मनिहारी  सत्संग  मंदिर में रहते हुए ये गुरुदेव की सेवा अनन्यभाव से करने लगे। एक बार गुरुदेव ने इनपर कृपा की। प्रतिदिन तीन बजे ब्राह्ममुहूर्त में ये उन्हें जगा दें, ऐसा आदेश उन्होंने इन्हें दिया। उनके आदेशानुसार उनको जगाने के लिए इन्होंने अपने पास एक अलार्म घड़ी रख ली। जब ब्राह्ममुहूर्त्त में तीन बजे घड़ी की टन-टन आवाज होती, तो ये उठकर गुरुदेव के निकट जाते। जैसे ही ये उनकी कोठरी के दरवाजे के निकट पहुँचते, वैसे ही गुरुदेव कहते- ‘कौन? महावीरजी!’ ये कहते-‘जी हाँ।’ पुनः वे इनसे कहने की कृपा करते-‘अच्छा, जाइये। आप ध्यानाभ्यास कीजिए।’ और वे स्वयं स्थानीय सत्संगी सज्जन श्रीमहावीर प्रसाद अग्रवालजी के साथ गंगा-स्नान करने चले जाते। इस प्रकार लगातार एक माह तक जब-जब ये गुरुदेव को ब्राह्ममुहूर्त्त में जगाने के लिए जाते, तो उनको जगा हुआ पाते। इस घटना से ये विस्मित हुए। इन्हें यह भान हुआ कि जो समस्त संसार को अज्ञान-निद्रा से जगाने के लिए आविर्भूत हुए हैं, उनको ये क्या जगाएँगे? सच तो यह था कि उन्होंने इन्हें ही ब्राह्ममुहूर्त्त में ध्यानाभ्यास-हेतु जगाने के लिए गंगा-स्नान का बहाना किया था। ये तब से नित्य प्रति पौने तीन बजे जगकर योगसाधना में संलग्न हो जाया करते। चार बजते ही ये योगसाधना से उठकर गुरुदेव के शौच के लिए लोटा-बाल्टी में कुआँ से जल लाकर भर देते। गुरुदेव के शौच से लौटने के पूर्व ही, ये उनके लिए मिट्टी और दतवन रख दिया करते। इसके बाद ये अपने नित्य क्रियाकर्म से निवृत्त होते। गुरुदेव दतवन कर टहलने के लिए चले जाते। इस दौरान, ये सारे आश्रम की सफाई करते और फूलों की क्यारी में निकौनी आदि कर उसमें पानी डालते। प्रातः भ्रमण से गुरुदेव के लौटते ही ये उन्हें पाँव धोने के लिए पानी देते। गुरुदेव के साथ ही ये प्रातःकालीन सत्संग में सम्मिलित होते। सत्संग में स्तुति-विनती करने के बाद ये सद्ग्रंथों का पाठ करते। इसी क्रम में गुरुदेव के प्रवचन को भी ये लेखनीबद्ध करते। सत्संग के बाद गुरुदेव स्नान करते-ये उन्हें कुएँ से पानी भरकर देते। ये गुरुदेव के वस्त्र वहीं रख जाते। जितनी देर में गुरुदेव स्नान से निवृत्त होते, उतनी ही देर में ये खुद स्नानकर उनके पास लौट आते। गुरुदेव ध्यान में चले जाते, इधर ये उनके भीगें वस्त्रों को धोकर सूखने के लिए दे दिया करते और खुद