महर्षि संतसेवी परमहंस का जीवन-चरित | PART-6 (यात्राएँ | विशेष व्यक्तियों से साहचर्य-संपर्क | परमाराध्य गुरुदेव का पुत्रवत् स्नेह | भावी उत्तराधिकार | आचार्यत्व का उत्तराधिकार) Maharshi Santsevi Paramhans Jeevan-Charit

महर्षि संतसेवी परमहंस का जीवन-चरित | PART-6 
(यात्राएँ | विशेष व्यक्तियों से साहचर्य-संपर्क | परमाराध्य गुरुदेव का पुत्रवत् स्नेह | भावी उत्तराधिकार | आचार्यत्व का उत्तराधिकार)      
यात्राएँ: 
इन्होंने गुरुदेव के साथ ‘संतमत-सत्संग’ के प्रचार-प्रसार-हेतु निरंतर यात्राएँ की हैं। महानगर से लेकर सुदूर देहात तक की यात्राओं में ये गुरुदेव के साथ रहे। इन यात्राओं में इन्होंने गुरुदेव की सेवा-सुश्रूषा में कोई कमी नहीं आने दी। उत्तर में कश्मीर से लेकर दक्षिण में महाराष्ट्र तक और पूरब में आसाम से लेकर पश्चिम में पंजाब तक की यात्राएँ इन्होंने की। अमृतसर के प्रसिद्ध दरबार साहब, आगरा के दयालबाग और स्वामी बाग, पुष्कर, ऋषिकेश, हरिद्वार, दिल्ली, राजगीर आदि में आयोजित विशेष सत्संग-सभाओं में ये गुरुदेव के साथ सम्मिलित रहे। सुदूर देहातों में, जहाँ आवागमन की सुविधा के नाम पर या तो पगडंडियाँ हैं या ऊबड़-खावड़ कच्ची सड़क, जिस पर बैलगाड़ी ही चल सकती है, ये गुरुदेव के साथ या तो पैदल चलते या फिर बैलगाड़ी पर। बैलगाड़ी के मध्य में सामान का गट्ठर लाद दिया जाता, गट्ठर के आगे गुरुदेव बैठा करते और पीछे की ओर ये बैठ जाते। इस तरह मीलों लंबी यात्राएँ तय की जातीं। यात्रा का एक प्रसंग है। ये गुरुदेव के साथ मोरंग (नेपाल) की यात्रा पर थे। गंतव्य स्थान तक पर पहुँचने के रास्ते में एक नदी पड़ती थी। स्नान-ध्यान का वक्त हो जाने की वजह से गुरुदेव के आदेश पर बैलगाड़ी नदी के किनारे ही खोल दी गयी। स्नान-ध्यान के बाद भोजन में पत्ते पर दही, चूड़ा और चीनी रखी गयी। इतने में जोरों से हवा चलने लगी और बालू के कण आकर भोजन में मिल गये। इन्होंने गुरुदेव के साथ बालू मिले भोजन को ही ग्रहण किया।

विशेष व्यक्तियों से साहचर्य-संपर्क :
ये अपने जीवन में विभिन्न विशेष व्यक्तियों के साहचर्य-संपर्क में आये। ऐसे व्यक्तियों में प्रमुख रूप से उल्लेख्य हैं-श्रीभूपेन्द्रनाथ सान्याल, श्रीजैन मुनि धनराज, श्रीजयदयालजी गोयन्दका, श्रीस्वामी रामसुख दासजी, आचार्य विनोवा भावे, आचार्य सुशील मुनि, श्रीप्रमुख स्वामीजी, बौद्ध भिक्षु जगदीश काश्यपजी, स्वामी हरिनारायण, श्रीआशाराम बापू, श्रीमोरारी बाबू, महर्षि महेश योगी, स्वामी सत्यानंद, महापंडित राहुल सांकृत्यायन, फादर कामिल बुल्के, पंडित परशुराम चतुर्वेदी आदि। इनके साहचर्य-संपर्क से ये विभिन्न नैतिक मूल्यों, अनेक प्रकार के सिद्धांतों और विविध जीवन-मान्यताओं से परिचित हुए। इनके परिप्रेक्ष्य में इन्हें ‘संतमत-सत्संग’ की विशिष्टता को समझने का मौका मिला। 

