पूरा मर्द वही है जो घर बार में रहते हुए भजन करते हैं | Pura mard vahi hai jo ghar me rahte huye bhajan karta hain | Maharshi Mehi Paramhans | Santmat Satsang

पूरा मर्द वही है जो घर बार में रहते हुए भजन करते हैं!

पहले का किया हुआ पाप कर्ममण्डल से आगे बढ़ने पर छूट जाता है। मन की एकाग्रता में पूर्ण सिमटाव होता है। सिमटाव का फल ऊर्ध्वगति है। ऊर्ध्वगति में एक तल से दूसरे तलपर जाना बिल्कुल संभव है। जिस मण्डल तक कर्म बन्धन है, उस मण्डल से आगे बढ़ने पर पहले का किया हुआ पाप नष्ट हो जाता है। वासा में कहा गया है- ‘बीजाक्षरं परम बिन्दुं’।  बाहर में किसी महीन-से-महीन चिन्ह करने पर भी परिभाषा के अनुकूल बिन्दु नहीं होता है। कोई भी स्थूल पदार्थ से वह चिन्हित नहीं होगा। जहाँ सूक्ष्मधार की नोक पड़ेगी वहीं बिन्दु बनेगा। दृष्टि की धार सूक्ष्म पदार्थ है। तिल के द्वार में देखो। सूक्ष्म विषय दृश्य है, रूप है। बिन्दु दर्शन भी रूप का दर्शन है। सूक्ष्म विषय को भी त्याग देना चाहिए इसके ऊपर नाद की स्थिति है। दृश्य से छूटकर अदृश्य में आते हैं। शब्द में अपने उद्गम स्थान में खींचने का आकर्षण है। तुम मनुष्य हो तो मननशील, विचारवान हो जाओ। दरअसल में तुम देह नहीं हो। जो अपने को नहीं पहिचाने वह अपना क्या जाने। जहाँ अपने की पहचान नहीं है, वहाँ अपने संबंधी की भी पहचान नहीं है। देह में चन्द्रमा है लेकिन देख नहीं पाते हैं।  
 
चन्दा झलके यहि घट माही, अन्धी आँखिन सूझे नाहीं। 
तन में मन आवै नहीं निसदिन, बाहरि जाय।। 
दादू मेरा जिव दुःखी, रहै नहीं लौ  लाय।। 

हमारा धर्म कहता है कि किसी भेष में रहो परन्तु अविहित काम नहीं करो, पाप कर्म से छूटे हुए रहो। अपने को ठीक तरह से रखिएगा तो लोग आपके पास स्वयं आवेगें। पूरा मर्द वही है जो घर बार में रहते हुए भजन करते हैं। जो संसार के कामों के डर से भाग गया, वह कमजोर है। अपने से कमाकर खानेवाला स्वावलम्बी होता है और भीख माँगकर खानेवाला परावलम्बी होता है। तनमन को निजमन में रखो यही अभ्यास है। जैसे संयमी होकर नितप्रति आहार करने से शरीर बढ़ता है, उसी प्रकार नितप्रति भजन करने से आत्मबल बढ़ता है और ज्ञान पुष्ट होता है। जो कोई भजन की विधि को जानकर भजन करते हैं, वे परमात्मा की सेवा करते हैं। -संत सद्गुरु महर्षि मेँहीँ परमहंस जी महाराज
प्रेषक: शिवेन्द्र कुमार मेहता, गुरुग्राम

उस निशाने को कौन पावेगा | Us nisane ko kaun pavega | Maharshi Mehi Paramhans Ji Maharaj | Santmat Satsang | Kuppaghat-Bhagalpur


!! उस निशाने को कौन पावेगा !!

ईश्वर के प्रेमियों! केवल बाहर- ही-बाहर ईश्वर को नहीं खोजो। बाहर-बाहर खोजने के बाद अंदर-अंदर भी खोज करो। बिना किसी के सिखाए आप एक अक्षर भी नहीं लिख सकते । बुद्ध भगवान ने कहा है- "ज्ञानी केवल सिखाने वाले हैं, करना तुमको ही पड़ेगा।" अपना सिमटाव करो, जहां मैंने बताया है। सदग्रंथ गुरु का वाक्य और अपना विचार मिल जाए तो कितना विश्वास होगा। गुरु नानक ने कहा है-

अंतरि जोत भाई गुरु साखी चीने राम करंमा।। 

अंतर में प्रकाश हुआ, यह गुरु की गवाही है और तब गुरु के दयादान को पहचाना। इस सहारा को पकड़ो। जो इस को पकड़ता है, वह विषयानंद में नहीं दौड़ता। गोस्वामी तुलसीदास जी ने कहा है-

ब्रह्म पीयूष मधुर शीतल, जो पै मन सो रस पावै। 
तौ कत मृगजल रूप विषय, कारण निशिवासर धावै।।

विषय रस में जो दौड़ता है, इसका मतलब है कि ब्रह्म-पीयूष उसको मिला नहीं है। मनुष्य अपने अंदर अभ्यास करके ब्रह्म ज्योति और ब्रह्मनाद को प्रत्यक्ष देख सुन सकता है। यही सहारे हैं! संतों की वाणीयों में हम यही बात पढ़ते हैं। क्या वेद और क्या उपनिषद - ज्ञान सबमें यह बात है। आज भी जो करते हैं, उनको चिन्ह मिलता है। भजन करने की भी शक्ति होती है। जो अभ्यास को बढ़ा लेते हैं, उसको चिन्ह देखने में आता है। जो ब्रह्म दृष्टि से कुछ देखना चाहता है, वह नहीं देख सकता। अंतर्दृष्टि करो, तब देखने में आवेगा। आंख बंद करो, मानसिक-रचना को छोड़ो, बाहर का देखना छोड़ो, अंतर में दृष्टि रखो तब देखने में आवेगा कि अंतर में क्या है। पवित्रता से रहो ईश्वर भजन करो श्रवण मनन और साधन होना चाहिए, इसमें बल पाने के लिए सदाचार का पालन आवश्यक है। सदाचार पालन के बिना अंतर ज्योति और अंतर्नाद को कोई नहीं पा सकता। -संत सद्गुरु महर्षि मेँहीँ परमहंस जी महाराज 

संकलन: शिवेन्द्र कुमार मेहता, गुरुग्राम

पंडित वे ही नहीं होते, जो खूब पढ़े-लिखे हो | Maharshi Mehi Pravachan | महर्षि मेँहीँ | संतों का संग | Santmat Satsang | पापात्मा को ईश्वर की भक्ति में दिल नहीं लगता।

।। ॐ ।। श्री सद्गुरवे नमः ।।
प्यारे धर्मप्रेमी महाशयो!
हमलोग सत्संग, संतों की वाणी के सहारे किया करते हैं। हमारे गुरु महाराज यही बतलाए हैं।
संत संसर्ग त्रैवर्ग पर परम पद प्राप्य नि:प्राप्य गति त्वयि प्रसन्ने।
संतों के संग का नाम सत्संग है। संतों का संग दुर्लभ है, पहचान दुर्लभ है। संत की पहचान होना साधारण प्राणी से असभव है। संत बड़े ऊँचे होते हैं। त्रयवर्ग पर परमपद तीनों पदों से ऊपर पहुँचे हुए; स्थूल, सूक्ष्म, कारण मण्डलों से ऊपर उठे हुए। विद्वान अर्थ, धर्म, काम; इन तीनों से परे को भी त्रयवर्ग कहते हैं। उनको धन चाहिए ऐसा नहीं। उनको धर्म-शिक्षा की कमी नहीं रहती। इहलोक, परलोक कामना से रहित होते हैं। स्थूल, सूक्ष्म, कारण से जो ऊपर होंगे वे अर्थ, धर्म, काम में क्यों हँसेंगे? अथवा यह कि जो –
अमित बोध अनीह मित भोगी। सत्य सार कवि कोविद योगी।।
संसार में रहकर कुछ-न-कुछ लिया करते ही हैं, मितभोगी होते हैं। विषयासक्त नहीं होते, स्वल्पभोगी होते हैं। बिना कुछ लिए संसार में कोई नहीं रह सकते। इसलिए वे थोड़ा लेते हैं। किंतु संसार का बड़ा उपकार करते हैं। संत लिखने-पढ़ने जाने या नहीं जाने; पंडित वे ही नहीं होते, जो खूब पढ़े-लिखे हो; बिना पढ़े-लिखे भी पण्डित होते हैं। पहले लिखना नहीं था, केवल श्रवण-ज्ञान था, सुनते थे। कबीर साहब के लिए लोग कहते हैं कि वे बहुश्रुत थे। किंतु वे कहते हैं -
मैं मरजीवा समुंद का, डुबकी मारी एक। मुट्ठी लाया ज्ञान का, जामें वस्तु अनेक।।
इस प्रकार शरीर में डुबकी लगाने से ये ज्ञानी हुए। बहुश्रुत होने से, अंतर में गोता लगाने से ज्ञानी होते हैं। कोई पढ़े भी, सुने भी, अंतर में गोता भी लगाए। तीनों तरह तथा एक तरह भी; जैसे भगवान बुद्ध। उनके गुरु अवश्य थे, किंतु उनको उस ज्ञान से तृप्ति नहीं हुई। वे कहते हैं - मैं अपने-आप सीखकर अपना गुरु किसे बताऊँ? पूर्ण योगी वही हैं, जो पूर्ण योग द्वारा पद प्राप्त करते हैं। तो संत बहुत बोध रखते हैं, अमित बोध। इतने बड़े को साधारण लोग पहचान जाय, कैसे संभव है? कल्याण के एक लेख में आया था - मैं साधु, महात्मा, ज्ञानी आदि भले कहूँगा; किंतु संत नहीं कह सकता। संत उसे कह सकते हैं, जिनके लिए यह उपनिषद-वाक्य सार्थक हो चुका हो -