ध्यानाभ्यास में संलग्न हो जाते। गुरुदेव के  ध्यान से उठते ही ये उन्हें अपने से भोजन करवाते। भेजनोपरांत जबतक गुरुदेव हाथ-मुँह धोते, ये उतनी ही देर में खुद भोजन ग्रहण कर गुरुदेव के पास लौट आते। भोजन के बाद गुरुदेव के विश्राम का समय होता। इस समय ये अध्यात्म- संबंधी पुस्तकों का अध्ययन करते। कभी-कभी आश्रम में आये हुए अभ्यागतों से भी ये इसी क्रम में मिलते-जुलते। विश्राम के बाद गुरुदेव शौच के लिए जाते। ये पानी-मिट्टी लाकर देते। गुरुदेव के शौच से लौटने पर ये लोटा मलकर यथास्थान रख देते। फिर अपर्रांकालीन सत्संग का कार्यक्रम आरम्भ होता। स्तुति-विनती के बाद सद्ग्रंथों का पाठ और पुनः गुरुदेव के प्रवचन को लिपिबद्ध करने का काम चलता। सत्संग-समाप्ति के बाद गुरुदेव सायंकालीन भ्रमण के लिए निकल जाते। ये गुरुदेव  के  कक्ष की सफाई करते, साथ ही साथ आश्रम के आँगन में लगाये गये फूलों में पानी दिया करते। सायंकाल ये गुरुदेव के ध्यान में जाते ही खुद भी ध्यानाभ्यास के लिए बैठ जाते। ध्यानाभ्यास के बाद सत्संग का कार्यक्रम चलता। स्तुति-विनती के बाद ये गुरुदेव की आज्ञा से संतों की वाणियों का सस्वर गायन किया करते। सत्संग-समाप्ति के बाद रात्रिकालीन भोजन का समय होता। ये गुरुदेव को भोजन करवाने के उपरांत थोड़ी ही देर में भोजन कर लिया करते। भोजनोपरान्त कुछ देर के लिए गुरुदेव के पास आश्रमवासियों के साथ ये भी बैठते। दस बजे रात्रि में गुरुदेव अपने कमरे में विश्राम के लिए जाते। ये ग्यारह बजे तक उनके पाँव दबाने के बाद खुद सोने के लिए जाते। इस तरह नित्यप्रति का क्रम चलता। कभी-कभी रसोइये की अनुपस्थिति में गुरुदेव के लिए ये भोजन भी बनाया करते थे। 
दर्शन और आध्यात्मिक ग्रंथों का गहन अध्ययन
गुरुदेव ने अपने सान्निध्य में रखकर इन्हें वेद, उपनिषद्, श्रीमद्भगवद्गीता, संतसाहित्य, बाइबिल, श्रीगुरुग्रंथसाहिब, कृतिवासीरामायण, महापुराण, महाभारत, कुरान, हदीस, वाल्मीकि- रामायण, त्रिपिटक, ज्ञानार्णव आदि का गहन अध्ययन कराया। बालगंगाधर तिलककृत ‘गीता रहस्य’, महात्मा गाँधी प्रणीत ‘अनासक्तिकर्मयोग’ एवं ‘चैतन्य-चरितावली’ का अध्ययन इन्होंने इस क्रम में किया। रामकृष्ण परमहंस और विवेकानन्द के संपूर्ण साहित्य के साथ-साथ हिंदी में अनुदित ‘भारत के महान साधक’ के बारह खंडों का अध्ययन भी इन्होंने इस समय किया। 