परमाराध्य गुरुदेव का पुत्रवत् स्नेह:
एक बार की घटना है। एक रात इन्होंने स्वप्न में देखा कि इनका शरीर श्मशान में मृत पड़ा हुआ है, जिसे दो गिद्ध नोंच-नोंच कर खा रहे हैं। ब्राह्ममुहूर्त्त में जब इनकी नींद टूटी, तो ये गुरुदेव को प्रणाम करने गए। उन्होंने इन्हें देखकर कहा-‘देखिए तो, मेरी चौकी के नीचे दो गिद्ध भी हैं?’ इन्होंने चौकी के नीचे देखकर कहा-‘हुजूर! गिद्ध तो नहीं हैं।’ गुरुदेव ने इनसे कहा-‘अच्छा, काल था, चला गया।’ ये परमाराध्य गुरुदेव के साथ कुप्पाघाट-आश्रम में प्रातःकालीन भ्रमण हेतु चले गये। इस भ्रमण के क्रम में ही अचानक एक कौआ ने इनके माथे पर झपट्टा मारना चाहा। वह कौआ क्रोध में इनकी ओर बढ़ा। परमाराध्य गुरुदेव ने ठीक उसी समय अपने आप बोलने की कृपा की- ‘भाग रे दुष्ट, भाग, पिता के रहते पुत्र को ले जाएगा? कदापि नहीं।’ ऐसी ही एक और घटना 1982 ई0 में घटी थी। दिनांक 29 दिसंबर की रात बीत चुकी थी। पौने तीन बजे का समय था। ये सोकर उठने ही वाले थे कि एकाएक इन्हें झपकी आयी और ये स्वप्न देखने लगे। इन्होंने देखा कि किसी नदी के किनारे सत्संग का विशाल आयोजन है। यत्र-तत्र के बहुत लोग वहाँ एकत्र हैं। वहाँ बहुत बड़ा पंडाल बनाया गया है। लोग पंडाल में और उसके बाहर इधर-उधर घूम रहे हैं। प्रातःकाल का सत्संग समाप्त हो चुका है। स्नान का समय होने के कारण जहाँ-तहाँ लोग स्नान भी कर रहे हैं। प्रातःस्मरणीय परम पूज्य गुरुदेव के आदेशानुसार उनके साथ ये भी नदी में स्नान करने जाते हैं। परमाराध्य गुरुदेव की धोती, लंगोटी आदि इनके पास हैं। गुरुदेव को स्नान करने के लिए जाते देखकर चार-पाँच और सज्जन इनके साथ हो गये। सब-के-सब गुरुदेव के निकट ही एकसाथ स्नान करने लगे। ये भी गुरुदेव की ओर देखते हुए स्नान करने लगे। गुरुदेव दो डुबकियाँ लगाकर अपने ही हाथों अपनी देह मलने लगे कि एकाएक वे पानी के वेग से वहीं पानी में गिर गये। इन्होंने दौड़कर उनको पकड़ना चाहा, किंतु नदी की वेगवती धारा में ये उनको पकड़ नहीं पाये। थोड़ी देर तक ये उनको भँसते देखते रहे। इस तरह गुरुदेव को भँसते देखकर इनकी छाती फटी जाती थी, किंतु कोई चारा नहीं था। गुरुदेव पानी के नीचे होते-होते लापता हो गये। ये सत्संगियों के साथ पानी में डूबकी लगाकर उनको काफी देर तक ढूँढते रहे, किंतु फिर भी उनका पता नहीं चला। ये व्याकुल और अधीर होकर रोने लगे। व्याकुलता इनकी बढ़ती ही चली गयी। कोई अवलंब इन्हें नहीं दीख पड़ा। दशों दिशाएँ इन्हें शून्य प्रतीत होने लगीं। ये क्या करें? किधर जाएँ? इस तरह के अनेक प्रश्न इनके मन को झकझोरने लगे। इन्हें ऐसा प्रतीत होने लगा कि इनकी हृदय-गति रूक जाएगी। इनके स्वप्न की यह स्थिति बनी ही हुई थी कि महाकरुणाकर गुरुदेव अपने कमरे से इनका नाम लेकर पुकारने लगे। इनकी नींद टूटी-इनका स्वप्न भंग हुआ और ये परमदेव के निकट जाकर उनके चरणों पर नतमस्तक हुए। संयोगवश, उस समय वहाँ गुरुसेवी श्रीभगीरथजी तथा महर्षि मेँहीँ परमहंस-पुस्तकागार के संचालक श्रीकेदारजी भी उपस्थित थे। परम कृपालु गुरुदेव ने इनसे पूछने की कृपा की- ‘क्या आप स्वप्न देख रहे थे?’ इन्होंने हाथ जोड़कर कहा-‘जी हाँ, स्वप्न देख रहा था।’ पुनः गुरुदेव ने पूछने की कृपा की-क्या देख रहे थे?’ ये कहना ही चाह रहे थे कि गुरुदेव इनसे पूछने लगे-‘आपका क्या विचार है?’ इन्होंने दीन भाव में कहा-‘हुजूर, मेरा क्या विचार होगा। जो हुजूर का विचार होगा, वही होगा।’ पुनः गुरुदेव ने इनसे पूछने की कृपा की- ‘नहीं, नहीं, आपका क्या विचार है?’ ये भीतर से प्रकंपित थे। ये कुछ कहना ही चाह रहे कि गुरुदेव ने इनसे कहा-‘बाबू अमर सिंह के यहाँ चलना है।’ इन्होंने साहस बटोरकर गुरुदेव से पूछा-‘किसे-किसे वहाँ चलना है हुजूर।’ आराध्यदेव ने कहा-‘मेरे साथ आपको तो चलना ही है।’ गुरुदेव के साथ जाने के वचन सुनकर इनका हृदय शांत हुआ। उपर्युक्त घटनाओं से यह जाहिर होता है। कि परमाराध्य गुरुदेव इनको पुत्रवत् मानते थे और इनको भी गुरुदेव का वियोग सह्य नहीं था। जाग्रत को कौन कहे, स्वप्न में भी गुरुदेव इन्हें अपने से वियुक्त रखना नहीं चाहते थे। 