भिद्यते हृदयग्रन्थिश्छिद्यन्ते सर्वसंशयाः। 
क्षीयन्ते चास्य कर्माणि तस्मिन्दृष्टे परावरे।।
अर्थ - परे से परे को (परमात्मा को) देखने पर हृदय की ग्रन्थि खुल जाती है, सभी संशय छिन्नभिन्न हो जाते हैं और सभी कर्म नष्ट हो जाते हैं। तुलसी साहब -
जो कोई कहै साधु को चीन्हा। 
तुलसी हाथ कान पर दीन्हा।।
इतने बड़े को कौन पहचाने? बरेली स्टेशन के बाद के एक स्टेशन पर एक सज्जन का गाड़ी पर चढ़ना - स्थितप्रज्ञ का लक्षण कहाँ? पूछने से संत की पहचान हो तब सत्संग करे, तो संतों की पहचान असंभव है। फिर सत्संग कैसे हो, तो गुरु महाराज ने कहा - संतों की वाणी को पढ़ो, यही सत्संग होगा। सत्संग का आधार संत है। बिना संत के सत्संग हो नहीं सकता।
सत्संग भगवान का निज अंग है। संसार दूर हो जाय, इसके लिए सत्संग है। क्या संसार छोड़ने योग्य है? देखो, यह सबको मानना पड़ेगा कि यह शरीर माता के पेट में था। लोगों को याद तो नहीं, किंतु यह कहते हैं कि सिर नीचे होता है और पैर ऊपर। माता के पेट में रहना ऊपर लटका हुआ कितना दु:ख होता होगा? अभी कोई वैसे लटका दे, तब देखिए क्या दुःख है? समय पूरा हुआ और निकले, तो क्रन्दन पसार दिया। जनमते समय बच्चा रोवे नहीं, तो लोग समझेंगे मरा हुआ है। रोना दुःख की पहचान है। इससे जाना जाता है, उसको दुःख अवश्य हुआ होगा। मुँह से कुछ बात नहीं कर सकते कि भूख लगी है या कुछ रोग। मलमूत्र त्याग हो, उसी पर पड़े रहना। अपने से हिल-डुल नहीं सकता।
सोने का झूला हो, मखमल का पलंग हो, कोई बच्चा उसपर पड़ा हुआ हो तो भी उसे क्या सुख? फिर कुछ बढ़े तब क्या हुआ ? जो मुँह में नहीं देने का वही दिया, जो नहीं छूने का वह भी छुआ। फिर बढ़े, कुछ पढ़े-लिखे नहीं, तो उसका भी भारी दु:ख। पढ़ने पर घर-गृहस्थी में गए, पारिवारिक झंझट। फिर दैहिक, दैविक, भौतिक ताप से कौन बच सकता। श्रीराम भी रोए। इससे कौन बच सकता है? ‘काम’ आया कुकर्म में चले गए, लोगों की नजर से गिर गए। अपने मन में भारी ग्लानि हुई। ‘क्रोध आया हृदय जल गया, अंधे हो गए, क्या करें, नहीं करें, कुछ सूझता नहीं। ‘लोभ आया, जो नहीं लेने का वह ले लिया, चोरी कर ली, राजा से दंडित हुए; इसी प्रकार सब विकारों को जानिए, तो क्या इस प्रकार संसार में रहना पसंद करते हैं? कभी नहीं। इसीलिए संत कहते हैं - सत्संग करो।
प्रबल भव जनित त्रयव्याधि भेषज भक्ति, भक्त भैषज्यमद्वैत दरसी।।
औषध भक्ति है और वैद्य भक्त हैं। यह औषधि लेनी आवश्यक है। इसलिए सत्संग करना आवश्यक है। भक्ति करो तो किसकी? परमेश्वर की-ईश्वर की भक्ति समझने के लिए पहले ईश्वर को समझना होगा। ईश्वर नहीं है, सुनकर रुलाई आती है। आधार को छोड़कर कैसे रहोगे? आधार को मत छोड़ो। जो आधार तुमको अच्छा बनावेगा, उसको छोड़कर तुम कैसे रहोगे? वह ईश्वर हई है।
व्यापक व्याप्य अखण्ड अनंता। अखिल अमोघ शक्ति भगवंता।।
यह ईश्वर है, जो सबमें भरा हुआ है ही। ईश्वर है, अंतरहित है, नहीं रहेगा सो नहीं, रहेगा ही। हई है, कहीं से आया नहीं है। जब कुछ नहीं था, तब भी वह था, रहेगा ही। सारी प्रकृति को भर कर कितना विशेष है, कहा नहीं जा सकता।
इसका नहीं होना असंभव है। यदि कहो, नहीं है। तो प्रश्न उदय होगा, सारे सांतों के पार में क्या होगा? अनंत कहना ही पड़ेगा। यदि कहो अनंत के पार में क्या है, तो तुम्हारा प्रश्न ही गलत है। अनंत का अंत ही नहीं होगा। उसके पार में कैसे क्या होगा? वह ईश्वर नहीं है, ऐसा कहने से गुंजाइश नहीं है। वह स्थूल इन्द्रियों से प्राप्त नहीं हो सकता। उपनिषद् में सुना - मन से जिसका मनन नहीं हो सकता, बुद्धि भी नहीं जान सकती। लोग समझते हैं मन, बुद्धि आदि इन्द्रिय नहीं रहेगी तो हम कैसे देखेंगे, समझेंगे। आप बहुत शक्तिशाली हैं, जैसे एक-एक इन्द्रिय का एक-एक विषय है, उसी प्रकार आपके निज का विषय परमात्मा है। इन्द्रियों का संग छूटे शरीर-रहित होकर, अकेले होकर रहे तो आप महान हैं, तब परमात्मा को प्राप्त करेंगे। इन्द्रियों के संग से आपकी शक्ति घट जाती है। जैसे रोशनी पर आवरण पड़ने से उसका तेज कम हो जाता है। जैसे आँख से जो देखते हो, उसे ही रूप कहते हैं; उसी प्रकार जो चेतन-आत्मा से पकड़ा जाय, वह परमात्मा है। जन्मांध व्यक्ति चीजों के रूप को नहीं देख सकते। आँखवाले पहचानते हैं। यह बात दूसरी है।
परमात्मा सबका आधार है, इसी की भक्ति करो। जो विषयों में फँसते हैं, अपना दुर्नाम करवाते हैं। कभी-कभी राजा से दंडित होते हैं और अंत में नरक भी होता है, तो इस प्रकार विषय सुख से होता है। यदि परमात्मा की भक्ति करो, तब उस परमात्मा को प्राप्त कर देखो कि वह सुख कैसा है?
जिसकी इन्द्रियाँ शांत नहीं, जिसका मन अशांत है, वह आत्मज्ञान द्वारा परमात्मा को प्राप्त नहीं कर सकता। पापात्मा को ईश्वर की भक्ति में दिल नहीं लगता।