नवीन नामकरणः 
गुरुदेव की सेवा में रहते हुए इन्होंने कभी भी अपनी सुख-सुविधा पर ध्यान नहीं दिया। सदा इनकी यही कोशिश रही कि गुरुदेव को कोई असुविधा न हो। उनकी प्रसन्नता ही इनकी प्रसन्नता और उनकी तकलीफ ही इनकी तकलीफ बन गयी थी। गुरुदेव का अधिकांश समय प्रचार-कार्य में बीतता। उनके साथ यात्राजन्य कष्टों को ये हँस-हँसकर झेलते। यात्रा के क्रम में खाने-पीने, सोने आदि का कोई निश्चित समय नहीं रहता। फिर भी, ये बिना थके अहर्निश सेवा में लगे रहते। इनकी इसी सेवा-भावना से प्रसन्न होकर गुरुदेव ने इन्हें ‘संतसेवी’ कहना शुरू किया।  इस तरह इन्होंने अपना नाम महावीर ‘संतसेवी’ लिखना प्रारम्भ किया था। पर, कालांतर में ये सिर्फ ‘संतसेवी’ ही लिखने लगे।

महर्षि संतसेवी परमहंस का जीवन-चरित | PART-3 (गुरुदेव का साहचर्य और वियोग | आध्यात्मिक रचनाओं का संकलन-सहयोग और विभिन्न भाषाओं का अध्ययन | गुरुदेव का वात्सल्यपूर्ण साहचर्य | संशोधन-कार्य में संलग्नता) | Maharshi Santsevi Paramhans Jeevan-Charit