भावी उत्तराधिकार: 
ऐसे अनेक अवसर आये जब परमाराध्य गुरुदेव ने इन्हें अपने भावी उत्तराधिकारी के रूप में प्रस्तुत किया। गुरुदेव बराबर कहा करते कि संतसेवीजी और मुझमें ‘क्यू’ और ‘यू’ का-सा संबंध है। यानी जैसे जहाँ ‘क्यू’ रहता है, वहाँ ‘यू’ भी रहता है। उसी तरह जहाँ मैं रहूँगा, वहाँ संतसेवीजी रहेंगे। मेरे बिना इनको नहीं बनेगा और इनके बिना मुझको नहीं बनेगा। ऐसे अवसर भी आए जब उन्होंने कहा-‘अब विशेष क्या कहूँ? संतसेवीजी बहुत कह चुके, उनसे जो सुने हैं, सो कीजिए। संसार के काम में कोई त्रुटि नहीं आएगी। मुझमें और संतसेवीजी में कोई फर्क नहीं है। जो मैं हूँ, सो संतसेवीजी हैं।’ महर्षि मेँहीँ आश्रम, कुप्पाघाट के सत्संग- प्रशाल में सत्संग के दौरान एक बार ये किसी अत्यावश्यक कार्यवश मंच से नीचे गये। इनके रिक्त स्थान की ओर इशारा करते हुए परमाराध्य गुरुदेव ने सत्संगप्रेमियों को संबोधित करते हुए कहा, ‘अगर कोई इनकी तरह बेसी जानते हैं, तो आवें और जहाँ संतसेवीजी बैठे थे, वहाँ बैठ जाएँ-यह भी होने योग्य नहीं है। इसलिए कोई नहीं आते हैं।’ 

आचार्यत्व का उत्तराधिकार:
गुरुदेव की अनवरत सेवा में इनका समय व्यतीत हो रहा था। जीवन के उत्तरकाल में गुरुदेव की यात्राएँ बंद हो गई थीं। अतः उन दिनों गुरुदेव की सेवा ही इनका एकमात्र लक्ष्य रह गया था। गुरुदेव की दिनचर्या इनकी बन गयी थी। गुरुदेव की सतत सेवा में इनकी संलग्नता की भावना को उस वक्त झटका लगा, जब 8 जून, 1986 ई0 को परमाराध्य संत मेँहीँ परमहंस इस भौतिक काया का परित्याग कर महापरिनिर्वाण को प्राप्त हुए। इनकी स्थिति अनाथ बालक की तरह हो गयी। इनके साथ ही लक्ष-लक्ष सत्संगीजन भी गुरुदेव के वियोग से विकल हो उठे। सबकी आँसूभरी आँखें इन्हें खोज रही थीं; क्योंकि उनके अवलंब अब एकमात्र ये ही थे। गुरुदेव के साथ हमेशा छाया की तरह रहकर ये सत्संगी- समाज को धैर्य, ज्ञान और साहस का पाठ पढ़ाते रहते थे। आज उन सत्संगियों के सिसकते हृदय को इन्हीं में गुरुदेव की झाँकी मिल रही थी। परमाराध्य संत मेँहीँ परमहंस के अग्रगण्य शिष्य और योग्यतम उत्तराधिकारी होने के नाते इन्होंने लाखों सत्संगियों के बीच गुरुदेव की भौतिक काया चंदन की चिता को अर्पित की, जिसे चिता की लाल-लाल लपटों ने अपनी गोद में समेट लिया। संतमत-सत्संगियों के बीच अब ये ही ब्रह्मलीन संत मेँहीँ परमहंस के एकमात्र उत्तराधिकारी दिखायी पड़े, जिनमें भक्त-जन संत मेँहीँ परमहंस की आध्यात्मिक विभूति के दर्शन कर सकते थे। परम संत बाबा देवी साहब से जो संतमत का दाय संत मेँहीँ परमहंस को मिला था और जिसे अपने परम शिष्य महर्षि संतसेवी परमहंस को सौंपा था, उस दाय का संबल लेकर अब महर्षि संतसेवी परमहंस ही भक्तजनों के सामने थे। गुरुदेव की पंचभौतिक काया की दाहक्रिया के अवसर पर देश-विदेश से कुप्पाघाट आश्रम, भागलपुर में लाखों भक्त उपस्थित हुए थे। परमाराध्य ब्रह्मलीन संत मेँहीँ परमहंस के पार्थिव शरीर के दाह-संस्कार के उपरांत महर्षि संतसेवी परमहंस ने असंख्य दीन-दुखियों के बीच अन्न और वस्त्र बाँटे थे। इन्होंने अनगिनत भक्तों और श्रद्धालुओं को भोजन करवाया था। परमाराध्य ब्रह्मलीन सद्गुरु को अपनी-अपनी श्रद्धांजलि देने के उपरांत सभी भक्तों ने उत्तराधिकारी के रूप में महर्षि संतसेवी परमहंस की जय-जयकार की और इन्हें ‘गुरुदेव’ की संज्ञा से अभिहित किया। संप्रति ये ही ‘संतमत-सत्संग’ के वर्तमान उत्तराधिकारी के रूप में पूजनीय हैं। ये ही उसके वर्तमान आचार्य हैं।

महर्षि संतसेवी परमहंस का जीवन-चरित | PART-5 (शब्द-साधना की दीक्षा | संन्यास-वेश | सफल संदेशवाहक | श्रुतिलेखन | परमाराध्य गुरुदेव से मानसिक संलग्नता | दीक्षा-गुरु के पद की प्राप्ति | गुरुदेव की सतत सेवा | आध्यात्मिक और दार्शनिक लेखन | संपादकीय सहयोग) Maharshi Santsevi Paramhans Jeevan-Charit