सेख सबूरी बाहरा, क्या हज कावे जाय। जाका दिल साबत नहीं, ताको कहाँ खुदाय।।

रूहे पाक से पहचान सकते हो, हवस से नहीं। पवित्र आत्मा से ईश्वर को पहचानो। शरीरयुक्त इन्द्रियों के संग के कारण जो मलिनता है, उससे जबतक ऊपर नहीं उठेंगे, तबतक ईश्वर को पहचान नहीं सकते। 

मानव-शरीर क्यों? | MANAV SHARIR KYON? | MAHARSHI-SANTSEVI-PARAMHANS-PRAVACHAN | SANTMAT-SATSANG | KABIR | BHAGWAN-BUDHA



मानव-शरीर क्यों? 
छाग के चमड़े से वाद्ययंत्रादि, गौवृषभादि के चमड़ों पदत्राणादि, गेंड़े के चमड़ों से ढाल और मृगाव्याघ्रादिक के चमड़ों से ऋषि-मुनियों के आसन बनते हैं; किन्तु आपने अपने लिए भी सोचा है कि आपके चमड़े का क्या होगा? उसका कुछ भी नहीं। इसलिए कहा गया है-
या देही का गर्व न करिये, स्यार  काग  गिध  खइहैं। 
तीन नाम तन विष्टा कृम होय, नातर खाक उडइहैं।। 
यह शरीर सियार, काग और गृधदि का भोजन होगा, जलकर भष्मसात् या खाक, सड़कर विष्ठावत् और फिर उससे कीड़े उद्भूत होंगे। और क्या होगा? संत कबीर के शब्दों में- 
कबीर गर्व न  कीजिए, चाम लपेटे  हाड़। 
हय वर ऊपर छत्र तर, तौ भी  देवैं  गाड़।। 
कबीर गर्व न कीजिये, ऊँचा देखि अवास। 
ऊपर ऊपर  हल  फिरैं, ढोर  चरेंगे  घास।। 

धन यौवन का गर्व न कीजै, झूठा पँच रंग चोल रे। 

भगवान बुद्ध ने कहा था- ‘अपफसोस! थोड़े ही समय में यह शरीर तुच्छ हालत में बेजान-बेकार लट्ठे की तरह पृथ्वी पर पड़ा रह जाएगा।’ ऐसी परिस्थिति में हमें क्या करना चाहिए? क्या हथेली-पर-हथेली रखकर चुपचाप बैठ जाना चाहिए? अथवा मनुष्य-शरीर की क्या उपयोगिता है, इसे भी जानना चाहिए? अच्छा, अब आइए और संतवाणी पर विचार कीजिए। रामचरितमानस में आया है-
देह धरे कर यहि फल भाई।
भजिय राम सब काम बिहाई।

अर्थात्, हे भाई! मानव-शरीर प्राप्त करने का फल यह है कि सांसारिक सभी कामनाओं को छोड़कर परमात्म-भजन करना। इसको संत कबीर के शब्दों में कह सकेंगे- 
नहिं अचाह नहिं चाहना चरणन लौ लीना रे। 
अर्थात् परमार्थ-साधन में अनिच्छा-रहित और स्वार्थ-साध्न में इच्छा-रहित रहते हुए प्रभु-चरणों में लवलीन रहना, नर-तन का यह पुनीत कर्त्तव्य है। रामचरितमानस में भगवान श्रीराम ने मनुष्य-शरीर की दुर्लभता और विशेषता की भूरि-भूरि प्रशंसा करते हुए कहा है- 

आकर चारि लाख चौरासी। योनि भ्रमत यह जीव अविनासी।। 
फिरत सदा माया  कर  प्रेरा। काल  कर्म  सुभाव  गुन  घेरा।।
कबहुँक करि करुना नर देही। देत ईस  बिनु हेतु  सनेही।।

साधन धाम मोक्ष कर द्वारा। पाइ न जेहि परलोक सँवारा।। 

अर्थात् यह जीव चार खानियों- स्थावर, (उद्भिजद्ध), उष्मज, अण्डज और पिण्डज तथा चौरासी लक्ष योनियों में भटकते हुए, उन स्थानों की असह्य यातनाओं को सहन करते-करते जब श्रान्त-कलान्त, दुःख से जर्जर, आकुल एवं अधीर हो अपना धैर्य खो बैठता है, तब ईश्वर अपनी अहैतुकी कृपा से मनुष्य का शरीर देते हैं, जो शरीर सभी साध्नाओं का घर और मोक्ष का द्वार है। यह शरीर इतना उत्कृष्ट है कि इसके अंदर सभी विद्याएँ, सभी देवता और सभी तीर्थ विराजमान हैं।  
इसके साथ ही इस पिण्ड में अखिल ब्रह्माण्ड भी है। 

पिंड माहिं ब्रह्माण्ड ताहि पार पद तेहि लखा। (तुलसी साहब)

(1.  राम  ब्रह्म परमारथ  रूपा।  अविगत अलख  अनादि  अनूपा।। 
सकल विकार रहित गत भेदा।  कहि नित नेति निरूपहिं वेदा।। 
   (रामचरितमानस)
2. देहस्थाः सर्वविद्याश्च देहस्थाः सर्व देवताः।   
 देहस्थाः सर्वतीर्थाणि  गुरुवाक्येन  लभ्यते।। 
  (ज्ञानसंकलिनीतंत्राद्ध))

ब्रह्माण्डलक्षणं सर्वदेहमध्ये व्यवस्थितम्। (ज्ञानसंकलिनी तंत्र) संत कबीर और संत गुरु नानक साहब ने पिण्ड को बूँद और ब्रह्माण्ड को समुद्र की उपमा देते हुए कहा है कि समुद्र में बूँद है,  इसको तो सभी जानते हैं और देखते हैंऋ किन्तु बूँद; अर्थात् पिण्डद्ध के अंदर समुद्र; (अर्थात् ब्रह्माण्ड) है, इसको विरले ही जानते और देखते हैं। 

बुँद समाना समुँद में, यह जानै सब कोय। 
समुँद समाना बुँद में, बूझै विरला  कोय।। 
            (संत कबीर)
सागर महिं बूँद बूँद  महि सागरु कवणु बुझै विधि जाणै। 
उतभुज चलत   आपि    करि  चीणै   आपे  तत्तु   पछाणै।।  
          (गुरु नानक)  
इतना ही नहीं गुरु नानकदेवजी ने तो बताया है कि इस शरीर-रूप गुफा में अखूट भंडार भरा हुआ है और परम प्रभु परमात्मा भी इस शरीर में विराजमान है- 
इस गुफा महि अखुट भंडारा । तिसु विचि बसै हरि अलख अपारा।। 
संत कबीर साहब ने कहा है- यह शरीर- रूप घर देखने में तो साढ़े तीन हाथ का या अध्कि-से-अध्कि पौने चार हाथ का है, लेकिन इसकी गहराई महासमुद्र से भी अत्यध्कि है; क्योंकि समुद्र की तो थाह है और यह शरीर अथाह है, लेकिन जो इनमें डुबकी लगाता है, वह बहुमूल्य रत्नराज परमात्मा को पाता है- 
‘कहा चुनावै मेडिया, लंबी  भीति उसारि।   
घर तो साढे तीन हथ, घना तो पौने चार।।’
 ‘काया  बडे  समुद्र  केरो, थाह  न  पावै  कोइ ।  
मन मरि जैहैं डूबि के हो, मानिक लावै सोइ ।।’   
   (संत कबीर) 
इस प्रकार यह शरीर जलचर, थलचर और नभचर को तो कौन कहे, देवशरीर से भी बढ़कर है। साथ ही, ‘साधन धाम मोक्ष कर द्वारा’ कहकर भगवान श्रीराम ने इसको और भी उत्कृष्ट बना दिया है। इसलिए चाहे किसी प्रकार की साधना या किसी भी प्रकार का ज्ञान (आधिभौतिक या आध्यात्मिक) हो, वह सभी शरीरों में सुलभ है। और, जबकि इस शरीर में परम प्रभु परमात्मा निवास करते हैं, तब उनके स्वरूप की अपरोक्षानुभूति भी अन्य शरीरों में कैसे संभव है? अर्थात् परमात्म- स्वरूप की प्राप्ति भी इसी में पूर्णरूपेण अपेक्षित है। इसलिए इस शरीर की इतनी महत्ता है और इन्हीं कारणों से मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान श्रीराम भी अपने मुखारविन्द से बिना किसी हिचकिचाहट के सुस्पष्ट कह देते हैं- 
बडे भाग मानुष तनु पावा । 
सुर दुर्लभ सब ग्रंथहिं गावा ।।  
 ऐसी परिस्थिति में मनुष्य यदि देव-देह या देवलोक या देव-रिझावन के लिए यत्न करे, तो विचारवान सहज ही समझ सकते हैं, वह अपने कितने बड़े लाभ की उपेक्षा करके कितनी बड़ी क्षति की ओर अग्रसर हो रहा है। इसलिए तो गोस्वामी तुलसीदासजी महाराज ने सापफ ही कहा है- 
देव  दनुज मुनि नाग मनुज  सब माया बिबस बिचारे । 
इनके  हाथ  दास  तुलसी प्रभु कहा अपनपौ हारे।।   
 (विनय-पत्रिका) 