महर्षि संतसेवी परमहंस का जीवन-चरित | PART-3 
(गुरुदेव का साहचर्य और वियोग | आध्यात्मिक रचनाओं का संकलन-सहयोग और विभिन्न भाषाओं का अध्ययन | गुरुदेव का वात्सल्यपूर्ण साहचर्य | संशोधन-कार्य में संलग्नता)  

गुरुदेव का साहचर्य और वियोग:
कनखुदिया में मास-ध्यान-समाप्ति के बाद परमाराध्य गुरुदेव उस क्षेत्र में कई दिनों तक घूम-घूमकर सत्संग का प्रचार करते रहे। इस सत्संग-प्रचार में परमाराध्य गुरुदेव ने इन्हें भी अपने साथ रखा। इस क्रम में भी ये परमाराध्य गुरुदेव के आदेश पर सद्ग्रन्थों का पाठ करते और पूर्व की तरह कभी-कभी उसके भावार्थ भी किया करते। इस अवधि में परमाराध्य गुरुदेव इन पर विशेष ध्यान देते थे। वे अपने रसोइये से इनके लिए बार-बार कहा करते- ‘देखो, वह जो नया युवक मेरे साथ आया है, उसे बुलाकर खिला दिया करो।’ इसके अतिरिक्त वे इनकी अन्यान्य सुख-सुविधाओं का भी ख्याल रखते। इस तरह उस क्षेत्र का सत्संग-प्रचार समाप्त हुआ, तो परमाराध्य गुरुदेव ने इनसे कहने की कृपा की, ‘अब आप अपने काम पर चले जाइये।’ इन्हें सहसा विश्वास नहीं हुआ कि परमाराध्य गुरुदेव इन्हें अपने काम पर वापस भी भेज सकते हैं। आशा पर तुषारापात होते देख, इन्होंने परमाराध्य गुरुदेव से प्रार्थना की- ‘अब मैं आपके साथ रहने के सिवा और कुछ नहीं चाहता। कृपाकर मुझे निराश न करें।’ पर, गुरुदेव ने इनके लिए तो कुछ और ही निश्चित कर रखा था। उस विधान के अनुसार अभी वह समय नहीं आया था। गुरुदेव ने विवशता दिखायी। उन्होंने इन्हें इनकी पुण्यमयी माता की याद दिलायी और उनकी सेवा की आवश्यकता का इन्हें स्मरण कराया। उन्होंने इनसे कहने की कृपा की- ‘अभी जो काम आप करते हैं, कीजिये, आवश्यकता होगी तो बुला लूँगा।’ गुरुदेव का आदेश था, इन्होंने उनके आदेश को शिरोधार्य कर उनके श्रीचरणों में अपना सर नवाया और गुरुदेव का संबल लिये सैदाबाद लौट आए। सैदाबाद में लगभग दो वर्षों तक इनकी योगसाधना नियमित रूप से चलती रही और साथ-ही-साथ अध्यापन का काम भी चलता रहा। इनका ध्यान सदा गुरुदेव की ओर लगा रहता। क्यों न हो? इनकी सुरत-रूपी डोरी जो उनके श्री-चरणों से बँध गयी थी। परमाराध्य गुरुदेव भी इनकी खोज-खबर लेते रहते थे। इनको जब कभी भी कोई आवश्यकता होती या गुरुदेव इनसे मिलने की इच्छा व्यक्त करते, तो इनको खबर भिजवाकर गुरुदेव बुलवा लिया करते। इस क्रम में गुरुदेव का जहाँ-जहाँ भी सत्संग-प्रचार का कार्यक्रम चलता, इन्हें भी वे अपने साथ ले जाते। इस तरह गुरुदेव के साथ कुछ दिनों तक रहकर ये पुनः सैदाबाद लौट आते। यह क्रम इन दो वर्षों में कई बार चला। 