महर्षि संतसेवी परमहंस का जीवन-चरित | PART-5 
(शब्द-साधना की दीक्षा | संन्यास-वेश | सफल संदेशवाहक | श्रुतिलेखन | परमाराध्य गुरुदेव से मानसिक संलग्नता | दीक्षा-गुरु के पद की प्राप्ति | गुरुदेव की सतत सेवा | आध्यात्मिक और दार्शनिक लेखन | संपादकीय सहयोग) 

शब्द-साधना की दीक्षा: 
गुरुदेव की सेवा करते हुए इनका ध्यानाभ्यास भी चलता रहा। अंततः ध्यानाभ्यास में इनकी संलग्नता और इनकी पराकाष्ठा की गुरु-भक्ति से प्रसन्न होकर गुरुदेव ने 2 जून, 1952 ई0 को इन्हें ‘संतमत’ की सर्वोच्च साधना-विधि ‘सुरत-शब्द योग’ की दीक्षा दी।
संन्यास-वेश: 
सन् 1957 ई0 में गुजरात प्रांत के अहमदाबाद नगर में ‘अखिल भारतीय साधुसमाज’ का सम्मेलन हो रहा था। पूर्णियाँ जिले की इस साधु-समाज-समिति के सदस्यों ने संत मेँहीँ परमहंस से उक्त सम्मेलन में सम्मिलित होने का आग्रह किया। लेकिन, किसी कारणवश वे उसमें जाने का समय नहीं निकाल सके। परमाराध्य गुरुदेव संत मेँहीँ परमहंस, श्रीश्रीधर बाबा के साथ इन्हें अपना प्रतिनिधि बनाकर भेजने के लिए सहमत हुए। ये श्वेत वस्त्र धारण करते थे। इसी अवसर पर 17 अक्टूबर, 1957 ई0 को गुरुदेव ने इनकी दाढ़ी-मूँछ और इनके सर के बालों का मुंडन करवाकर इन्हें गैरिक वस्त्र धारण कराया। ये गुजरात गये। ‘अखिल भारतीय साधुसमाज’ की सभा में इनका प्रवचन हुआ। इनके सारगर्भित आध्यात्मिक प्रवचन को सुनकर वहाँ के लोग मंत्रमुग्ध हो गए। 

सफल संदेशवाहक
गुरुदेव के सेवा-सान्निध्य में रहकर योग- साधना करते हुए इनका आधा दशक बीत गया। इस अवधि में ये सत्संग-सभाओं में केवल ग्रंथपाठ और गुरुदेव के प्रवचनों का श्रुति-लेखन करते अच्छी थी। गुरुदेव के सान्निध्य में वह और निखरी ही। पर अब गुरुदेव इनसे कभी-कभी सत्संग प्रारंभ करने को भी कहते। इसी दौरान इनकी मधुर आवाज और हिंदी भाषा के इनके उत्तम ज्ञान को देखते हुए सत्संगियों ने गुरुदेव से इन्हें भी प्रवचन करने की अनुमति देने की प्रार्थना की। अंततः गुरुदेव ने इन्हें नियमित रूप से प्रवचन करने की अनुमति दे दी और ये प्रवचन करने लगे। इन्हें प्रवचन करने की अनुमति देकर गुरुदेव ने मानो अपने एक सफल संदेशवाहक के रूप में इनका चयन कर लिया। गुजरात में संपन्न साधु-समाज सम्मेलन में हुए इनके गुरु-गंभीर प्रवचन ने इनकी जिस प्रतिभा को पहले ही सबके सामने ला दिया था, अब वह निरंतर निखरती गयी।

श्रुतिलेखन: 
परमाराध्य संत मेँहीँ परमहंस चार-चार घंटों तक अनवरत संतमत-संत्संगों में प्रवचन किया करते थे। उनके प्रवचनों को इन्होंने नियमित रूप से लेखनीबद्ध करना जारी रखा। संकेत-लिपि से परिचय नहीं होने के बावजूद भी इन्होंने देवनागरी लिपि में ही अतिशीघ्रतापूर्वक उन्हें पूरा-पूरा लिखा और बाद में ‘शांति-संदेश’ नाम की मासिक पत्रिका में ‘सत्संग-सुधा’ शीर्षक के अंतर्गत उनको प्रकाशित कराया। श्रुतिलेखन के क्रम में इन्होंने कभी भी परेशानी का अनुभव नहीं किया। ये सहज भाव से प्रवचनों को लिखते रहे। युग-युग तक विश्वमानवता को सन्मार्ग दिखानेवाला परमाराध्य संत मेँहीँ परमहंस के प्रवचनों को लिपिबद्ध कर उन्हें जन-जन तक पहुँचाने के इस स्तुत्य कार्य के लिए कोटि-कोटि जन इनके सदा ऋणी रहेंगे। 

परमाराध्य गुरुदेव से मानसिक संलग्नता
गुरुदेव के सान्निध्य में ये बहुपठित, बहुश्रुत, रहे। अध्यापनकाल से ही इनकी हिंदी भाषा काफी और श्रुतधर हो गये। गुरुदेव की अहैतुकी कृपा से इनके मस्तिष्क को अद्भुत ज्ञान-कोष कहने में कोई अत्युक्ति नहीं। सत्संग के समय यदि गुरुदेव महर्षि संतसेवी -ज्ञान-गंगा कहने में कुछ भूल जाते, तो वे इनकी ओर देखने लगते। वे जो कहने में भूल जाते, ये झट उन्हें कह देते। मानो जो वे कहना चाहते हों, ये पूर्व से ही जानते हों। तभी तो गुरुदेव प्रायः कहा करते, ‘महावीरजी मेरे मस्तिष्क हैं।’ 

