महर्षि संतसेवी परमहंस का जीवन-चरित | PART-3 (गुरुदेव का साहचर्य और वियोग | आध्यात्मिक रचनाओं का संकलन-सहयोग और विभिन्न भाषाओं का अध्ययन | गुरुदेव का वात्सल्यपूर्ण साहचर्य | संशोधन-कार्य में संलग्नता) | Maharshi Santsevi Paramhans Jeevan-Charit

महर्षि संतसेवी परमहंस का जीवन-चरित | PART-3 
(गुरुदेव का साहचर्य और वियोग | आध्यात्मिक रचनाओं का संकलन-सहयोग और विभिन्न भाषाओं का अध्ययन | गुरुदेव का वात्सल्यपूर्ण साहचर्य | संशोधन-कार्य में संलग्नता)  

गुरुदेव का साहचर्य और वियोग:
कनखुदिया में मास-ध्यान-समाप्ति के बाद परमाराध्य गुरुदेव उस क्षेत्र में कई दिनों तक घूम-घूमकर सत्संग का प्रचार करते रहे। इस सत्संग-प्रचार में परमाराध्य गुरुदेव ने इन्हें भी अपने साथ रखा। इस क्रम में भी ये परमाराध्य गुरुदेव के आदेश पर सद्ग्रन्थों का पाठ करते और पूर्व की तरह कभी-कभी उसके भावार्थ भी किया करते। इस अवधि में परमाराध्य गुरुदेव इन पर विशेष ध्यान देते थे। वे अपने रसोइये से इनके लिए बार-बार कहा करते- ‘देखो, वह जो नया युवक मेरे साथ आया है, उसे बुलाकर खिला दिया करो।’ इसके अतिरिक्त वे इनकी अन्यान्य सुख-सुविधाओं का भी ख्याल रखते। इस तरह उस क्षेत्र का सत्संग-प्रचार समाप्त हुआ, तो परमाराध्य गुरुदेव ने इनसे कहने की कृपा की, ‘अब आप अपने काम पर चले जाइये।’ इन्हें सहसा विश्वास नहीं हुआ कि परमाराध्य गुरुदेव इन्हें अपने काम पर वापस भी भेज सकते हैं। आशा पर तुषारापात होते देख, इन्होंने परमाराध्य गुरुदेव से प्रार्थना की- ‘अब मैं आपके साथ रहने के सिवा और कुछ नहीं चाहता। कृपाकर मुझे निराश न करें।’ पर, गुरुदेव ने इनके लिए तो कुछ और ही निश्चित कर रखा था। उस विधान के अनुसार अभी वह समय नहीं आया था। गुरुदेव ने विवशता दिखायी। उन्होंने इन्हें इनकी पुण्यमयी माता की याद दिलायी और उनकी सेवा की आवश्यकता का इन्हें स्मरण कराया। उन्होंने इनसे कहने की कृपा की- ‘अभी जो काम आप करते हैं, कीजिये, आवश्यकता होगी तो बुला लूँगा।’ गुरुदेव का आदेश था, इन्होंने उनके आदेश को शिरोधार्य कर उनके श्रीचरणों में अपना सर नवाया और गुरुदेव का संबल लिये सैदाबाद लौट आए। सैदाबाद में लगभग दो वर्षों तक इनकी योगसाधना नियमित रूप से चलती रही और साथ-ही-साथ अध्यापन का काम भी चलता रहा। इनका ध्यान सदा गुरुदेव की ओर लगा रहता। क्यों न हो? इनकी सुरत-रूपी डोरी जो उनके श्री-चरणों से बँध गयी थी। परमाराध्य गुरुदेव भी इनकी खोज-खबर लेते रहते थे। इनको जब कभी भी कोई आवश्यकता होती या गुरुदेव इनसे मिलने की इच्छा व्यक्त करते, तो इनको खबर भिजवाकर गुरुदेव बुलवा लिया करते। इस क्रम में गुरुदेव का जहाँ-जहाँ भी सत्संग-प्रचार का कार्यक्रम चलता, इन्हें भी वे अपने साथ ले जाते। इस तरह गुरुदेव के साथ कुछ दिनों तक रहकर ये पुनः सैदाबाद लौट आते। यह क्रम इन दो वर्षों में कई बार चला। 