आध्यात्मिक रचनाओं का संकलन-सहयोग और विभिन्न भाषाओं का अध्ययन: 
सन् 1940 ई0 में परमाराध्य गुरुदेव ने विभिन्न संतों की विशिष्ट आध्यात्मिक रचनाओं के साथ स्वानुभूतिसिद्ध अपनी वाणियों का एक संकलन ‘सत्संग-योग’ के नाम से निकालना चाहा। इसकी पांडुलिपि तैयार करवाने के लिए उन्होंने इन्हें श्रीलच्छनदासजी के द्वारा खबर भिजवाकर बुलवाया। उस समय गुरुदेव का भागलपुर जिले में सत्संग-प्रचार का कार्यक्रम चल रहा था। ‘सत्संग-योग’  जैसे संकलनवाली पावन घटना मध्यकाल में भी घटी है। मध्यकाल के पूर्वार्द्ध में श्रीगुरु अर्जुनदेवजी  द्वारा ‘आदिग्रंथ’ तथा इसके उत्तरार्द्ध में संत रज्जबजी-द्वारा ‘सर्वांगी’ नामक ग्रंथ संकलित हुए हैं। विश्वमानवता के उद्धारार्थ ऐसे आध्यात्मिक संकलन-ग्रंथों की पुनरावृत्ति संतों- द्वारा समय-समय पर होती रही है। ‘सत्संग-योग’ नामक संकलन-ग्रंथ भी इसकी ही कड़ी है। श्रीगुरु अर्जुनदेवजी ने रचना-संकलन के लिए जिस स्थान का चयन किया था, वह ‘रामसर’ था और परमाराध्य संत मेँहीँ ने जिस स्थान का चयन किया, वह गंगा के किनारे ‘बैकुण्ठपुर’ था। गुरुदेव के साथ ये भागलपुर-परबत्ती से बैकुंठपुर आये। यहाँ गुरुदेव ने इन्हें गुरुमुखी, बांग्ला लिपि और अन्य कई भाषाओं का ज्ञान कराया। एक महीने तक गुरुदेव ‘सत्संग-योग’ के लिए आध्यात्मिक रचनाओं का संकलन करते रहे-ये दत्तचित्तता से गुरुदेव-द्वारा सद्ग्रंथों में चिन्हित अंशों को संकलित करते जाते। 
गुरुदेव का वात्सल्यपूर्ण साहचर्य: 
बैकुंठपुर-दियरा से ये गुरुदेव के साथ भागलपुर-स्थित परबत्ती लौट आये। यहाँ इनकी योगसाधना और सत्संग का कार्यक्रम चलता रहा। इसी क्रम में ये बभनगामा (बाराहाट) नामक ग्राम के सत्संग में गुरुदेव के साथ गये। वहीं के एक वयोवृद्ध सत्संगी श्रीचरण परिहतजी ने इनकी मीठी आवाज और पाठ की शुद्धता के आधार पर गुरुदेव से प्रार्थना की- ‘सरकार! इनकी कंठध्वनि बड़ी मधुर है। संतवाणी आदि का पाठ भी ये अच्छी तरह करते हैं। इनको साथ रख लिया जाता, तो बड़ा अच्छा होता।’ गुरुदेव ने कहने की कृपा की- ‘मेरी भी तो इच्छा है कि ये मेरे साथ रहें, लेकिन अभी इनकी माँ जीवित हैं। उनको क्यों रुलायें ? ’इस तरह गुरुदेव के साथ ही रहने की इनकी प्रबल आकांक्षा अभी भी अधूरी रही। यहाँ से सत्संग कर ये गुरुदेव के साथ परबत्ती वापस लौट आए। परबत्ती आने पर ये सख्त बीमार पड़ गये। इनकी शारीरिक दुर्बलता काफी बढ़ गयी। इनके शीघ्र स्वस्थ होने की चिंता गुरुदेव को थी। तेज ज्वर और बेहाशी की अवस्था में ही इन्हें लेकर गुरुदेव सिकलीगढ़-धरहरा (बनमनखी) आश्रम आये। बनमनखी से गुरुदेव ने डॉक्टर को बुलवाकर इनकी चिकित्सा करवायी। ऐलोपैथी दवा में प्रायः कुछ आहार ग्रहण कर दवा लेने का प्रावधान है। एक दिन ये जमीन पर चटाई बिछाकर लेटे हुए थे। गुरुदेव खड़ाऊँ पहने हुए इनके सामने आकर बैठ गये। इन्होंने उठकर उनके श्री-चरणों में शीश नवाया और वहीं बैठ गए। गुरुदेव ने अपने रसोइया भूपलालजी से बार्लि उबलवाकर मँगवाया और स्नेहपूरित शब्दों में इनसे कहा-‘बार्लि खाइये।’ इन्होंने दो-चार चम्मच बार्लि खाने के बाद कहा कि अब खाने की इच्छा नहीं होती। गुरुदेव ने उसमें थोड़ी-सी चीनी मिलायी और इनसे कहा- ‘अब खाइये, अच्छा लगेगा।’ इन्होंने किसी तरह दो-चार चम्मच खाकर छोड़ दिया और कहा- ‘यह भी खाने में अच्छा नहीं लगता।’ गुरुदेव ने एक नींबू का रस बार्लि में निचोड़ते हुए कहा- ‘थोड़ा और खाइये। देखिये, कितना अच्छा लगता है?’ इनके द्वारा पुनः खाने की अनिच्छा व्यक्त किए जाने पर गुरुदेव ने इनसे कहने की कृपा की- ‘बिल्कुल नहीं खाने से तो कमजोरी बढ़ती ही जायेगी।’ उन्होंने रसोइये से दूध और मिश्री मिलवाकर इन्हें पीने को दिया। ये धीरे-धीरे गुरुदेव के वात्सल्यपूर्ण सान्निध्य में ही स्वस्थ हो गए। इनके स्वस्थ होते ही गुरुदेव ने इन्हें इनकी माँ की सेवा के लिए भेज दिया। ये वापस गमहरिया आ गए। इस दौरान ये पंद्रह-बीस दिनों या एक महीना के बाद गुरुदेव के दर्शन कर आया करते। इस तरह माँ की सेवा में ये संलग्न रहे। सन् 1946 ई0 में इनकी माँ परलोक सिधार गयीं। 