दीक्षा-गुरु के पद की प्राप्ति:
शारीरिक रूप से अशक्त हो जाने पर गुरुदेव ने सन् 1970 ई0 में इन्हें अपनी दीक्षा-पुस्तिका सौंपते हुए आदेश दिया-‘लीजिए, आज से आप ही मेरे बदले दीक्षा दीजिए।’ इस प्रकार परमाराध्य गुरुदेव से इन्हें ‘संतमत’ की योग-साधना की दीक्षा देने का अधिकार प्राप्त हुआ। हालाँकि बहुत पहले से ही, कभी-कभी गुरुदेव की आज्ञा से ये दीक्षा लेनेवालों को दीक्षा दिया करते थे। 

गुरुदेव की सतत सेवा: 
इन्होंने जीवनपर्यंत गुरुदेव की सेवा की। इनकी अनन्य गुरुभक्ति एक आदर्श उपस्थित करती है। इन्होंने ‘आज्ञा सम न सुसाहिब सेवा’ की उक्ति को चरितार्थ किया। छोटे-से-छोटा काम भी ये गुरुदेव की अनुमति पाये बिना नहीं करते थे। मनसा-वाचा-कर्मणा इन्होंने अपने को उनके साथ जोड़े रखा। ये सदैव गुरुदेव के आय-व्यय का लेखा-जोखा रखते थे और उसे महीने के अन्त में उन्हें दिखा दिया करते थे। एक पैसे की गड़बड़ी होने पर भी पूरे महीने का हिसाब ये फिर से लिखकर दिखाया करते। हिसाब के अंत में गुरुदेव अपने दस्तखत कर दिया करते थे। गुरुदेव की अपूर्व विश्वसनीयता इन्हें प्राप्त थी। एक-दो दिनों के लिए भी किसी आवश्यक कार्यवश ये उनसे दूर हो जाते, तो गुरुदेव को इनकी अनुपस्थिति खलने लगती थी। कोई अन्य व्यक्ति इनके अभाव की पूर्ति करने में उन्हें सक्षम नहीं दीखते। गुरुदेव के जीवन के उत्तरकाल में ही जब उनकी सेवा में इनके अतिरिक्त और भी कुछ संन्यासी सेवक आये, फिर भी उनके सभी सेवा-कार्यों का सम्पादन इनके बिना सुचारु रूप से नहीं हो पाता था। इनकी आवश्यकता उनके सेवा-कार्यों में हो ही जाती। ब्राह्ममुहूर्त्त में  उठकर दतवन-आचमन कराना, सुबह-शाम हाथ-पाँव धुलाना, स्नान-भोजन कराना, नख काटना, उनके औषधि सेवन का ख्याल रखना, उनके नाम से आये पत्रों को उन्हें पढ़कर सुनाना और उनसे पूछकर उनके उत्तर देना-ये सारे सेवाकार्य इन्हीं के द्वारा संपादित होते थे। दशनार्थी, जिज्ञासु एवं अन्य जरूरतमंद व्यक्तियों को में ही गुरुदेव तक पहुँचाते। गुरु देव के दर्शनार्थ आये हुए अभ्यागतों के भोजन, आवास आदि की व्यवस्था भी यही करते थे। इन सारे कार्यां के लिए इनके समान कोई दूसरा व्यक्ति नहीं हो पाया। गुरुदेव की सेवा में सतत संलग्न रहने के कारण इन्होंने बहुलांश में उनके गुणों को आत्मसात कर लिया है। अतः परमाराध्य गुरुदेव इनमें प्रतिबिंबित होते रहते हैं। 
आध्यात्मिक और दार्शनिक लेखन: 
सन 1950 ई0 से ही ‘संतमत-सत्संग’ की मासिक पत्रिका ‘शांति-संदेश’ में विधिवत् आध्यात्मिक और दार्शनिक निबन्ध लिखते रहे। ये ही निबंध इनकी विभिन्न पुस्तकों के रूप में प्रकाशित हुए हैं। इनके लेखन में दार्शनिक गंभीर चिन्तन, आध्यात्मिक सुलझे विचार और साधनात्मक अनुभूति की झाँकी देखते बनती है।

संपादकीय सहयोग: 
गुरुदेव के प्रवचनों के संपादन के अतिरिक्त इन्होंने उनके द्वारा रचित ‘संतवाणी-सटीक’, ‘श्रीगीता-योग-प्रकाश’, ‘महर्षि मेँहीँ-पदावली’, ‘वेद-दर्शन-योग’, ‘सत्संग-सुधा’ तथा ‘ईश्वर का स्वरूप और उनकी प्राप्ति’ तथा ’ज्ञानयोगयुक्त ईश्वर-भक्ति’ के संपादन और प्रकाशन में सहयोग दिया है।

महर्षि संतसेवी परमहंस का जीवन-चरित | PART-4 (मनिहारी-प्रवास | गुरुदेव का स्थायी सान्निध्य | दर्शन और आध्यात्मिक ग्रंथों का गहन अध्ययन | नवीन नामकरण) Maharshi Santsevi Paramhans Jeevan-Charit