उन्नीसवीं शताब्दी में एक महात्मा हो गए हैं, जिनका नाम था तुलसी साहब। देव-शरीर एवं देवलोकवासियों की अपेक्षा मानव-शरीर को उत्कृष्ट बतलाते हुए वे कहते हैं- 

वह नरतन दुर्लभ देव को, सब कोइ कहै  पुकार ।।
 सब कोइ  कहै  पुकार, देव  देही  नहिं  पावै । 
ऐसे मूरख  लोग,  स्वर्ग की आस  लगावै ।। 
पुण्य  क्षीण सोइ देव, स्वर्ग से  नरक में  आवै । 
भरमे चारिउ खानि, पुण्य कहि ताहि रिझावै ।।
 तुलसी सत मत तत गहे, स्वर्ग पर करे खखार । 
नरतन दुर्लभ देव को, सब  कोइ  कहै  पुकार ।। 

कविहृदय स्वाभाविक ही भावुक होता है। इनके कहने का ढंग निराला एवं मर्मस्पर्शी होता है। अतएव उनके काव्यकला-गांभीर्य से प्रभावित हुए बिना जनसाधरण बच नहीं सकते। संतों के अनुभव-ज्ञान से अपने अनुमान ज्ञान को मिलाकर मानो ऐक्य की स्थापना कर देते हैं। कैसी अच्छी उक्ति है उनकी! उनका कहना है कि मनुष्य-शरीर बहुत दुर्लभ है। इसको प्राप्त करके मनुष्य को चाहिए कि गुरु-प्रदत्त मंत्रा का जप प्रति श्वास में करे। परमात्म-प्रेम की ज्वाला प्रज्वलित करके पाप के बीज को भूनकर भस्म कर डाले और दुःखभंजन निरंजन (माया-रहित) परमात्मा के नाम को भूलकर भी न भूले अर्थात् सतत स्मरण करता रहे, तभी मानव-जन्म सार्थक  है- 

अति दुर्लभ है तन मानुष को यह  पारस  ज्ञान विचारिये जी ।
गुरु मन्त्र दियो जो दया करके  सोइ श्वास में श्वास उचारिये  जी ।।
 प्रभु  प्रीति की  ज्वाल प्रज्वाल करो अरु पाप के बीच को जारिये  जी । 
दुखभंजन   नाम निरंजन  को कबहूँ मति भूल  बिसारिये  जी ।।
 हमारे राष्ट्रपिता पूज्य बापू  (गाँधी जी) ने ‘मनुष्य-अवतार किसलिए हुआ तथा हममें  और पशु में क्या अन्तर है’, पर प्रकाश डालते हुए कहा था- ‘हमारा मानव-अवतार इसलिए हुआ कि हमारे अन्तर में जो ईश्वर बसता है, उसका साक्षात्कार हम कर सकें। पशुओं और हममें अन्तर यही है।’ मनुष्य अपनी वाणी द्वारा भाव की अभिव्यक्ति कर सकता हैऋ सदाचारी बनकर परमात्म-स्वरूप का अपरोक्ष ज्ञान प्राप्त कर सकता है, किन्तु पशु न तो अपनी बोली द्वारा भाव की अभिव्यक्ति कर सकते हैं और न परमात्म-स्वरूप का परोक्ष वा अपरोक्ष ज्ञान प्राप्त कर सकते हैं।’    (महर्षि मेँहीँ) 
उत्तरगीता के दूसरे अध्याय में भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन से कहा है- 
आहारनिद्राभयमैथुनंच सामान्यमेतत्  पशुभिर्नराणाम् ।
ज्ञानं नराणामधिकं विशेषो ज्ञानेनहीनाः पशुभिः  समानाः।।
अर्थात् आहार, निद्रा, भय तथा मैथुन; इन सब विषयों में पशु और मनुष्य में कुछ भी प्रभेद नहीं है। केवल ज्ञानलाभ करने पर ही मनुष्य पशु से श्रेष्ठ हो सकता है, सुतरां स्पष्ट प्रतीत होता है कि ज्ञानहीनता मनुष्य पशुतुल्य है।
 संत कबीर साहब ने तो वाणी में कमाल ही कर दिया है। वे बड़े मजे में कहते हैं-

बैल गढन्ता नर  गढा,  चूका सींग अरु  पूँछ । 
एकहि गुरु की भक्ति बिन, धिक दाढी धिक मूँछ ।। 
गो0 तुलसीदासजी की वाणी भी जरा सुन लीजिए- 
रामचन्द्र के भजन बिनु, जो चह पद निर्वान । 
ज्ञानवन्त अपि सो नर, पसु बिन पूँछ विषान ।। 
उपर्युक्त उद्धरणों से ज्ञात होता है तथा मनीषियों ने बताया है कि मनुष्य और पशु में केवल ज्ञान का ही अन्तर है। ज्ञानसम्पन्न मानव देवता से बढ़कर है और ज्ञानहीन मानव दानव से भी बदतर। यहाँ ‘ज्ञान’ को भी जान लेना आवश्यक है। ‘ज्ञान’ शब्द से विषय-ज्ञान जानना नितान्त भूल है; क्योंकि मनुष्य-शरीर में विषय- भोग को वमन-तुल्य कहा गया है-
जो  विषया  सन्तन्ह  तजी, मूढ ताहि लपटात । 
जौं नर डारत वमन करि, स्वान स्वाद सों खात।। 
 अतएव स्पष्ट है कि श्वान-सदृश विषय- रूपी सूखी हड्डी चबाने के लिए मनुष्य-शरीर नहीं है। यह तो निर्विषय तत्त्व परमात्मा का भजन तथा उनकी प्राप्ति करने के लिए है। भगवान श्रीराम ने अपनी प्रजा को यही सीख दी थी कि मनुष्य-शरीर पाने का फल विषय- विलास नहीं है और न स्वर्ग की आस ही है; क्योंकि इससे आत्मशक्ति का  ”ह्रास होता है और जीवन का विनाश होता है। नरतन पाकर जो विषय में रमण करते हैं, वे निश्चय ही शमन-भवन को गमन करते हैं। भगवान श्रीराम कहते हैं- अमृतत्व से हट विषय-विष को लेनेवाला शठ है। भला, उसको कौन भला कह सकता है, जो पारसमणि को तजकर गुंजा ग्रहण करता है? 
एहि तन कर  फल विषय न भाई। स्वर्गउ स्वल्प अन्त दुखदाई।। 
नर तन पाइ विषय मन देहीं। पलटि सुधा ते सठ विष लेहीं।।
ताहि कबहूँ भल कहइ न कोई। गुँजा ग्रहइ परसमनि खोई।। 
 (रामचरितमानस) 
इसलिए यह बात अत्यन्त दृढ़तापूर्वक जाननी चाहिए कि उपर्युक्त ‘ज्ञान’ शब्द का व्यवहार ‘आत्मज्ञान’ के लिए हुआ है, जिसकी विलक्षण व्याख्या भगवान श्रीकृष्ण ने श्रीमद्भगवद्गीता, अध्याय 13/2 में की है; यथा- 
क्षेत्रज्ञं चापि मां विद्धि  सर्वक्षेत्रेषु भारत । 
क्षेत्रक्षेत्रज्ञयोर्ज्ञानं यत्तज्ज्ञानं  मतं मम ।। 
अर्थात् हे भारत! सब क्षेत्रों में क्षेत्रज्ञ भी मुझे ही समझ। क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ का जो ज्ञान है, वही मेरा (परमेश्वर का) ज्ञान माना गया है। पुनः इसी त्रायोदश अध्याय के ग्यारहवें श्लोक में है-
अध्यात्मज्ञाननित्यत्वं तत्त्वज्ञानार्थ दर्शनम् । 
एतज्ज्ञानमिति प्रोक्तमज्ञानं  यदतोऽन्यथा ।। 
अर्थात् अध्यात्म-ज्ञान को नित्य समझना और तत्त्व-ज्ञान के सिद्धान्त का परिशीलन- इनको ज्ञान कहते हैं। इसके अतिरिक्त जो कुछ है, सब अज्ञान है। श्रीमद्भगवद्गीता के चौथे अध्याय में भगवान श्रीकृष्ण ने महाबाहु अर्जुन से ज्ञान की महिमा कही है-
अपि चेदसि  पोपेभ्यः  सर्वेभ्यः पापकृत्तमः। 
सर्वं  ज्ञानप्लवेनैव   वृजिनं  संतरिष्यसि ।।36।। 
यथैधांसि समिद्धोऽग्निर्भस्मसात्कुरुतेऽर्जुन।
ज्ञानाग्निः सर्वकर्माणि भस्मसात्कुरुते तथा।।37।। 
न   हि ज्ञानेन सदृशं  पवित्रमिह   विद्यते । 
तत्स्वयं योगसंसिद्धः कालेनात्मनि विन्दति ।।38।। 
श्रद्धावाँल्लभते ज्ञानं  तत्परः संयतेन्द्रियः। 
ज्ञानं लब्ध्वा परां शान्तिमचिरेणाधिगच्छति।।39।।
तस्मादज्ञानसंभूतं हृत्स्थं  ज्ञानासिनात्मनः। 
छित्त्वैनं  संशयं योगमातिष्ठोत्तिष्ठ भारत ।।42।। 