संशोधन-कार्य में संलग्नता :
सन् 1946 ई0 में ही ‘सत्संग-योग’ का दूसरा संस्करण प्रकाशित हुआ था। उसमें छपाई की कुछ अशुद्धियाँ रह गयी थीं। उन अशुद्धियों को दूर कराने के लिए गुरुदेव ने इन्हें मनिहारी- आश्रम बुलवाया। उन दिनों गुरुदेव अधिकतर मनिहारी या सिकलीगढ़  धरहरा  आश्रम में ही निवास किया करते थे। मनिहारी (कटिहार) आकर इन्होंने वहाँ की सारी प्रतियों का संशोधन किया। ‘सत्संग-योग’ की कुछ प्रतियाँ धरहरा-आश्रम में भी थीं। इन्होंने वहाँ जाकर उन प्रतियों की अशुद्धियों को भी सुधारा। धरहरा से ये पुनः मनिहारी लौट आये।

शब्द जितना छोटा होगा, उतना ही सिमटाव होगा | ऊँ नमः सिद्धम् | Maharshi Mehi Paramhans ji Maharaj | Santmat Satsang | Kuppaghat-Bhagalpur


संत सद्गुरु महर्षि मेँहीँ परमहंस जी महाराज की वाणी:-

शब्द जितना छोटा होगा, उतना ही सिमटाव होगा और जितना बड़ा शब्द होगा, उतना ही फैलाव होगा। तन्त्र में एकाक्षर का ही जप करने का आदेश है और वेद में भी वही एक अक्षर। कबीर साहब कहते हैं- पढ़ो रे मन ओ ना मा सी धं ।
अर्थात् ‘ऊँ नमः सिद्धम्।’ तात्पर्य यह कि सृष्टि इसी ‘ऊँ’ से है। शब्द से सृष्टि हुई है। यह (ऊँ) त्रैमात्रिक है, इसीलिए इस प्रकार भी ‘ओ3म्’ लिखते हैं। इसको इतना पवित्र और उत्तम माना गया कि इस शब्द के बोलने का अधिकार अमुक वर्ण को ही होगा, अमुक वर्ण को नहीं। इतना प्रतिबन्ध लगाया गया कि बड़े ही कहेंगे। सन्तों ने कहा, कौन लड़े-झगड़े; ‘सतनाम’ ही कहो, ‘रामनाम’ ही कहो, आदि। बाबा नानक ने ‘ऊँ’ का मन्त्र ही पढ़ाया- *1ऊँ सतिगुरु प्रसादि।*  और कहा-  *चहु वरणा को दे उपदेश।* यह ईश्वरी शब्द है; किन्तु हमलोग इसका जैसा उच्चारण करते हैं, वैसा यह शब्द सुनने में आवे, ऐसा नहीं। यह तो आरोप किया हुआ शब्द है, जिसके मत में जैसा आरोप होता है। जैसे- पंडुक अपनी बोली में बोलता है, किन्तु कोई उस ‘कुकुम कुम’ और कोई उसी शब्द को ‘एके तुम’ आरोपित करता है। किन्तु यथार्थतः इस (ओ3म्) को लौकिक भाषा में नहीं ला सकते, यह तो अलौकिक शब्द है। इस अलौकिक शब्द को लौकिक भाषा में प्रकट करने के लिए सन्तों ने ‘ऊँ’ कहा। क्योंकि जिस प्रकार वह अलौकिक ¬ सर्वव्यापक है, उसी प्रकार यह लौकिक ‘ऊँ’ भी शरीर के सब उच्चारण-स्थानों को भरकर उच्चरित होता है। इस प्रकार का कोई दूसरा शब्द नहीं है, जो उच्चारण के सब स्थानों को भरकर उच्चरित हो सके। इसी शब्द का वर्णन सन्त कबीर साहब इस प्रकार करते हैं- 


आदि नाम पारस अहै, मन है मैला लोह। 
परसत ही कंचन भया, छूटा बन्धन मोह।। 
शब्द शब्द सब कोइ कहै, वो तो शब्द विदेह। 
जिभ्या पर आवै नहीं, निरखि परखि करि देह।। 
शब्द शब्द बहु अन्तरा, सार शब्द चित देय। 
जा शब्दै साहब मिलै, सोइ शब्द गहि लेय ।। 

आदिनाम वा शब्द सर्वव्यापक है। इसी प्रकार एक शब्द लो, जो उच्चारण के सब स्थानों को भरपूर करे, तो संतों ने उसी को ‘ऊँ’ कहा तथा इसी शब्द से उस आदि शब्द ¬ का इशारा किया। यह जो वर्णात्मक ओ3म् है, जिसका मुँह से उच्चारण करते हैं, यह वाचक है तथा इस शब्द से जिसके लिए कहते हैं, वह वाच्य है तथा उस परमात्मा के लिए वह भी वाचक है तथा परमात्मा वाच्य है। तो इस एक शब्द का दृढ़ अभ्यास, एक तत्त्व का दृढ़ अभ्यास करना है। (17-1-1951)
प्रेषक: शिवेन्द्र कुमार मेहता, गुरुग्राम

जो सत्संग से जुड़े रहते हैं, उनको चेत होता है कि सब कुछ छूटेगा, साथ जानेवाले धन की कमाई करो | Maharshi Harinandan Paramhans | Santmat Satsang

जो सत्संग से जुड़े रहते हैं, उनको चेत होता है कि सब कुछ छूटेगा, साथ जानेवाले धन की कमाई करो। 

कबीर सो धन संचिये, जो आगे को होय।
माथे चढ़ाये गाठरी, जात न देखा कोय।।

भगवान श्रीराम कहते हैं कि केवल यही जीवन नहीं है, परलोक में भी सुख से रहने के लिए यत्न करो। परलोक को उत्तम, सुखमय, शांतिमय बनाने के लिए प्रयत्न करो और वह प्रयत्न क्या होगा? परमात्मा की भक्ति की पूर्णता हो जाने पर सदा के लिए बंधन से मुक्त हो जाओगे, आवागमन के चक्र से छूट जाओगे। 
इसलिए संत-महात्मा कहते हैं कि उस सुख को प्राप्त करने का प्रयत्न करो, तब तुम्हारा इहलोक और परलोक- दोनों उत्तम बन जाएगा।

जौं परलोक इहाँ सुख चहहू। 
सुनि मम वचन हृदय दृढ़ गहहू।। -रामचरितमानस 

यह तभी होगा, जब मनोयोगपूर्वक साधना करेंगे। संसार के कामों को करते हुए ईश्वर-भजन करो। 