महर्षि संतसेवी परमहंस का जीवन-चरित | PART-4 
(मनिहारी-प्रवास | गुरुदेव का स्थायी सान्निध्य | दर्शन और आध्यात्मिक ग्रंथों का गहन अध्ययन | नवीन नामकरण)      
मनिहारी-प्रवास:
मनिहारी के कुछ सत्संगियों ने गुरुदेव से प्रार्थना की- ‘‘ये तो ‘संतमत-सत्संग  मंदिर’ में रहते ही हैं। अगर अपना कुछ समय निकालकर ये हमारे बच्चों को पढ़ाने में दिया करें, तो उनको भी कुछ लाभ हो जाए और इनके सत्संग से हमें भी कुछ लाभ हो जाए।’’ गुरुदेव ने इन्हें पढ़ाने का आदेश दे दिया। ये मनिहारी के दुर्गास्थान में जाकर बच्चों को पढ़ा आया करते। पर कुछ दिनों के बाद समयाभाव के कारण इन्होंने गुरुदेव की आज्ञा से पढ़ाने का काम छोड़ दिया। सत्संगियों ने पुनः गुरुदेव से इसके लिए विनती की। अब ये सत्संग-आश्रम में ही बच्चों को पढ़ाने का कार्य करने लगे। इस दौरान इन्हें एक बार चेचक हो गया। इन्हें काफी पीड़ा हुई। श्रीनारायण अग्रवाल की पुण्यमयी माताजी ने इस दौरान इनकी काफी सेवा-सुश्रूषा की। ये इस बीमारी से कुछ स्वस्थ हुए कि इनके पास पढ़ने के लिए आनेवाले बच्चे भी इस बीमारी की चपेट में आ गए। इनके हृदय में अपने छात्रों के प्रति करुणा उमड़ आयी। चेचक के अधसूखे घाव की चिंता किये बिना, ये मनिहारी आश्रम से आधा मील दूर बाजार जाकर उन बच्चों से मिले और उनके स्वस्थ होने की प्रार्थना परमाराध्य गुरुदेव से की।