अर्थात् समस्त पापियों में तू सबसे बड़ा पापी हो, तो भी ज्ञानरूपी नौका द्वारा सब पापों को तू पार कर जाएगा ।।36।। 
हे अर्जुन! जैसे प्रज्वलित अग्नि ईंधन को भस्म कर देती है, वैसे ही ज्ञानरूपी अग्नि सब कर्मों को भस्ममय कर देती है ।।37।। 
ज्ञान के समान इस संसार में कुछ भी पवित्र नहीं है। योग में पूर्णता प्राप्त मनुष्य समय पाकर अपने-आपमें उस ज्ञान को प्राप्त करता है।।38।। 
श्रद्धावान, ईश्वरपरायण, जितेन्द्रिय पुरुष ज्ञान पाता है और ज्ञान प्राप्त कर तुरन्त परम शान्ति पाता है ।।39।। 
इसलिए हे भारत! हृदय में अज्ञान से उत्पन्न हुए संशय को आत्मज्ञान-रूप तलवार से नष्ट करके योग-समत्व धरण के लिए खड़ा हो ।।42।। 
महाभारत, शान्ति पर्व, उत्तरार्द्ध, मोक्षधर्म, अध्याय 154 में भगवान श्रीकृष्ण ने कहा है- दया-धर्म ही उत्तम है, शान्त होना ही बड़ा पराक्रम है और ज्ञानों में आत्मज्ञान श्रेष्ठ है। 
बृहत्तन्त्रासार में लिखा है कि ज्ञान से मोक्ष मिलता है, इसलिए ज्ञान सर्वश्रेष्ठ है- 
ज्ञानान्मोक्षमवाप्नोति तस्माज्ज्ञानं परात्परम् । 
गो० तुलसीदासजी ने भी ठीक इसी तरह कहा है- 
धर्म ते बिरति जोग तें ज्ञाना। ज्ञान मोक्षप्रद वेद बखाना।। 
इस प्रकार अन्त में हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि ज्ञान-योगयुक्त ईश्वर की भक्ति करके परमात्म-स्वरूप की प्रत्यक्षानुभूति करना ही मानव-जीवन का परमोत्कृष्ट कर्त्तव्य है या सीधे शब्दों में हम कह सकेंगे कि सद्ज्ञान-अर्जन करके परमात्म-स्वरूप की अपरोक्षानुभूति के लिए ही मानव-शरीर मिला है। 

गुरु सदा शिष्य की संभाल करते हैं | GURU SADA SHISHYA KI SAMBHAL KARTE HAIN | PRAVACHAN-MAHARSHI-MEHI | SANTMAT-SATSANG

गुरु सदा शिष्य की संभाल करते हैं!
योगहीनं कथं ज्ञानं मोक्षदं भवतीह भोः। 
योगोऽपि ज्ञानहीनस्तु न क्षमो मोक्षकर्मणि।।१३।।
तस्माज्ज्ञानं च योगं च मुमुक्षुर्दृढमभ्यसतेत् ।    -योगशिखोपनिषद अ0 1 
योग कहते हैं जोड़ने को, मिला देने को। ज्ञान कहते हैं, जानने को। हम किससे मिलें और हम मिलावें तो क्या मिलावें, किसको  किससे योग करें यह जानना पड़ेगा। क्या करेंगे, पहले इसको जानने की आवश्यकता है। बिना पहिचाने जानना परोक्ष ज्ञान है। यह परोक्ष ज्ञान श्रवण। मनन और निदिध्यासन;तीन दर्जों में है। श्रवण ज्ञान में कुछ सुनना, मनन ज्ञान में विचारना और निदिध्यासन उसको अभ्यास में लाना निदिध्यासन है। श्रवण ज्ञान अग्नि के समान है, वह मायाजल से बुझ जाती है। मनन ज्ञान बिजली के समान है, निदिध्यासन ज्ञान बड़वानल के समान है और अनुभव ज्ञान महाप्रलय की अग्नि के समान है, उससे सारे द्वैत प्रपंच नष्ट हो जाते हैं। अनुभव ज्ञान का दर्जा बड़ा ऊँचा है। बिना पहचाने ज्ञान पहले ही मिलावे किससे? चित्तवृत्ति मिलावे मिले किससे? ईश्वर से मिले। ईश्वर प्रणिधान में ईश्वर से मिलने के लिए कहता है। चित्तवृत्ति मिल जाए तो सिमटाव में आवेगी। सिमटाव से उर्ध्वगति होगी। संसार का सुख संतोष दायक नहीं है। संसार की सीमा के बाद परमात्मा है। यदि उसको पकड़ोगे तो परमानन्द को प्राप्त कर लोगे। उसको प्राप्त होने से शान्तिमय सुख उससे मिलने लगेगा। संसार  या माया का पसार परिवर्तनशील है, परन्तु परमात्मा जस का तस रहता है। परमात्मा इन्द्रियातीत है। वह काल-कर्म से बाहर है। उल्टे-उल्टे गुण होते हैं। परिवर्त्तनशील वाले सुख से संतुष्टी नहीं होती है, अपरिवर्तनशील वाले सुख से संतुष्टी होती है। अपरोक्ष ज्ञान-योग के द्वारा ही उसे प्राप्त कर सकते हैं। 
जौं लौं सत्य स्वरूप न सूझत । 
तौं लौं मनु मणि कण्ठ विसारे, फिरत सकल वन बूझत।। 
  -संत सूरदास 
प्रभु से मिलने की कोशिश करनी ही भक्ति है। योग और भक्ति दोनों की महिमा बराबर है। इसमें बड़ी होशियारी चाहिए। 

जाकी सुरत लगी रहे जहवाँ ,कहै कबीर सो पहुँचे तहवाँ । 
नन्ह  बालक  नहिं  जोवने  नह   वृद्धि  कछु  बन्ध । 
वह अवसर  नहिं जानिये  जब आय  पडे  जमफंद ।। 