कर से कर्म करो विधि नाना। 
चित राखो जहँ कृपा निधाना।।

हाथ से संसार के कार्यों को करते रहो और अपने ख्याल को ईश्वर-परमात्मा की भक्ति में लगाये रखो। ऐसा करोगे तो तुम्हारा इहलोक और परलोक दोनों उत्तम बन जाएगा। यही संतों का ज्ञान है। यह शरीर सब दिन नहीं रहने वाला है। जो समय बीत गया, फिर वापस नहीं आनेवाला है। 

"मन पछतइहैं अवसर बीते।"

अवसर बीत जाने पर पश्चाताप करना पड़ेगा और बाद में पश्चाताप करने से कुछ होगा भी नहीं। इसलिए संत-महापुरुष कहते हैं कि गफलत में मत रहो, ठीक-ठीक ख्याल करो। अपने कर्तव्य कर्म का ज्ञान करो और अपने कर्तव्य को करने में आलस्य मत करो। इस तरह से भगवान श्रीराम के कहे मुताबिक तुम्हारा इहलोक और परलोक उत्तम बन जाएगा। -महर्षि हरिनन्दन परमहंस जी महाराज
प्रेषक: शिवेन्द्र कुमार मेहता, गुरुग्राम

हमलोग आर्य हैं। आर्य का अर्थ-बुद्धिमान, विद्वान, सभ्य आदि है। Hamlog Arya hain | Budhiman-Vidwan-Sabhya | Maharshi Mehi Paramhans Ji | Santmat Satsang

हमलोग आर्य हैं। 

हमलोग आर्य हैं। आर्य का अर्थ-बुद्धिमान, विद्वान, सभ्य आदि है। गीता में, महाभारत में, बौद्ध ग्रन्थों में हमारे लिए ‘आर्य’ शब्द छोड़कर दूसरा नहीं आया है। हाल में तुलसीदासजी हुए, इनकी रचना में ‘आर्य’ के सिवा दूसरा शब्द नहीं है। ‘आर्य’ कहते हैं-बुद्धिमान को। हमको बुद्धिमान बनना चाहिए। ‘बुद्धि’ वह हो, जिसमें आत्मज्ञान हो।  
हमलोग सत्संग करते हैं। यह सत्संग तीर्थराज है। इस सत्संग में सरस्वती की धारा अधिक बहती है। गोस्वामी तुलसीदासजी का कहना है कि सत्संग तीर्थराज है। तीर्थराज में गंगा, यमुना और सरस्वती की धारा बहती है।

राम भगति जहँ सुरसरि धारा।
सरसइ ब्रह्म विचार प्रचारा ।। 
विधि निषेधमय कलिमय हरनी। 
करम कथा रविनंदिनी बरनी ।। 
मुझको सरस्वती की धारा में स्नान करना है और आपको भी इसी में स्नान कराना है। 
-संत सद्गुरु महर्षि मेँहीँ परमहंस जी महाराज
संकलन: शिवेन्द्र कुमार मेहता, गुरुग्राम

इस शरीर में विशेष बात क्या है? What is special about this body? | Maharshi Mehi Paramhans Ji Maharaj | Santmat Satsang

इस शरीर में विशेष बात क्या है?

विशेष बात इस शरीर में क्या है? इसमें साधनों का धाम और मोक्ष का द्वार है। समूचा शरीर द्वार नहीं है। इस शरीर में नौ द्वार हैं। यह जो नौ द्वार हैं, इनमें से कोई द्वार मोक्ष का द्वार नहीं है। 

संतवाणी से पता चलता है कि जो नौ द्वार वाले शरीर में रहते हैं, वे संसार में दौड़ते रहते हैं। इस शरीर में दसवां द्वार भी है। उस द्वार से गमन करो, तो निज घर में पहुंच जाओगे। यह शरीर स्थूल घर है। संत जो कहते हैं कि इसमें दशम द्वार है यह बहुत कम लोग जानते हैं। बाहर से अपने को समेटकर अंतर प्रविष्ट होकर अंतर्मुखी जहां तक होना होता है, वही दसवां द्वार है। यह दसवां द्वार ही मोक्ष का द्वार है। इसमें शरीर नहीं जाता, मन अवश्य जाता है। यह इस बार की विलक्षणता है। दसवें द्वार को योगियों के यहां आज्ञाचक्र कहा जाता है। यही है अन्तर्ज्योति और अन्तर्नाद का द्वार। -संत सद्गुरु महर्षि मेँहीँ परमहंस 
संकलन: शिवेन्द्र कुमार मेहता, गुरुग्राम

