महर्षि संतसेवी परमहंस का जीवन-चरित | PART-5 (शब्द-साधना की दीक्षा | संन्यास-वेश | सफल संदेशवाहक | श्रुतिलेखन | परमाराध्य गुरुदेव से मानसिक संलग्नता | दीक्षा-गुरु के पद की प्राप्ति | गुरुदेव की सतत सेवा | आध्यात्मिक और दार्शनिक लेखन | संपादकीय सहयोग) Maharshi Santsevi Paramhans Jeevan-Charit

महर्षि संतसेवी परमहंस का जीवन-चरित | PART-5 
(शब्द-साधना की दीक्षा | संन्यास-वेश | सफल संदेशवाहक | श्रुतिलेखन | परमाराध्य गुरुदेव से मानसिक संलग्नता | दीक्षा-गुरु के पद की प्राप्ति | गुरुदेव की सतत सेवा | आध्यात्मिक और दार्शनिक लेखन | संपादकीय सहयोग) 

शब्द-साधना की दीक्षा: 
गुरुदेव की सेवा करते हुए इनका ध्यानाभ्यास भी चलता रहा। अंततः ध्यानाभ्यास में इनकी संलग्नता और इनकी पराकाष्ठा की गुरु-भक्ति से प्रसन्न होकर गुरुदेव ने 2 जून, 1952 ई0 को इन्हें ‘संतमत’ की सर्वोच्च साधना-विधि ‘सुरत-शब्द योग’ की दीक्षा दी।
संन्यास-वेश: 
सन् 1957 ई0 में गुजरात प्रांत के अहमदाबाद नगर में ‘अखिल भारतीय साधुसमाज’ का सम्मेलन हो रहा था। पूर्णियाँ जिले की इस साधु-समाज-समिति के सदस्यों ने संत मेँहीँ परमहंस से उक्त सम्मेलन में सम्मिलित होने का आग्रह किया। लेकिन, किसी कारणवश वे उसमें जाने का समय नहीं निकाल सके। परमाराध्य गुरुदेव संत मेँहीँ परमहंस, श्रीश्रीधर बाबा के साथ इन्हें अपना प्रतिनिधि बनाकर भेजने के लिए सहमत हुए। ये श्वेत वस्त्र धारण करते थे। इसी अवसर पर 17 अक्टूबर, 1957 ई0 को गुरुदेव ने इनकी दाढ़ी-मूँछ और इनके सर के बालों का मुंडन करवाकर इन्हें गैरिक वस्त्र धारण कराया। ये गुजरात गये। ‘अखिल भारतीय साधुसमाज’ की सभा में इनका प्रवचन हुआ। इनके सारगर्भित आध्यात्मिक प्रवचन को सुनकर वहाँ के लोग मंत्रमुग्ध हो गए। 

सफल संदेशवाहक
गुरुदेव के सेवा-सान्निध्य में रहकर योग- साधना करते हुए इनका आधा दशक बीत गया। इस अवधि में ये सत्संग-सभाओं में केवल ग्रंथपाठ और गुरुदेव के प्रवचनों का श्रुति-लेखन करते अच्छी थी। गुरुदेव के सान्निध्य में वह और निखरी ही। पर अब गुरुदेव इनसे कभी-कभी सत्संग प्रारंभ करने को भी कहते। इसी दौरान इनकी मधुर आवाज और हिंदी भाषा के इनके उत्तम ज्ञान को देखते हुए सत्संगियों ने गुरुदेव से इन्हें भी प्रवचन करने की अनुमति देने की प्रार्थना की। अंततः गुरुदेव ने इन्हें नियमित रूप से प्रवचन करने की अनुमति दे दी और ये प्रवचन करने लगे। इन्हें प्रवचन करने की अनुमति देकर गुरुदेव ने मानो अपने एक सफल संदेशवाहक के रूप में इनका चयन कर लिया। गुजरात में संपन्न साधु-समाज सम्मेलन में हुए इनके गुरु-गंभीर प्रवचन ने इनकी जिस प्रतिभा को पहले ही सबके सामने ला दिया था, अब वह निरंतर निखरती गयी।

श्रुतिलेखन: 
परमाराध्य संत मेँहीँ परमहंस चार-चार घंटों तक अनवरत संतमत-संत्संगों में प्रवचन किया करते थे। उनके प्रवचनों को इन्होंने नियमित रूप से लेखनीबद्ध करना जारी रखा। संकेत-लिपि से परिचय नहीं होने के बावजूद भी इन्होंने देवनागरी लिपि में ही अतिशीघ्रतापूर्वक उन्हें पूरा-पूरा लिखा और बाद में ‘शांति-संदेश’ नाम की मासिक पत्रिका में ‘सत्संग-सुधा’ शीर्षक के अंतर्गत उनको प्रकाशित कराया। श्रुतिलेखन के क्रम में इन्होंने कभी भी परेशानी का अनुभव नहीं किया। ये सहज भाव से प्रवचनों को लिखते रहे। युग-युग तक विश्वमानवता को सन्मार्ग दिखानेवाला परमाराध्य संत मेँहीँ परमहंस के प्रवचनों को लिपिबद्ध कर उन्हें जन-जन तक पहुँचाने के इस स्तुत्य कार्य के लिए कोटि-कोटि जन इनके सदा ऋणी रहेंगे। 