कुछ समय पहले जितने बच्चे जवान और बूढ़े आदमी हैं इनमें से कितने मर गए। हमारी वर्तमान की हालत मरने के समय में अच्छा रहे, ऐसा कर लीजिए। गीता में कहा गया है- 

प्रयाण काले मनसा चलेन  भक्त्त्या युक्तो योग बले न चैव।
भ्रुर्वोर्मध्ये   प्राणमावेश्य   सम्यक   पुरुष   मुपैति  दिव्यम् ।। 

मरने के समय में जो अचल मन से भक्ति-युक्त होकर योगबल से अपने भ्रुमध्य में दृष्टि को स्थिर रखते हुए शरीर छोड़ता है, वह परम प्रभु की प्राप्ति करता है।

सतगुरु शिष्य का बंधन काटे, गुरु का शिष्य विकार ते हाटे। 

गुरु सदा शिष्य की संभाल करते हैं। गुरु इसीलिए सत्संग का प्रचार करते हैं कि हमारा सेवक दुःखी न हो हमारे सेवक की संभाल हो। ऐसा ख्याल गुरु को तो रहता ही है। गुरु का दण्ड (छड़ी) कड़ी फटकार है। जो जीवन काल में बहुत अभ्यास करेगा, उसको कष्ट नहीं होगा। मरने के समय जो-जो भावना करेगें, वही-वही होगा। बुरी भावना मत कीजिए। मरने के बाद मुक्ति होगी, यह उपनिषद और संतवाणी को मान्य नहीं है। जीतेजी मुक्ति होगी। इसके लिए कितना अभ्यास करना होगा सो सोचिए। पूर्वापर (पहले की बात पर) विचार हुए बिना अर्थ ठीक नहीं होता है। तीन अवस्था से हट जाओ और त्रयगुणातीत हो जाओ। स्थान भेद से अवस्था भेद होता है। अवस्था भेद से ज्ञान भेद होता है। जाग्रत अवस्था से स्वप्न अवस्था में जाने से ज्ञान बदल जाता है। जगने के समय अगर आँख के स्थान में न हां, तो आँख नहीं देख सकती है। सबसे ऊपर आँख है। आँख से ऊपर कोई इन्द्रिय नहीं है। देखने से विशेष ज्ञान होता है। स्वप्न में कण्ठ में रहते हैं। आप वर्णों में बोलते हैं।ं वर्ण दो किस्म के होते हैं-स्वर और व्यंजन। स्वर अपने  आप बोला जाता है। कण्ठ में 26 स्वर हैं। स्वप्नावस्था में आप बोलते हैं कभी-कभी मुँह से आवाज निकल जाती है। इसलिए विश्वास होता है कि स्वप्नावस्था में हैं। हृदय में 12 कमल हैं। ‘अ’ सब अक्षरों में व्यापक है। हृदय में शब्द बन्द हो जाता है। कोई भावना शब्द के बिना नहीं होती। तुरीय अवस्था आँख से ऊपर जाने में होता है। आँख से ऊपर की जो पहली सीढ़ी है वहाँ से तुरीय अवस्था का आरम्भ है। छठे चक्र से सत्यलोक तक तुरीय अवस्था है। जहाँ तक यह भेद रहता है कि मैं अनुभव कर रहा हूँ वहाँ तक तुरीय अवस्था रहती है। समरूप के तीन गुण का स्थान भँवर गुफा है। तुरीय में ब्रह्म की पहचान होती परन्तु उससे मिलाप नहीं। तुरीयातीता पद निर्विकल्प असमप्रज्ञात समाधि है। प्रभाशून्यं मनः शुन्यं बुद्धिशून्यं चिदात्मकम्। तुरीय में समप्रज्ञात समाधि है। किसी की आभा अच्छी नहीं होती है, किसी कि आभा अच्छी होती है। सब कोई अपनी-अपनी आभा में रहता है। सबको अपनी आभा है। भजन-सत्संग करने के स्थान में वही आभा चढ़ता है। जहाँ सत्संग भजन नहीं होता है वहाँ का आभा गड़बड़ हो जाता है। मैंने एक दिन भीख माँगा तो उस माता ने बड़ी गाली दी, क्योंकि उसका बेटा मर गया था। लकड़ी काटकर बेच लो या घास निकालकर बेच लो कुछ रोजगार करो 1909 ई0 की बात है। मैंने मन कहा कि जिस दिन तुम भीख माँगकर लाओगे मैं वह फेंक दूँगा। अब मुझे यह ख्याल नहीं है कि कोई मुझे खिलावे या नहीं खिलावे। गुरु के बताए हुए तरीके से जो चलता है, उसका कभी अकल्याण नहीं होता। जो इन्द्रियों के धर्म में बरत रहे हैं, वे गुरु नहीं है। जो इन्द्रियों के धर्म से बच बच के बरतते हैं, वे गुरु हैं। आयु छिन-छिन घटता जाता है और समय छिन-छिन बढ़ता जाता है। यह हरेक आदमी को सोचना चाहिए कि बहुत जरूरी काम क्या है? शरीर छोड़ने के बाद कहाँ जाएँगे? शरीर छोड़कर कोई दुःख में जाना नहीं चाहता है। नरक दुःख का स्थान है। कब शरीर छूट जाएगा, इसका ठिकाना नहीं है। इस लिए ईश्वर भजन बहुत जरूरी है। हमारी आयु जितनी चली गई वह लौटकर नहीं आवेगी। आत्मा तो सदा रहेगी। यदि थोड़ी खुशी छोड़ने से बड़ी खुशी प्राप्त हो तो थोड़ी खुशी को छोड़कर बड़ी खुशी की ओर जाओ। विषय सुख थोड़ा सुख है। आत्म सुख प्राप्त करो। समय गुजरते देर नहीं होगी। अपनी सुरत की धारों को एकत्र करो या चित्तवृत्ति का निरोध करो, यही सुरत का बेड़ा बाँधना है। काम, क्रोध, अहंकार और तृष्णा और सब बिकारों को छोड़ दो, यह सिक्खों के नवें गुरु तेगबहादुर का वचन है। 