 गुरुदेव का स्थायी सान्निध्य:
सन् 1949 ई0 में गुरुदेव ने इनसे अध्यापन का कार्य छुड़वा दिया। दस वर्ष पूर्व जो सदिच्छा इनके भीतर अंकुरित हुई थी, वह इस समय आकर पूरी हुई। ये स्थायी रूप से गुरुदेव के सान्निध्य में रहने लगे। इन्हें इससे आत्मतुष्टि का बोध हुआ। अब ये पूर्ण समर्पित भाव से गुरुदेव की सेवा में संलग्न रहने लगे। मनिहारी  सत्संग  मंदिर में रहते हुए ये गुरुदेव की सेवा अनन्यभाव से करने लगे। एक बार गुरुदेव ने इनपर कृपा की। प्रतिदिन तीन बजे ब्राह्ममुहूर्त में ये उन्हें जगा दें, ऐसा आदेश उन्होंने इन्हें दिया। उनके आदेशानुसार उनको जगाने के लिए इन्होंने अपने पास एक अलार्म घड़ी रख ली। जब ब्राह्ममुहूर्त्त में तीन बजे घड़ी की टन-टन आवाज होती, तो ये उठकर गुरुदेव के निकट जाते। जैसे ही ये उनकी कोठरी के दरवाजे के निकट पहुँचते, वैसे ही गुरुदेव कहते- ‘कौन? महावीरजी!’ ये कहते-‘जी हाँ।’ पुनः वे इनसे कहने की कृपा करते-‘अच्छा, जाइये। आप ध्यानाभ्यास कीजिए।’ और वे स्वयं स्थानीय सत्संगी सज्जन श्रीमहावीर प्रसाद अग्रवालजी के साथ गंगा-स्नान करने चले जाते। इस प्रकार लगातार एक माह तक जब-जब ये गुरुदेव को ब्राह्ममुहूर्त्त में जगाने के लिए जाते, तो उनको जगा हुआ पाते। इस घटना से ये विस्मित हुए। इन्हें यह भान हुआ कि जो समस्त संसार को अज्ञान-निद्रा से जगाने के लिए आविर्भूत हुए हैं, उनको ये क्या जगाएँगे? सच तो यह था कि उन्होंने इन्हें ही ब्राह्ममुहूर्त्त में ध्यानाभ्यास-हेतु जगाने के लिए गंगा-स्नान का बहाना किया था। ये तब से नित्य प्रति पौने तीन बजे जगकर योगसाधना में संलग्न हो जाया करते। चार बजते ही ये योगसाधना से उठकर गुरुदेव के शौच के लिए लोटा-बाल्टी में कुआँ से जल लाकर भर देते। गुरुदेव के शौच से लौटने के पूर्व ही, ये उनके लिए मिट्टी और दतवन रख दिया करते। इसके बाद ये अपने नित्य क्रियाकर्म से निवृत्त होते। गुरुदेव दतवन कर टहलने के लिए चले जाते। इस दौरान, ये सारे आश्रम की सफाई करते और फूलों की क्यारी में निकौनी आदि कर उसमें पानी डालते। प्रातः भ्रमण से गुरुदेव के लौटते ही ये उन्हें पाँव धोने के लिए पानी देते। गुरुदेव के साथ ही ये प्रातःकालीन सत्संग में सम्मिलित होते। सत्संग में स्तुति-विनती करने के बाद ये सद्ग्रंथों का पाठ करते। इसी क्रम में गुरुदेव के प्रवचन को भी ये लेखनीबद्ध करते। सत्संग के बाद गुरुदेव स्नान करते-ये उन्हें कुएँ से पानी भरकर देते। ये गुरुदेव के वस्त्र वहीं रख जाते। जितनी देर में गुरुदेव स्नान से निवृत्त होते, उतनी ही देर में ये खुद स्नानकर उनके पास लौट आते। गुरुदेव ध्यान में चले जाते, इधर ये उनके भीगें वस्त्रों को धोकर सूखने के लिए दे दिया करते और खुद ध्यानाभ्यास में संलग्न हो जाते। गुरुदेव के  ध्यान से उठते ही ये उन्हें अपने से भोजन करवाते। भेजनोपरांत जबतक गुरुदेव हाथ-मुँह धोते, ये उतनी ही देर में खुद भोजन ग्रहण कर गुरुदेव के पास लौट आते। भोजन के बाद गुरुदेव के विश्राम का समय होता। इस समय ये अध्यात्म- संबंधी पुस्तकों का अध्ययन करते। कभी-कभी आश्रम में आये हुए अभ्यागतों से भी ये इसी क्रम में मिलते-जुलते। विश्राम के बाद गुरुदेव शौच के लिए जाते। ये पानी-मिट्टी लाकर देते। गुरुदेव के शौच से लौटने पर ये लोटा मलकर यथास्थान रख देते। फिर अपर्रांकालीन सत्संग का कार्यक्रम आरम्भ होता। स्तुति-विनती के बाद सद्ग्रंथों का पाठ और पुनः गुरुदेव के प्रवचन को लिपिबद्ध करने का काम चलता। सत्संग-समाप्ति के बाद गुरुदेव सायंकालीन भ्रमण के लिए निकल जाते। ये गुरुदेव  के  कक्ष की सफाई करते, साथ ही साथ आश्रम के आँगन में लगाये गये फूलों में पानी दिया करते। सायंकाल ये गुरुदेव के ध्यान में जाते ही खुद भी ध्यानाभ्यास के लिए बैठ जाते। ध्यानाभ्यास के बाद सत्संग का कार्यक्रम चलता। स्तुति-विनती के बाद ये गुरुदेव की आज्ञा से संतों की वाणियों का सस्वर गायन किया करते। सत्संग-समाप्ति के बाद रात्रिकालीन भोजन का समय होता। ये गुरुदेव को भोजन करवाने के उपरांत थोड़ी ही देर में भोजन कर लिया करते। भोजनोपरान्त कुछ देर के लिए गुरुदेव के पास आश्रमवासियों के साथ ये भी बैठते। दस बजे रात्रि में गुरुदेव अपने कमरे में विश्राम के लिए जाते। ये ग्यारह बजे तक उनके पाँव दबाने के बाद खुद सोने के लिए जाते। इस तरह नित्यप्रति का क्रम चलता। कभी-कभी रसोइये की अनुपस्थिति में गुरुदेव के लिए ये भोजन भी बनाया करते थे। 
दर्शन और आध्यात्मिक ग्रंथों का गहन अध्ययन
गुरुदेव ने अपने सान्निध्य में रखकर इन्हें वेद, उपनिषद्, श्रीमद्भगवद्गीता, संतसाहित्य, बाइबिल, श्रीगुरुग्रंथसाहिब, कृतिवासीरामायण, महापुराण, महाभारत, कुरान, हदीस, वाल्मीकि- रामायण, त्रिपिटक, ज्ञानार्णव आदि का गहन अध्ययन कराया। बालगंगाधर तिलककृत ‘गीता रहस्य’, महात्मा गाँधी प्रणीत ‘अनासक्तिकर्मयोग’ एवं ‘चैतन्य-चरितावली’ का अध्ययन इन्होंने इस क्रम में किया। रामकृष्ण परमहंस और विवेकानन्द के संपूर्ण साहित्य के साथ-साथ हिंदी में अनुदित ‘भारत के महान साधक’ के बारह खंडों का अध्ययन भी इन्होंने इस समय किया। 

नवीन नामकरणः 
गुरुदेव की सेवा में रहते हुए इन्होंने कभी भी अपनी सुख-सुविधा पर ध्यान नहीं दिया। सदा इनकी यही कोशिश रही कि गुरुदेव को कोई असुविधा न हो। उनकी प्रसन्नता ही इनकी प्रसन्नता और उनकी तकलीफ ही इनकी तकलीफ बन गयी थी। गुरुदेव का अधिकांश समय प्रचार-कार्य में बीतता। उनके साथ यात्राजन्य कष्टों को ये हँस-हँसकर झेलते। यात्रा के क्रम में खाने-पीने, सोने आदि का कोई निश्चित समय नहीं रहता। फिर भी, ये बिना थके अहर्निश सेवा में लगे रहते। इनकी इसी सेवा-भावना से प्रसन्न होकर गुरुदेव ने इन्हें ‘संतसेवी’ कहना शुरू किया।  इस तरह इन्होंने अपना नाम महावीर ‘संतसेवी’ लिखना प्रारम्भ किया था। पर, कालांतर में ये सिर्फ ‘संतसेवी’ ही लिखने लगे।