परमाराध्य गुरुदेव से मानसिक संलग्नता
गुरुदेव के सान्निध्य में ये बहुपठित, बहुश्रुत, रहे। अध्यापनकाल से ही इनकी हिंदी भाषा काफी और श्रुतधर हो गये। गुरुदेव की अहैतुकी कृपा से इनके मस्तिष्क को अद्भुत ज्ञान-कोष कहने में कोई अत्युक्ति नहीं। सत्संग के समय यदि गुरुदेव महर्षि संतसेवी -ज्ञान-गंगा कहने में कुछ भूल जाते, तो वे इनकी ओर देखने लगते। वे जो कहने में भूल जाते, ये झट उन्हें कह देते। मानो जो वे कहना चाहते हों, ये पूर्व से ही जानते हों। तभी तो गुरुदेव प्रायः कहा करते, ‘महावीरजी मेरे मस्तिष्क हैं।’ 

दीक्षा-गुरु के पद की प्राप्ति:
शारीरिक रूप से अशक्त हो जाने पर गुरुदेव ने सन् 1970 ई0 में इन्हें अपनी दीक्षा-पुस्तिका सौंपते हुए आदेश दिया-‘लीजिए, आज से आप ही मेरे बदले दीक्षा दीजिए।’ इस प्रकार परमाराध्य गुरुदेव से इन्हें ‘संतमत’ की योग-साधना की दीक्षा देने का अधिकार प्राप्त हुआ। हालाँकि बहुत पहले से ही, कभी-कभी गुरुदेव की आज्ञा से ये दीक्षा लेनेवालों को दीक्षा दिया करते थे। 

गुरुदेव की सतत सेवा: 
इन्होंने जीवनपर्यंत गुरुदेव की सेवा की। इनकी अनन्य गुरुभक्ति एक आदर्श उपस्थित करती है। इन्होंने ‘आज्ञा सम न सुसाहिब सेवा’ की उक्ति को चरितार्थ किया। छोटे-से-छोटा काम भी ये गुरुदेव की अनुमति पाये बिना नहीं करते थे। मनसा-वाचा-कर्मणा इन्होंने अपने को उनके साथ जोड़े रखा। ये सदैव गुरुदेव के आय-व्यय का लेखा-जोखा रखते थे और उसे महीने के अन्त में उन्हें दिखा दिया करते थे। एक पैसे की गड़बड़ी होने पर भी पूरे महीने का हिसाब ये फिर से लिखकर दिखाया करते। हिसाब के अंत में गुरुदेव अपने दस्तखत कर दिया करते थे। गुरुदेव की अपूर्व विश्वसनीयता इन्हें प्राप्त थी। एक-दो दिनों के लिए भी किसी आवश्यक कार्यवश ये उनसे दूर हो जाते, तो गुरुदेव को इनकी अनुपस्थिति खलने लगती थी। कोई अन्य व्यक्ति इनके अभाव की पूर्ति करने में उन्हें सक्षम नहीं दीखते। गुरुदेव के जीवन के उत्तरकाल में ही जब उनकी सेवा में इनके अतिरिक्त और भी कुछ संन्यासी सेवक आये, फिर भी उनके सभी सेवा-कार्यों का सम्पादन इनके बिना सुचारु रूप से नहीं हो पाता था। इनकी आवश्यकता उनके सेवा-कार्यों में हो ही जाती। ब्राह्ममुहूर्त्त में  उठकर दतवन-आचमन कराना, सुबह-शाम हाथ-पाँव धुलाना, स्नान-भोजन कराना, नख काटना, उनके औषधि सेवन का ख्याल रखना, उनके नाम से आये पत्रों को उन्हें पढ़कर सुनाना और उनसे पूछकर उनके उत्तर देना-ये सारे सेवाकार्य इन्हीं के द्वारा संपादित होते थे। दशनार्थी, जिज्ञासु एवं अन्य जरूरतमंद व्यक्तियों को में ही गुरुदेव तक पहुँचाते। गुरु देव के दर्शनार्थ आये हुए अभ्यागतों के भोजन, आवास आदि की व्यवस्था भी यही करते थे। इन सारे कार्यां के लिए इनके समान कोई दूसरा व्यक्ति नहीं हो पाया। गुरुदेव की सेवा में सतत संलग्न रहने के कारण इन्होंने बहुलांश में उनके गुणों को आत्मसात कर लिया है। अतः परमाराध्य गुरुदेव इनमें प्रतिबिंबित होते रहते हैं। 
आध्यात्मिक और दार्शनिक लेखन: 
सन 1950 ई0 से ही ‘संतमत-सत्संग’ की मासिक पत्रिका ‘शांति-संदेश’ में विधिवत् आध्यात्मिक और दार्शनिक निबन्ध लिखते रहे। ये ही निबंध इनकी विभिन्न पुस्तकों के रूप में प्रकाशित हुए हैं। इनके लेखन में दार्शनिक गंभीर चिन्तन, आध्यात्मिक सुलझे विचार और साधनात्मक अनुभूति की झाँकी देखते बनती है।

संपादकीय सहयोग: 
गुरुदेव के प्रवचनों के संपादन के अतिरिक्त इन्होंने उनके द्वारा रचित ‘संतवाणी-सटीक’, ‘श्रीगीता-योग-प्रकाश’, ‘महर्षि मेँहीँ-पदावली’, ‘वेद-दर्शन-योग’, ‘सत्संग-सुधा’ तथा ‘ईश्वर का स्वरूप और उनकी प्राप्ति’ तथा ’ज्ञानयोगयुक्त ईश्वर-भक्ति’ के संपादन और प्रकाशन में सहयोग दिया है।

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ईश्वर में प्रेम | सदा ईश्वर में प्रेम रखो | सत्संग भजन करते रहो इसी में कल्याण है | Maharshi Mehi | Santmat Satsang | यहाँ सब कोई मुसाफिर हैं, फिर भी कहते हैं कि मेरा घर है।

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