आध्यात्मिक रचनाओं का संकलन-सहयोग और विभिन्न भाषाओं का अध्ययन: 
सन् 1940 ई0 में परमाराध्य गुरुदेव ने विभिन्न संतों की विशिष्ट आध्यात्मिक रचनाओं के साथ स्वानुभूतिसिद्ध अपनी वाणियों का एक संकलन ‘सत्संग-योग’ के नाम से निकालना चाहा। इसकी पांडुलिपि तैयार करवाने के लिए उन्होंने इन्हें श्रीलच्छनदासजी के द्वारा खबर भिजवाकर बुलवाया। उस समय गुरुदेव का भागलपुर जिले में सत्संग-प्रचार का कार्यक्रम चल रहा था। ‘सत्संग-योग’  जैसे संकलनवाली पावन घटना मध्यकाल में भी घटी है। मध्यकाल के पूर्वार्द्ध में श्रीगुरु अर्जुनदेवजी  द्वारा ‘आदिग्रंथ’ तथा इसके उत्तरार्द्ध में संत रज्जबजी-द्वारा ‘सर्वांगी’ नामक ग्रंथ संकलित हुए हैं। विश्वमानवता के उद्धारार्थ ऐसे आध्यात्मिक संकलन-ग्रंथों की पुनरावृत्ति संतों- द्वारा समय-समय पर होती रही है। ‘सत्संग-योग’ नामक संकलन-ग्रंथ भी इसकी ही कड़ी है। श्रीगुरु अर्जुनदेवजी ने रचना-संकलन के लिए जिस स्थान का चयन किया था, वह ‘रामसर’ था और परमाराध्य संत मेँहीँ ने जिस स्थान का चयन किया, वह गंगा के किनारे ‘बैकुण्ठपुर’ था। गुरुदेव के साथ ये भागलपुर-परबत्ती से बैकुंठपुर आये। यहाँ गुरुदेव ने इन्हें गुरुमुखी, बांग्ला लिपि और अन्य कई भाषाओं का ज्ञान कराया। एक महीने तक गुरुदेव ‘सत्संग-योग’ के लिए आध्यात्मिक रचनाओं का संकलन करते रहे-ये दत्तचित्तता से गुरुदेव-द्वारा सद्ग्रंथों में चिन्हित अंशों को संकलित करते जाते। 
गुरुदेव का वात्सल्यपूर्ण साहचर्य: 
बैकुंठपुर-दियरा से ये गुरुदेव के साथ भागलपुर-स्थित परबत्ती लौट आये। यहाँ इनकी योगसाधना और सत्संग का कार्यक्रम चलता रहा। इसी क्रम में ये बभनगामा (बाराहाट) नामक ग्राम के सत्संग में गुरुदेव के साथ गये। वहीं के एक वयोवृद्ध सत्संगी श्रीचरण परिहतजी ने इनकी मीठी आवाज और पाठ की शुद्धता के आधार पर गुरुदेव से प्रार्थना की- ‘सरकार! इनकी कंठध्वनि बड़ी मधुर है। संतवाणी आदि का पाठ भी ये अच्छी तरह करते हैं। इनको साथ रख लिया जाता, तो बड़ा अच्छा होता।’ गुरुदेव ने कहने की कृपा की- ‘मेरी भी तो इच्छा है कि ये मेरे साथ रहें, लेकिन अभी इनकी माँ जीवित हैं। उनको क्यों रुलायें ? ’इस तरह गुरुदेव के साथ ही रहने की इनकी प्रबल आकांक्षा अभी भी अधूरी रही। यहाँ से सत्संग कर ये गुरुदेव के साथ परबत्ती वापस लौट आए। परबत्ती आने पर ये सख्त बीमार पड़ गये। इनकी शारीरिक दुर्बलता काफी बढ़ गयी। इनके शीघ्र स्वस्थ होने की चिंता गुरुदेव को थी। तेज ज्वर और बेहाशी की अवस्था में ही इन्हें लेकर गुरुदेव सिकलीगढ़-धरहरा (बनमनखी) आश्रम आये। बनमनखी से गुरुदेव ने डॉक्टर को बुलवाकर इनकी चिकित्सा करवायी। ऐलोपैथी दवा में प्रायः कुछ आहार ग्रहण कर दवा लेने का प्रावधान है। एक दिन ये जमीन पर चटाई बिछाकर लेटे हुए थे। गुरुदेव खड़ाऊँ पहने हुए इनके सामने आकर बैठ गये। इन्होंने उठकर उनके श्री-चरणों में शीश नवाया और वहीं बैठ गए। गुरुदेव ने अपने रसोइया भूपलालजी से बार्लि उबलवाकर मँगवाया और स्नेहपूरित शब्दों में इनसे कहा-‘बार्लि खाइये।’ इन्होंने दो-चार चम्मच बार्लि खाने के बाद कहा कि अब खाने की इच्छा नहीं होती। गुरुदेव ने उसमें थोड़ी-सी चीनी मिलायी और इनसे कहा- ‘अब खाइये, अच्छा लगेगा।’ इन्होंने किसी तरह दो-चार चम्मच खाकर छोड़ दिया और कहा- ‘यह भी खाने में अच्छा नहीं लगता।’ गुरुदेव ने एक नींबू का रस बार्लि में निचोड़ते हुए कहा- ‘थोड़ा और खाइये। देखिये, कितना अच्छा लगता है?’ इनके द्वारा पुनः खाने की अनिच्छा व्यक्त किए जाने पर गुरुदेव ने इनसे कहने की कृपा की- ‘बिल्कुल नहीं खाने से तो कमजोरी बढ़ती ही जायेगी।’ उन्होंने रसोइये से दूध और मिश्री मिलवाकर इन्हें पीने को दिया। ये धीरे-धीरे गुरुदेव के वात्सल्यपूर्ण सान्निध्य में ही स्वस्थ हो गए। इनके स्वस्थ होते ही गुरुदेव ने इन्हें इनकी माँ की सेवा के लिए भेज दिया। ये वापस गमहरिया आ गए। इस दौरान ये पंद्रह-बीस दिनों या एक महीना के बाद गुरुदेव के दर्शन कर आया करते। इस तरह माँ की सेवा में ये संलग्न रहे। सन् 1946 ई0 में इनकी माँ परलोक सिधार गयीं। 

संशोधन-कार्य में संलग्नता :
सन् 1946 ई0 में ही ‘सत्संग-योग’ का दूसरा संस्करण प्रकाशित हुआ था। उसमें छपाई की कुछ अशुद्धियाँ रह गयी थीं। उन अशुद्धियों को दूर कराने के लिए गुरुदेव ने इन्हें मनिहारी- आश्रम बुलवाया। उन दिनों गुरुदेव अधिकतर मनिहारी या सिकलीगढ़  धरहरा  आश्रम में ही निवास किया करते थे। मनिहारी (कटिहार) आकर इन्होंने वहाँ की सारी प्रतियों का संशोधन किया। ‘सत्संग-योग’ की कुछ प्रतियाँ धरहरा-आश्रम में भी थीं। इन्होंने वहाँ जाकर उन प्रतियों की अशुद्धियों को भी सुधारा। धरहरा से ये पुनः मनिहारी लौट आये।

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