कमठ दृष्टि जो  लावई, सो  ध्यानी  परमान ।। 
सो ध्यानी  परमान, सुरत   से   अण्डा   सेवै । 
आप रहे  जल  माहिं, सूखे  में  अण्डा   देवै ।। 
जस  पनिहारी  कलस  भरे  मारग  में  आवै । 
कर छोडै मुख वचन चित्त  कलसा  में  लावै ।। 
फणि मणि धरै उतारि आपु  चरने  को  जावै । 
वह गाफिल ना परै, सुरति मणि   माहिं रहावै ।। 
पलटू कारज सब  करै, सुरति  रहै  अलगान । 
कमठ दृष्टि जो  लावई, सो  ध्यानी  परमान ।।     
   -संत पलटू साहब 
कछुवी सूखी जमीन पर अण्डा देती है और अपने पानी में रहती है। वह अपने ख्याल को अण्डे पर लगाए रखती है, नहीं तो अण्डा सड़ जाएगा। इसी प्रकार तुम अपने ख्याल को ध्येय में लगाए रखो, यह मानस-ध्यान है। पनिहारी घड़े में पानी भरकर सिर पर रखती है और मुँह से बोलती जाती है। सखियों से बात करती है, फिर भी उसके सिर से घड़ा गिरता नहीं है। सुरत से घड़ा को पकड़ी हुई रहती है। यह भी मानस-ध् यान है। ऐसे भक्त इतने बड़े होते हैं कि उनका दर्शन बिरले को हो पाता है। एक का पदार्थ उससे दूर है और एक का पदार्थ उसके अंग-संग मौजूद है। सिर के ऊपर जो ख्याल है वह इन्द्रियों के ऊपर ख्याल है। कछुवी का ख्याल नीचे है। मणिवाला साँप मणि की ज्योति के अन्दर में घूमता है। यह उससे ऊँचा है। 
निशदिन रहै सुरत लौ लाई । पल पल राखो तिल ठहराई ।। 
हमारा तिल भी पनिहारी के तरह अंग-संग मौजूद है। जिस प्रकार पनिहारी घड़े को देखती है उसी प्रकार यदि साधक एक बार भी तिल को देख ले तो उनका ख्याल भी तिल पर  पल-पल रहेगा। जैसे मूर्त्ति का ध्यान करके मानस-ध्यान  होता है, उसी प्रकार तिल का भी मानस-ध्यान होता है। बारम्बार इन्द्रियों के ऊपर चढ़े तो  वह  संयमी  हो  जाएगा। प्रत्यक्ष ज्योति के अन्दर विचरण करना बिना ध्यान  के  नहीं होगा। जो ध्यान में सदा संलग्न रहेगा, वही ऐसा कर सकता है। अगर खास भक्ति करते हो तो मेरे उपदेश को मानो। ईश्वर ने जो तुम्हारी भलाई की है, उसके उपकार को मानो। जो आत्मतत्त्व का प्रत्यक्ष ज्ञान लाभ किया है, उसकी सेवा करो। दुःख, सुख, मान, अपमान और बड़ाई में अपने को समान रखो। जैसे बेंग (मेढ़क) साँप को पकड़ लेता है, उसी प्रकार काल ने हम सबको पकड़ लिया है, सिर्फ मुँह बाँकी है। हम काल से ग्रसित हैं। जीव भी संसारी वासना में फँसे हुए हैं। इस शरीर के लिए दूसरे को दुःख मत दो, नहीं तो तुम कपटी भक्त हो। कपट से लौ लगाने पर राम नहीं मिलते।
 प्यारे मित्रो! क्यों बिलम्ब करते हो, शीघ्रता से आकाश के द्वार पर  चढ़  जाओ। आँख बन्द कर देखो, तुम  अंधकार  में  हो। अंधकार  का गुण अज्ञानता है। इस अंधकार में रहने के कारण भ्रम और अज्ञानता में डूबे हुए हो। आकाश का द्वार तिल है। यह ऐसा निशाना है कि जिस निशाने पर स्थिर होने से देखोगे कि अंधकार नहीं है। अंधकार में पतलापन आ गया अर्थात कम हो गया। तुलसी साहब कहते हैं- 
श्यामकंज लीला गिरि सोई । तिल परिमान जान जन कोई् ।। 
छिन छिन मन को तहाँ लगावै। एक पलक छूटन नहि पावै।। 
श्रुति ठहरानि रहे आकासा। तिल खिडकि में निस दिन वासा।। 
गगन द्वार  दीसे  एक  तारा। अनहद नाद सुनै झनकारा ।। 
प्रकाश हो गया यह बात ऐसी है कि  ‘खग जाना खग ही की भाषा’  करो तो अवश्य मालूम होगा। शरीर रूपी नगरी में अंधकार समाया हुआ है, इसमें भूल भरम होता है। नवों द्वारों में  वृत्ति नहीं रहने दो तो प्रकाश देखोगे। पहला परदा  अंधकार  है। आँख में ज्योति है तो तुम्हारे अन्दर में गर्मी है। प्रकाश है तो अन्दर में शब्द भी है। है वह जहाँ अंधकार और प्रकाश का मिलन स्थान है, आकाश का द्वार है। बाहरी सत्संग के बिना अंतरी सत्संग का ज्ञान नहीं होगा। 
है सब में सब ही ते न्यारा । 
जीव जन्तु जलथल सब ही में। शब्द व्यापत बोलनहारा।।   
अपने को जानने के लिए अपने अन्तर में अभ्यास करना चाहिए। अपने आप को पहचानो, चाहे तू कहीं रहो। तुम्हारे शरीर के अंदर ब्रह्म तत्त्व हई है। सहज में उससे मिल सकते हो। यदि अपने में खोजो तो वह प्रभु अवश्य मिलेगें।
निज तन खोज सज्जन बाहर न खोजना। 
अपने ही घट में हरि है अपने में खोजना।।

सत्यम शिवम सुंदरम SATYAM SHIVAM SUNDARAM | SATYA-SANATAN-MEHI | SANTMAT-SATSANG | MAHARSHI-MEHI


🌸सत्यम शिवम सुंदरम🌸
यह पथ सनातन है। समस्त देवता और मनुष्य इसी मार्ग से पैदा हुए हैं तथा प्रगति की है। हे मनुष्यों आप अपने उत्पन्न होने की आधाररूपा अपनी माता को विनष्ट न करें।- (ऋग्वेद-3-18-1)

सनातन का अर्थ है जो शाश्वत हो, सदा के लिए सत्य हो। जिन बातों का शाश्वत महत्व हो वही सनातन कही गई है। जैसे सत्य सनातन है। ईश्वर ही सत्य है, आत्मा ही सत्य है, मोक्ष ही सत्य है और इस सत्य के मार्ग को बताने वाला धर्म ही सनातन धर्म भी सत्य है। वह सत्य जो अनादि काल से चला आ रहा है और जिसका कभी भी अंत नहीं होगा वह ही सनातन या शाश्वत है। जिनका न प्रारंभ है और जिनका न अंत है उस सत्य को ही सनातन कहते हैं। यही सनातन धर्म का सत्य है।
वैदिक या हिंदू धर्म को इसलिए सनातन धर्म कहा जाता है, क्योंकि यही एकमात्र धर्म है जो ईश्वर, आत्मा और मोक्ष को तत्व और ध्यान से जानने का मार्ग बताता है। मोक्ष का कांसेप्ट इसी धर्म की देन है। एकनिष्ठता, ध्यान, मौन और तप सहित यम-नियम के अभ्यास और जागरण का मोक्ष मार्ग है अन्य कोई मोक्ष का मार्ग नहीं है। मोक्ष से ही आत्मज्ञान और ईश्वर का ज्ञान होता है। यही सनातन धर्म का सत्य है।


सनातन धर्म के मूल तत्व सत्य, अहिंसा, दया, क्षमा, दान, जप, तप, यम-नियम आदि हैं जिनका शाश्वत महत्व है।

सनातन धर्म | सनातन धर्म का सत्य | सनातन का अर्थ है जो शाश्वत हो, सदा के लिए सत्य हो। जिन बातों का शाश्वत महत्व हो वही सनातन कही गई है। जैसे सत्य सनातन है। ईश्वर ही सत्य है, आत्मा ही सत्य है, मोक्ष ही सत्य है और इस सत्य के मार्ग को बताने वाला धर्म ही सनातन धर्म भी सत्य है। SANATAN-SANTMAT

 सनातन धर्म का सत्य:

सनातन का अर्थ है जो शाश्वत हो, सदा के लिए सत्य हो। जिन बातों का शाश्वत महत्व हो वही सनातन कही गई है। जैसे सत्य सनातन है। ईश्वर ही सत्य है, आत्मा ही सत्य है, मोक्ष ही सत्य है और इस सत्य के मार्ग को बताने वाला धर्म ही सनातन धर्म भी सत्य है। वह सत्य जो अनादि काल से चला आ रहा है और जिसका कभी भी अंत नहीं होगा वह ही सनातन या शाश्वत है। जिनका न प्रारंभ है और जिनका न अंत है उस सत्य को ही सनातन कहते हैं। यही सनातन धर्म का सत्य है।

वैदिक या हिंदू धर्म को इसलिए सनातन धर्म कहा जाता है, क्योंकि यही एकमात्र धर्म है जो ईश्वर, आत्मा और मोक्ष को तत्व और ध्यान से जानने का मार्ग बताता है। मोक्ष का कांसेप्ट इसी धर्म की देन है। एकनिष्ठता, ध्यान, मौन और तप सहित यम-नियम के अभ्यास और जागरण का मोक्ष मार्ग है अन्य कोई मोक्ष का मार्ग नहीं है। मोक्ष से ही आत्मज्ञान और ईश्वर का ज्ञान होता है। यही सनातन धर्म का सत्य है।

सनातन धर्म के मूल तत्व सत्य, अहिंसा, दया, क्षमा, दान, जप, तप, यम-नियम आदि हैं जिनका शाश्वत महत्व है। अन्य प्रमुख धर्मों के उदय के पूर्व वेदों में इन सिद्धान्तों को प्रतिपादित कर दिया गया था।

।।ॐ।।असतो मा सदगमय, तमसो मा ज्योर्तिगमय, मृत्योर्मा अमृतं गमय।। -वृहदारण्य उपनिषद

