महर्षि संतसेवी परमहंस का जीवन-चरित | PART-4 (मनिहारी-प्रवास | गुरुदेव का स्थायी सान्निध्य | दर्शन और आध्यात्मिक ग्रंथों का गहन अध्ययन | नवीन नामकरण) Maharshi Santsevi Paramhans Jeevan-Charit

महर्षि संतसेवी परमहंस का जीवन-चरित | PART-4 
(मनिहारी-प्रवास | गुरुदेव का स्थायी सान्निध्य | दर्शन और आध्यात्मिक ग्रंथों का गहन अध्ययन | नवीन नामकरण)      
मनिहारी-प्रवास:
मनिहारी के कुछ सत्संगियों ने गुरुदेव से प्रार्थना की- ‘‘ये तो ‘संतमत-सत्संग  मंदिर’ में रहते ही हैं। अगर अपना कुछ समय निकालकर ये हमारे बच्चों को पढ़ाने में दिया करें, तो उनको भी कुछ लाभ हो जाए और इनके सत्संग से हमें भी कुछ लाभ हो जाए।’’ गुरुदेव ने इन्हें पढ़ाने का आदेश दे दिया। ये मनिहारी के दुर्गास्थान में जाकर बच्चों को पढ़ा आया करते। पर कुछ दिनों के बाद समयाभाव के कारण इन्होंने गुरुदेव की आज्ञा से पढ़ाने का काम छोड़ दिया। सत्संगियों ने पुनः गुरुदेव से इसके लिए विनती की। अब ये सत्संग-आश्रम में ही बच्चों को पढ़ाने का कार्य करने लगे। इस दौरान इन्हें एक बार चेचक हो गया। इन्हें काफी पीड़ा हुई। श्रीनारायण अग्रवाल की पुण्यमयी माताजी ने इस दौरान इनकी काफी सेवा-सुश्रूषा की। ये इस बीमारी से कुछ स्वस्थ हुए कि इनके पास पढ़ने के लिए आनेवाले बच्चे भी इस बीमारी की चपेट में आ गए। इनके हृदय में अपने छात्रों के प्रति करुणा उमड़ आयी। चेचक के अधसूखे घाव की चिंता किये बिना, ये मनिहारी आश्रम से आधा मील दूर बाजार जाकर उन बच्चों से मिले और उनके स्वस्थ होने की प्रार्थना परमाराध्य गुरुदेव से की।

