महर्षि संतसेवी परमहंस का जीवन-चरित | PART-6
(यात्राएँ | विशेष व्यक्तियों से साहचर्य-संपर्क | परमाराध्य गुरुदेव का पुत्रवत् स्नेह | भावी उत्तराधिकार | आचार्यत्व का उत्तराधिकार)
यात्राएँ:
इन्होंने गुरुदेव के साथ ‘संतमत-सत्संग’ के प्रचार-प्रसार-हेतु निरंतर यात्राएँ की हैं। महानगर से लेकर सुदूर देहात तक की यात्राओं में ये गुरुदेव के साथ रहे। इन यात्राओं में इन्होंने गुरुदेव की सेवा-सुश्रूषा में कोई कमी नहीं आने दी। उत्तर में कश्मीर से लेकर दक्षिण में महाराष्ट्र तक और पूरब में आसाम से लेकर पश्चिम में पंजाब तक की यात्राएँ इन्होंने की। अमृतसर के प्रसिद्ध दरबार साहब, आगरा के दयालबाग और स्वामी बाग, पुष्कर, ऋषिकेश, हरिद्वार, दिल्ली, राजगीर आदि में आयोजित विशेष सत्संग-सभाओं में ये गुरुदेव के साथ सम्मिलित रहे। सुदूर देहातों में, जहाँ आवागमन की सुविधा के नाम पर या तो पगडंडियाँ हैं या ऊबड़-खावड़ कच्ची सड़क, जिस पर बैलगाड़ी ही चल सकती है, ये गुरुदेव के साथ या तो पैदल चलते या फिर बैलगाड़ी पर। बैलगाड़ी के मध्य में सामान का गट्ठर लाद दिया जाता, गट्ठर के आगे गुरुदेव बैठा करते और पीछे की ओर ये बैठ जाते। इस तरह मीलों लंबी यात्राएँ तय की जातीं। यात्रा का एक प्रसंग है। ये गुरुदेव के साथ मोरंग (नेपाल) की यात्रा पर थे। गंतव्य स्थान तक पर पहुँचने के रास्ते में एक नदी पड़ती थी। स्नान-ध्यान का वक्त हो जाने की वजह से गुरुदेव के आदेश पर बैलगाड़ी नदी के किनारे ही खोल दी गयी। स्नान-ध्यान के बाद भोजन में पत्ते पर दही, चूड़ा और चीनी रखी गयी। इतने में जोरों से हवा चलने लगी और बालू के कण आकर भोजन में मिल गये। इन्होंने गुरुदेव के साथ बालू मिले भोजन को ही ग्रहण किया।
विशेष व्यक्तियों से साहचर्य-संपर्क :
ये अपने जीवन में विभिन्न विशेष व्यक्तियों के साहचर्य-संपर्क में आये। ऐसे व्यक्तियों में प्रमुख रूप से उल्लेख्य हैं-श्रीभूपेन्द्रनाथ सान्याल, श्रीजैन मुनि धनराज, श्रीजयदयालजी गोयन्दका, श्रीस्वामी रामसुख दासजी, आचार्य विनोवा भावे, आचार्य सुशील मुनि, श्रीप्रमुख स्वामीजी, बौद्ध भिक्षु जगदीश काश्यपजी, स्वामी हरिनारायण, श्रीआशाराम बापू, श्रीमोरारी बाबू, महर्षि महेश योगी, स्वामी सत्यानंद, महापंडित राहुल सांकृत्यायन, फादर कामिल बुल्के, पंडित परशुराम चतुर्वेदी आदि। इनके साहचर्य-संपर्क से ये विभिन्न नैतिक मूल्यों, अनेक प्रकार के सिद्धांतों और विविध जीवन-मान्यताओं से परिचित हुए। इनके परिप्रेक्ष्य में इन्हें ‘संतमत-सत्संग’ की विशिष्टता को समझने का मौका मिला।
परमाराध्य गुरुदेव का पुत्रवत् स्नेह:
एक बार की घटना है। एक रात इन्होंने स्वप्न में देखा कि इनका शरीर श्मशान में मृत पड़ा हुआ है, जिसे दो गिद्ध नोंच-नोंच कर खा रहे हैं। ब्राह्ममुहूर्त्त में जब इनकी नींद टूटी, तो ये गुरुदेव को प्रणाम करने गए। उन्होंने इन्हें देखकर कहा-‘देखिए तो, मेरी चौकी के नीचे दो गिद्ध भी हैं?’ इन्होंने चौकी के नीचे देखकर कहा-‘हुजूर! गिद्ध तो नहीं हैं।’ गुरुदेव ने इनसे कहा-‘अच्छा, काल था, चला गया।’ ये परमाराध्य गुरुदेव के साथ कुप्पाघाट-आश्रम में प्रातःकालीन भ्रमण हेतु चले गये। इस भ्रमण के क्रम में ही अचानक एक कौआ ने इनके माथे पर झपट्टा मारना चाहा। वह कौआ क्रोध में इनकी ओर बढ़ा। परमाराध्य गुरुदेव ने ठीक उसी समय अपने आप बोलने की कृपा की- ‘भाग रे दुष्ट, भाग, पिता के रहते पुत्र को ले जाएगा? कदापि नहीं।’ ऐसी ही एक और घटना 1982 ई0 में घटी थी। दिनांक 29 दिसंबर की रात बीत चुकी थी। पौने तीन बजे का समय था। ये सोकर उठने ही वाले थे कि एकाएक इन्हें झपकी आयी और ये स्वप्न देखने लगे। इन्होंने देखा कि किसी नदी के किनारे सत्संग का विशाल आयोजन है। यत्र-तत्र के बहुत लोग वहाँ एकत्र हैं। वहाँ बहुत बड़ा पंडाल बनाया गया है। लोग पंडाल में और उसके बाहर इधर-उधर घूम रहे हैं। प्रातःकाल का सत्संग समाप्त हो चुका है। स्नान का समय होने के कारण जहाँ-तहाँ लोग स्नान भी कर रहे हैं। प्रातःस्मरणीय परम पूज्य गुरुदेव के आदेशानुसार उनके साथ ये भी नदी में स्नान करने जाते हैं। परमाराध्य गुरुदेव की धोती, लंगोटी आदि इनके पास हैं। गुरुदेव को स्नान करने के लिए जाते देखकर चार-पाँच और सज्जन इनके साथ हो गये। सब-के-सब गुरुदेव के निकट ही एकसाथ स्नान करने लगे। ये भी गुरुदेव की ओर देखते हुए स्नान करने लगे। गुरुदेव दो डुबकियाँ लगाकर अपने ही हाथों अपनी देह मलने लगे कि एकाएक वे पानी के वेग से वहीं पानी में गिर गये। इन्होंने दौड़कर उनको पकड़ना चाहा, किंतु नदी की वेगवती धारा में ये उनको पकड़ नहीं पाये। थोड़ी देर तक ये उनको भँसते देखते रहे। इस तरह गुरुदेव को भँसते देखकर इनकी छाती फटी जाती थी, किंतु कोई चारा नहीं था। गुरुदेव पानी के नीचे होते-होते लापता हो गये। ये सत्संगियों के साथ पानी में डूबकी लगाकर उनको काफी देर तक ढूँढते रहे, किंतु फिर भी उनका पता नहीं चला। ये व्याकुल और अधीर होकर रोने लगे। व्याकुलता इनकी बढ़ती ही चली गयी। कोई अवलंब इन्हें नहीं दीख पड़ा। दशों दिशाएँ इन्हें शून्य प्रतीत होने लगीं। ये क्या करें? किधर जाएँ? इस तरह के अनेक प्रश्न इनके मन को झकझोरने लगे। इन्हें ऐसा प्रतीत होने लगा कि इनकी हृदय-गति रूक जाएगी। इनके स्वप्न की यह स्थिति बनी ही हुई थी कि महाकरुणाकर गुरुदेव अपने कमरे से इनका नाम लेकर पुकारने लगे। इनकी नींद टूटी-इनका स्वप्न भंग हुआ और ये परमदेव के निकट जाकर उनके चरणों पर नतमस्तक हुए। संयोगवश, उस समय वहाँ गुरुसेवी श्रीभगीरथजी तथा महर्षि मेँहीँ परमहंस-पुस्तकागार के संचालक श्रीकेदारजी भी उपस्थित थे। परम कृपालु गुरुदेव ने इनसे पूछने की कृपा की- ‘क्या आप स्वप्न देख रहे थे?’ इन्होंने हाथ जोड़कर कहा-‘जी हाँ, स्वप्न देख रहा था।’ पुनः गुरुदेव ने पूछने की कृपा की-क्या देख रहे थे?’ ये कहना ही चाह रहे थे कि गुरुदेव इनसे पूछने लगे-‘आपका क्या विचार है?’ इन्होंने दीन भाव में कहा-‘हुजूर, मेरा क्या विचार होगा। जो हुजूर का विचार होगा, वही होगा।’ पुनः गुरुदेव ने इनसे पूछने की कृपा की- ‘नहीं, नहीं, आपका क्या विचार है?’ ये भीतर से प्रकंपित थे। ये कुछ कहना ही चाह रहे कि गुरुदेव ने इनसे कहा-‘बाबू अमर सिंह के यहाँ चलना है।’ इन्होंने साहस बटोरकर गुरुदेव से पूछा-‘किसे-किसे वहाँ चलना है हुजूर।’ आराध्यदेव ने कहा-‘मेरे साथ आपको तो चलना ही है।’ गुरुदेव के साथ जाने के वचन सुनकर इनका हृदय शांत हुआ। उपर्युक्त घटनाओं से यह जाहिर होता है। कि परमाराध्य गुरुदेव इनको पुत्रवत् मानते थे और इनको भी गुरुदेव का वियोग सह्य नहीं था। जाग्रत को कौन कहे, स्वप्न में भी गुरुदेव इन्हें अपने से वियुक्त रखना नहीं चाहते थे।
भावी उत्तराधिकार:
ऐसे अनेक अवसर आये जब परमाराध्य गुरुदेव ने इन्हें अपने भावी उत्तराधिकारी के रूप में प्रस्तुत किया। गुरुदेव बराबर कहा करते कि संतसेवीजी और मुझमें ‘क्यू’ और ‘यू’ का-सा संबंध है। यानी जैसे जहाँ ‘क्यू’ रहता है, वहाँ ‘यू’ भी रहता है। उसी तरह जहाँ मैं रहूँगा, वहाँ संतसेवीजी रहेंगे। मेरे बिना इनको नहीं बनेगा और इनके बिना मुझको नहीं बनेगा। ऐसे अवसर भी आए जब उन्होंने कहा-‘अब विशेष क्या कहूँ? संतसेवीजी बहुत कह चुके, उनसे जो सुने हैं, सो कीजिए। संसार के काम में कोई त्रुटि नहीं आएगी। मुझमें और संतसेवीजी में कोई फर्क नहीं है। जो मैं हूँ, सो संतसेवीजी हैं।’ महर्षि मेँहीँ आश्रम, कुप्पाघाट के सत्संग- प्रशाल में सत्संग के दौरान एक बार ये किसी अत्यावश्यक कार्यवश मंच से नीचे गये। इनके रिक्त स्थान की ओर इशारा करते हुए परमाराध्य गुरुदेव ने सत्संगप्रेमियों को संबोधित करते हुए कहा, ‘अगर कोई इनकी तरह बेसी जानते हैं, तो आवें और जहाँ संतसेवीजी बैठे थे, वहाँ बैठ जाएँ-यह भी होने योग्य नहीं है। इसलिए कोई नहीं आते हैं।’
आचार्यत्व का उत्तराधिकार:
गुरुदेव की अनवरत सेवा में इनका समय व्यतीत हो रहा था। जीवन के उत्तरकाल में गुरुदेव की यात्राएँ बंद हो गई थीं। अतः उन दिनों गुरुदेव की सेवा ही इनका एकमात्र लक्ष्य रह गया था। गुरुदेव की दिनचर्या इनकी बन गयी थी। गुरुदेव की सतत सेवा में इनकी संलग्नता की भावना को उस वक्त झटका लगा, जब 8 जून, 1986 ई0 को परमाराध्य संत मेँहीँ परमहंस इस भौतिक काया का परित्याग कर महापरिनिर्वाण को प्राप्त हुए। इनकी स्थिति अनाथ बालक की तरह हो गयी। इनके साथ ही लक्ष-लक्ष सत्संगीजन भी गुरुदेव के वियोग से विकल हो उठे। सबकी आँसूभरी आँखें इन्हें खोज रही थीं; क्योंकि उनके अवलंब अब एकमात्र ये ही थे। गुरुदेव के साथ हमेशा छाया की तरह रहकर ये सत्संगी- समाज को धैर्य, ज्ञान और साहस का पाठ पढ़ाते रहते थे। आज उन सत्संगियों के सिसकते हृदय को इन्हीं में गुरुदेव की झाँकी मिल रही थी। परमाराध्य संत मेँहीँ परमहंस के अग्रगण्य शिष्य और योग्यतम उत्तराधिकारी होने के नाते इन्होंने लाखों सत्संगियों के बीच गुरुदेव की भौतिक काया चंदन की चिता को अर्पित की, जिसे चिता की लाल-लाल लपटों ने अपनी गोद में समेट लिया। संतमत-सत्संगियों के बीच अब ये ही ब्रह्मलीन संत मेँहीँ परमहंस के एकमात्र उत्तराधिकारी दिखायी पड़े, जिनमें भक्त-जन संत मेँहीँ परमहंस की आध्यात्मिक विभूति के दर्शन कर सकते थे। परम संत बाबा देवी साहब से जो संतमत का दाय संत मेँहीँ परमहंस को मिला था और जिसे अपने परम शिष्य महर्षि संतसेवी परमहंस को सौंपा था, उस दाय का संबल लेकर अब महर्षि संतसेवी परमहंस ही भक्तजनों के सामने थे। गुरुदेव की पंचभौतिक काया की दाहक्रिया के अवसर पर देश-विदेश से कुप्पाघाट आश्रम, भागलपुर में लाखों भक्त उपस्थित हुए थे। परमाराध्य ब्रह्मलीन संत मेँहीँ परमहंस के पार्थिव शरीर के दाह-संस्कार के उपरांत महर्षि संतसेवी परमहंस ने असंख्य दीन-दुखियों के बीच अन्न और वस्त्र बाँटे थे। इन्होंने अनगिनत भक्तों और श्रद्धालुओं को भोजन करवाया था। परमाराध्य ब्रह्मलीन सद्गुरु को अपनी-अपनी श्रद्धांजलि देने के उपरांत सभी भक्तों ने उत्तराधिकारी के रूप में महर्षि संतसेवी परमहंस की जय-जयकार की और इन्हें ‘गुरुदेव’ की संज्ञा से अभिहित किया। संप्रति ये ही ‘संतमत-सत्संग’ के वर्तमान उत्तराधिकारी के रूप में पूजनीय हैं। ये ही उसके वर्तमान आचार्य हैं।
