भावार्थ : अर्थात हे ईश्वर मुझे असत्य से सत्य की ओर ले चलो, अंधकार से प्रकाश की ओर ले चलो। मृत्यु से अमृत की ओर ले चलो।

जो लोग उस परम तत्व परब्रह्म परमेश्वर को नहीं मानते हैं वे असत्य में गिरते हैं। असत्य से मृत्युकाल में अनंत अंधकार में पड़ते हैं। उनके जीवन की गाथा भ्रम और भटकाव की ही गाथा सिद्ध होती है। वे कभी अमृत्व को प्राप्त नहीं होते। मृत्यु आए इससे पहले ही सनातन धर्म के सत्य मार्ग पर आ जाने में ही भलाई है। अन्यथा अनंत योनियों में भटकने के बाद प्रलयकाल के अंधकार में पड़े रहना पड़ता है।

।।ॐ।। पूर्णमद: पूर्णमिदं पूर्णात् पूर्णमुदच्यते। पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते।। -ईश उपनिषद

भावार्थ : सत्य दो धातुओं से मिलकर बना है सत् और तत्। सत का अर्थ यह और तत का अर्थ वह। दोनों ही सत्य है। "अहं ब्रह्मास्मी और तत्वमसि।" अर्थात मैं ही ब्रह्म हूँ और तुम ही ब्रह्म हो। यह संपूर्ण जगत ब्रह्ममय है। ब्रह्म पूर्ण है। यह जगत् भी पूर्ण है। पूर्ण जगत् की उत्पत्ति पूर्ण ब्रह्म से हुई है। पूर्ण ब्रह्म से पूर्ण जगत् की उत्पत्ति होने पर भी ब्रह्म की पूर्णता में कोई न्यूनता नहीं आती। वह शेष रूप में भी पूर्ण ही रहता है। यही सनातन सत्य है।

जो तत्व सदा, सर्वदा, निर्लेप, निरंजन, निर्विकार और सदैव स्वरूप में स्थित रहता है उसे सनातन या शाश्वत सत्य कहते हैं। वेदों का ब्रह्म और गीता का स्थितप्रज्ञ ही शाश्वत सत्य है। जड़, प्राण, मन, आत्मा और ब्रह्म शाश्वत सत्य की श्रेणी में आते हैं। सृष्टि व ईश्वर (ब्रह्म) अनादि, अनंत, सनातन और सर्वविभु हैं।

जड़ पाँच तत्व से दृश्यमान है-
आकाश, वायु, जल, अग्नि और पृथ्वी। यह सभी शाश्वत सत्य की श्रेणी में आते हैं। यह अपना रूप बदलते रहते हैं किंतु समाप्त नहीं होते। प्राण की भी अपनी अवस्थाएँ हैं: प्राण, अपान, समान और यम। उसी तरह आत्मा की अवस्थाएँ हैं: जाग्रत, स्वप्न, सुसुप्ति और तुर्या। ज्ञानी लोग ब्रह्म को निर्गुण और सगुण कहते हैं। उक्त सारे भेद तब तक विद्यमान रहते हैं जब तक ‍कि आत्मा मोक्ष प्राप्त न कर ले। यही सनातन धर्म का सत्य है।

ब्रह्म महाआकाश है तो आत्मा घटाकाश। आत्मा का मोक्ष परायण हो जाना ही ब्रह्म में लीन हो जाना है इसीलिए कहते हैं कि ब्रह्म सत्य है जगत मिथ्‍या यही सनातन सत्य है। और इस शाश्वत सत्य को जानने या मानने वाला ही सनातनी कहलाता है।

आर्यत्व :
आर्य समाज के लोग इसे आर्य धर्म कहते हैं, जबकि आर्य किसी जाति या धर्म का नाम न होकर इसका अर्थ सिर्फ श्रेष्ठ ही माना जाता है। अर्थात जो मन, वचन और कर्म से श्रेष्ठ है वही आर्य है। बौद्ध धर्म के चार आर्य सत्य का अर्थ चार श्रेष्ठ सत्य ही होता है। बुद्ध कहते हैं कि उक्त श्रेष्ठ व शाश्वत सत्य को जानकर आष्टांगिक मार्ग का अनुसरण करना ही 'एस धम्मो सनंतनो' अर्थात यही है सनातन धर्म।

इस प्रकार आर्य धर्म का अर्थ श्रेष्ठ समाज का धर्म ही होता है। प्राचीन भारत को आर्यावर्त भी कहा जाता था जिसका तात्पर्य श्रेष्ठ जनों के निवास की भूमि था।

सनातन मार्ग :

विज्ञान जब प्रत्येक वस्तु, विचार और तत्व का मूल्यांकन करता है तो इस प्रक्रिया में धर्म के अनेक विश्वास और सिद्धांत धराशायी हो जाते हैं। विज्ञान भी सनातन सत्य को पकड़ने में अभी तक कामयाब नहीं हुआ है किंतु वेदांत में उल्लेखित जिस सनातन सत्य की महिमा का वर्णन किया गया है विज्ञान धीरे-धीरे उससे सहमत होता नजर आ रहा है।

हमारे ऋषि-मुनियों ने ध्यान और मोक्ष की गहरी अवस्था में ब्रह्म, ब्रह्मांड और आत्मा के रहस्य को जानकर उसे स्पष्ट तौर पर व्यक्त किया था। वेदों में ही सर्वप्रथम ब्रह्म और ब्रह्मांड के रहस्य पर से पर्दा हटाकर 'मोक्ष' की धारणा को प्रतिपादित कर उसके महत्व को समझाया गया था। मोक्ष के बगैर आत्मा की कोई गति नहीं इसीलिए ऋषियों ने मोक्ष के मार्ग को ही सनातन मार्ग माना है।

मोक्ष का मार्ग :
धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष में मोक्ष अंतिम लक्ष्य है। यम, नियम, अभ्यास और जागरण से ही मोक्ष मार्ग पुष्ट होता है। जन्म और मृत्यु मिथ्‍या है। जगत भ्रमपूर्ण है। ब्रह्म और मोक्ष ही सत्य है। मोक्ष से ही ब्रह्म हुआ जा सकता है। इसके अलावा स्वयं के अस्तित्व को कायम करने का कोई उपाय नहीं। ब्रह्म के प्रति ही समर्पित रहने वाले को ब्राह्मण और ब्रह्म को जानने वाले को ब्रह्मर्षि और ब्रह्म को जानकर ब्रह्ममय हो जाने वाले को ही ब्रह्मलीन कहते हैं।

विरोधाभासी नहीं है सनातन धर्म :
सनातन धर्म के सत्य को जन्म देने वाले अलग-अलग काल में अनेक ऋषि हुए हैं। उक्त ऋषियों को दृष्टा कहा जाता है। अर्थात जिन्होंने सत्य को जैसा देखा, वैसा कहा। इसीलिए सभी ऋषियों की बातों में एकरूपता है। जो उक्त ऋषियों की बातों को नहीं समझ पाते वही उसमें भेद करते हैं। भेद भाषाओं में होता है, अनुवादकों में होता है, संस्कृतियों में होता है, परम्पराओं में होता है, सिद्धांतों में होता है, लेकिन सत्य में नहीं।

वेद कहते हैं ईश्वर अजन्मा है। उसे जन्म लेने की आवश्यकता नहीं, उसने कभी जन्म नहीं लिया और वह कभी जन्म नहीं लेगा। ईश्वर तो एक ही है लेकिन देवी-देवता या भगवान अनेक हैं। उस एक को छोड़कर उक्त अनेक के आधार पर नियम, पूजा, तीर्थ आदि कर्मकांड को सनातन धर्म का अंग नहीं माना जाता। यही सनातन सत्य है।
जय गुरु महाराज

ईश्वर में प्रेम | सदा ईश्वर में प्रेम रखो | सत्संग भजन करते रहो इसी में कल्याण है | Maharshi Mehi | Santmat Satsang | यहाँ सब कोई मुसाफिर हैं, फिर भी कहते हैं कि मेरा घर है।

ईश्वर में प्रेम  प्यारे लोगो!  संतों की वाणी में दीनता, प्रेम, वैराग्य, योग भरे हुए हैं। इसे जानने से, पढ़ने से मन में वैसे ही विचार भर जाते...