एक सत्संगी और तीन डाकू | भगवान पर विश्वास | Ek Satsangi aur teen daaku | Bhagwan par Visvash | Believe in God | Santmat Satsang

|| प्रेरक प्रसंग ||

एक सत्संगी था। उसका भगवान पर बहुत ज्यादा विश्वास था। वो बहुत साधन- भजन भी अच्छे से करता था। सत्संग में जाकर सेवा भी देता था। उस पर गुरुजी की इतनी कृपा थी कि उसका साधना पर बैठते ही ध्यान लग जाता था।

एक दिन उसके घर अचानक से तीन डाकू आ गए और उसके घर का काफी सामान लूट लिया और जब जाने लगे तो सोचा कि इनको मार देना चाहिए नहीं तो ये लोगों को बताएगा।
ये सुनकर वे सत्संगी घबड़ा गया और कहने लगा तुम मेरे घर का सारा सामान, नकद, जेवर सबकुछ ले जाओ लेकिन मुझे मत मारो।

उन लुटेरों ने उसकी एक न सुनी और बन्दूक उसके सिर पर रख दी। सत्संगी बहुत रोया, गिड़गिड़ाया कि मुझे मत मारो, लेकिन लुटेरे मारने पर उतारू था।

तभी सत्संगी ने डाकुओं से कहा कि मेरी आखिरी इच्छा पूरी कर दो। लुटेरों ने उनकी इच्छा जाना और फिर कहा कि ठीक है।

सत्संगी फ़ौरन कुछ देर के लिए ध्यान पर बैठ गया। उसने अपने गुरु को याद किया ऒर थोड़ी ही देर में गुरुजी ने उसे दर्शन दिए और दिखाया कि पिछले तीन जन्मों में तुमने इन लुटेरों को एक एक करके मारा था।

आज वो तीनों एक साथ तुम्हें मारने आया है, और मैं चाहता हूँ तुम तीनों जन्मों का भुगतान इसी जन्म में कर दो।
ये सुनकर सत्संगी उठ खड़ा हुआ और लुटेरे की बन्दूक अपने सर पर रख के हस्ते हुए बोला कि अब मुझे मार दो। अब मुझे मरने की कोई परवाह नहीं है।

ये सुनकर लुटेरे हैरान हो गए और सोचा कि अभी तो ये रो रहा था कि मुझे मत मारो और अब इसे इतनी ही देर में क्या हो गया।  उन्होंने उस सत्संगी से पूछा कि आखिर इतनी सी देर में ऐसा क्या हुआ कि तुम खुशी से मरना चाह रहे हो ??

उस सत्संगी ने सारी बात लुटेरों को बता दी। उनकी बात सुनकर लुटेरों ने अपना हथियार सत्संगी के पैरों में डाल दिए और हाथ जोड़कर विनती करने लगे कि हम तुम्हें नही मारेंगे बस इतना बता दो कि तुम्हारे गुरु कौन हैं।

सत्संगी ने अपने गुरुजी के बारे में बता दिया। उसके बाद वो लोग भी सब कुछ छोड़कर सत्संगी बन गए।

दोस्तों!
इस कहानी से हमें यह सीख मिलती है कि गुरु हर हाल में हर पल हमारी रक्षा करता है दुःख भी देता है तो हमारे भले के लिए इसलिए हर पल उस गुरु का शुक्र अदा करना चाहिए फिर चाहे वो परम पिता जिस हाल में भी रखे।
🙏🙏|| जय गुरु ||🙏🙏

ईश्वर में प्रेम | सदा ईश्वर में प्रेम रखो | सत्संग भजन करते रहो इसी में कल्याण है | Maharshi Mehi | Santmat Satsang | यहाँ सब कोई मुसाफिर हैं, फिर भी कहते हैं कि मेरा घर है।

ईश्वर में प्रेम  प्यारे लोगो!  संतों की वाणी में दीनता, प्रेम, वैराग्य, योग भरे हुए हैं। इसे जानने से, पढ़ने से मन में वैसे ही विचार भर जाते...