 गुरुदेव का स्थायी सान्निध्य:
सन् 1949 ई0 में गुरुदेव ने इनसे अध्यापन का कार्य छुड़वा दिया। दस वर्ष पूर्व जो सदिच्छा इनके भीतर अंकुरित हुई थी, वह इस समय आकर पूरी हुई। ये स्थायी रूप से गुरुदेव के सान्निध्य में रहने लगे। इन्हें इससे आत्मतुष्टि का बोध हुआ। अब ये पूर्ण समर्पित भाव से गुरुदेव की सेवा में संलग्न रहने लगे। मनिहारी  सत्संग  मंदिर में रहते हुए ये गुरुदेव की सेवा अनन्यभाव से करने लगे। एक बार गुरुदेव ने इनपर कृपा की। प्रतिदिन तीन बजे ब्राह्ममुहूर्त में ये उन्हें जगा दें, ऐसा आदेश उन्होंने इन्हें दिया। उनके आदेशानुसार उनको जगाने के लिए इन्होंने अपने पास एक अलार्म घड़ी रख ली। जब ब्राह्ममुहूर्त्त में तीन बजे घड़ी की टन-टन आवाज होती, तो ये उठकर गुरुदेव के निकट जाते। जैसे ही ये उनकी कोठरी के दरवाजे के निकट पहुँचते, वैसे ही गुरुदेव कहते- ‘कौन? महावीरजी!’ ये कहते-‘जी हाँ।’ पुनः वे इनसे कहने की कृपा करते-‘अच्छा, जाइये। आप ध्यानाभ्यास कीजिए।’ और वे स्वयं स्थानीय सत्संगी सज्जन श्रीमहावीर प्रसाद अग्रवालजी के साथ गंगा-स्नान करने चले जाते। इस प्रकार लगातार एक माह तक जब-जब ये गुरुदेव को ब्राह्ममुहूर्त्त में जगाने के लिए जाते, तो उनको जगा हुआ पाते। इस घटना से ये विस्मित हुए। इन्हें यह भान हुआ कि जो समस्त संसार को अज्ञान-निद्रा से जगाने के लिए आविर्भूत हुए हैं, उनको ये क्या जगाएँगे? सच तो यह था कि उन्होंने इन्हें ही ब्राह्ममुहूर्त्त में ध्यानाभ्यास-हेतु जगाने के लिए गंगा-स्नान का बहाना किया था। ये तब से नित्य प्रति पौने तीन बजे जगकर योगसाधना में संलग्न हो जाया करते। चार बजते ही ये योगसाधना से उठकर गुरुदेव के शौच के लिए लोटा-बाल्टी में कुआँ से जल लाकर भर देते। गुरुदेव के शौच से लौटने के पूर्व ही, ये उनके लिए मिट्टी और दतवन रख दिया करते। इसके बाद ये अपने नित्य क्रियाकर्म से निवृत्त होते। गुरुदेव दतवन कर टहलने के लिए चले जाते। इस दौरान, ये सारे आश्रम की सफाई करते और फूलों की क्यारी में निकौनी आदि कर उसमें पानी डालते। प्रातः भ्रमण से गुरुदेव के लौटते ही ये उन्हें पाँव धोने के लिए पानी देते। गुरुदेव के साथ ही ये प्रातःकालीन सत्संग में सम्मिलित होते। सत्संग में स्तुति-विनती करने के बाद ये सद्ग्रंथों का पाठ करते। इसी क्रम में गुरुदेव के प्रवचन को भी ये लेखनीबद्ध करते। सत्संग के बाद गुरुदेव स्नान करते-ये उन्हें कुएँ से पानी भरकर देते। ये गुरुदेव के वस्त्र वहीं रख जाते। जितनी देर में गुरुदेव स्नान से निवृत्त होते, उतनी ही देर में ये खुद स्नानकर उनके पास लौट आते। गुरुदेव ध्यान में चले जाते, इधर ये उनके भीगें वस्त्रों को धोकर सूखने के लिए दे दिया करते और खुद ध्यानाभ्यास में संलग्न हो जाते। गुरुदेव के  ध्यान से उठते ही ये उन्हें अपने से भोजन करवाते। भेजनोपरांत जबतक गुरुदेव हाथ-मुँह धोते, ये उतनी ही देर में खुद भोजन ग्रहण कर गुरुदेव के पास लौट आते। भोजन के बाद गुरुदेव के विश्राम का समय होता। इस समय ये अध्यात्म- संबंधी पुस्तकों का अध्ययन करते। कभी-कभी आश्रम में आये हुए अभ्यागतों से भी ये इसी क्रम में मिलते-जुलते। विश्राम के बाद गुरुदेव शौच के लिए जाते। ये पानी-मिट्टी लाकर देते। गुरुदेव के शौच से लौटने पर ये लोटा मलकर यथास्थान रख देते। फिर अपर्रांकालीन सत्संग का कार्यक्रम आरम्भ होता। स्तुति-विनती के बाद सद्ग्रंथों का पाठ और पुनः गुरुदेव के प्रवचन को लिपिबद्ध करने का काम चलता। सत्संग-समाप्ति के बाद गुरुदेव सायंकालीन भ्रमण के लिए निकल जाते। ये गुरुदेव  के  कक्ष की सफाई करते, साथ ही साथ आश्रम के आँगन में लगाये गये फूलों में पानी दिया करते। सायंकाल ये गुरुदेव के ध्यान में जाते ही खुद भी ध्यानाभ्यास के लिए बैठ जाते। ध्यानाभ्यास के बाद सत्संग का कार्यक्रम चलता। स्तुति-विनती के बाद ये गुरुदेव की आज्ञा से संतों की वाणियों का सस्वर गायन किया करते। सत्संग-समाप्ति के बाद रात्रिकालीन भोजन का समय होता। ये गुरुदेव को भोजन करवाने के उपरांत थोड़ी ही देर में भोजन कर लिया करते। भोजनोपरान्त कुछ देर के लिए गुरुदेव के पास आश्रमवासियों के साथ ये भी बैठते। दस बजे रात्रि में गुरुदेव अपने कमरे में विश्राम के लिए जाते। ये ग्यारह बजे तक उनके पाँव दबाने के बाद खुद सोने के लिए जाते। इस तरह नित्यप्रति का क्रम चलता। कभी-कभी रसोइये की अनुपस्थिति में गुरुदेव के लिए ये भोजन भी बनाया करते थे। 
दर्शन और आध्यात्मिक ग्रंथों का गहन अध्ययन
गुरुदेव ने अपने सान्निध्य में रखकर इन्हें वेद, उपनिषद्, श्रीमद्भगवद्गीता, संतसाहित्य, बाइबिल, श्रीगुरुग्रंथसाहिब, कृतिवासीरामायण, महापुराण, महाभारत, कुरान, हदीस, वाल्मीकि- रामायण, त्रिपिटक, ज्ञानार्णव आदि का गहन अध्ययन कराया। बालगंगाधर तिलककृत ‘गीता रहस्य’, महात्मा गाँधी प्रणीत ‘अनासक्तिकर्मयोग’ एवं ‘चैतन्य-चरितावली’ का अध्ययन इन्होंने इस क्रम में किया। रामकृष्ण परमहंस और विवेकानन्द के संपूर्ण साहित्य के साथ-साथ हिंदी में अनुदित ‘भारत के महान साधक’ के बारह खंडों का अध्ययन भी इन्होंने इस समय किया। 

नवीन नामकरणः 
गुरुदेव की सेवा में रहते हुए इन्होंने कभी भी अपनी सुख-सुविधा पर ध्यान नहीं दिया। सदा इनकी यही कोशिश रही कि गुरुदेव को कोई असुविधा न हो। उनकी प्रसन्नता ही इनकी प्रसन्नता और उनकी तकलीफ ही इनकी तकलीफ बन गयी थी। गुरुदेव का अधिकांश समय प्रचार-कार्य में बीतता। उनके साथ यात्राजन्य कष्टों को ये हँस-हँसकर झेलते। यात्रा के क्रम में खाने-पीने, सोने आदि का कोई निश्चित समय नहीं रहता। फिर भी, ये बिना थके अहर्निश सेवा में लगे रहते। इनकी इसी सेवा-भावना से प्रसन्न होकर गुरुदेव ने इन्हें ‘संतसेवी’ कहना शुरू किया।  इस तरह इन्होंने अपना नाम महावीर ‘संतसेवी’ लिखना प्रारम्भ किया था। पर, कालांतर में ये सिर्फ ‘संतसेवी’ ही लिखने लगे।

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