महर्षि संतसेवी परमहंस का जीवन-चरित | PART-3 (गुरुदेव का साहचर्य और वियोग | आध्यात्मिक रचनाओं का संकलन-सहयोग और विभिन्न भाषाओं का अध्ययन | गुरुदेव का वात्सल्यपूर्ण साहचर्य | संशोधन-कार्य में संलग्नता) | Maharshi Santsevi Paramhans Jeevan-Charit

महर्षि संतसेवी परमहंस का जीवन-चरित | PART-3 
(गुरुदेव का साहचर्य और वियोग | आध्यात्मिक रचनाओं का संकलन-सहयोग और विभिन्न भाषाओं का अध्ययन | गुरुदेव का वात्सल्यपूर्ण साहचर्य | संशोधन-कार्य में संलग्नता)  

गुरुदेव का साहचर्य और वियोग:
कनखुदिया में मास-ध्यान-समाप्ति के बाद परमाराध्य गुरुदेव उस क्षेत्र में कई दिनों तक घूम-घूमकर सत्संग का प्रचार करते रहे। इस सत्संग-प्रचार में परमाराध्य गुरुदेव ने इन्हें भी अपने साथ रखा। इस क्रम में भी ये परमाराध्य गुरुदेव के आदेश पर सद्ग्रन्थों का पाठ करते और पूर्व की तरह कभी-कभी उसके भावार्थ भी किया करते। इस अवधि में परमाराध्य गुरुदेव इन पर विशेष ध्यान देते थे। वे अपने रसोइये से इनके लिए बार-बार कहा करते- ‘देखो, वह जो नया युवक मेरे साथ आया है, उसे बुलाकर खिला दिया करो।’ इसके अतिरिक्त वे इनकी अन्यान्य सुख-सुविधाओं का भी ख्याल रखते। इस तरह उस क्षेत्र का सत्संग-प्रचार समाप्त हुआ, तो परमाराध्य गुरुदेव ने इनसे कहने की कृपा की, ‘अब आप अपने काम पर चले जाइये।’ इन्हें सहसा विश्वास नहीं हुआ कि परमाराध्य गुरुदेव इन्हें अपने काम पर वापस भी भेज सकते हैं। आशा पर तुषारापात होते देख, इन्होंने परमाराध्य गुरुदेव से प्रार्थना की- ‘अब मैं आपके साथ रहने के सिवा और कुछ नहीं चाहता। कृपाकर मुझे निराश न करें।’ पर, गुरुदेव ने इनके लिए तो कुछ और ही निश्चित कर रखा था। उस विधान के अनुसार अभी वह समय नहीं आया था। गुरुदेव ने विवशता दिखायी। उन्होंने इन्हें इनकी पुण्यमयी माता की याद दिलायी और उनकी सेवा की आवश्यकता का इन्हें स्मरण कराया। उन्होंने इनसे कहने की कृपा की- ‘अभी जो काम आप करते हैं, कीजिये, आवश्यकता होगी तो बुला लूँगा।’ गुरुदेव का आदेश था, इन्होंने उनके आदेश को शिरोधार्य कर उनके श्रीचरणों में अपना सर नवाया और गुरुदेव का संबल लिये सैदाबाद लौट आए। सैदाबाद में लगभग दो वर्षों तक इनकी योगसाधना नियमित रूप से चलती रही और साथ-ही-साथ अध्यापन का काम भी चलता रहा। इनका ध्यान सदा गुरुदेव की ओर लगा रहता। क्यों न हो? इनकी सुरत-रूपी डोरी जो उनके श्री-चरणों से बँध गयी थी। परमाराध्य गुरुदेव भी इनकी खोज-खबर लेते रहते थे। इनको जब कभी भी कोई आवश्यकता होती या गुरुदेव इनसे मिलने की इच्छा व्यक्त करते, तो इनको खबर भिजवाकर गुरुदेव बुलवा लिया करते। इस क्रम में गुरुदेव का जहाँ-जहाँ भी सत्संग-प्रचार का कार्यक्रम चलता, इन्हें भी वे अपने साथ ले जाते। इस तरह गुरुदेव के साथ कुछ दिनों तक रहकर ये पुनः सैदाबाद लौट आते। यह क्रम इन दो वर्षों में कई बार चला। 

आध्यात्मिक रचनाओं का संकलन-सहयोग और विभिन्न भाषाओं का अध्ययन: 
सन् 1940 ई0 में परमाराध्य गुरुदेव ने विभिन्न संतों की विशिष्ट आध्यात्मिक रचनाओं के साथ स्वानुभूतिसिद्ध अपनी वाणियों का एक संकलन ‘सत्संग-योग’ के नाम से निकालना चाहा। इसकी पांडुलिपि तैयार करवाने के लिए उन्होंने इन्हें श्रीलच्छनदासजी के द्वारा खबर भिजवाकर बुलवाया। उस समय गुरुदेव का भागलपुर जिले में सत्संग-प्रचार का कार्यक्रम चल रहा था। ‘सत्संग-योग’  जैसे संकलनवाली पावन घटना मध्यकाल में भी घटी है। मध्यकाल के पूर्वार्द्ध में श्रीगुरु अर्जुनदेवजी  द्वारा ‘आदिग्रंथ’ तथा इसके उत्तरार्द्ध में संत रज्जबजी-द्वारा ‘सर्वांगी’ नामक ग्रंथ संकलित हुए हैं। विश्वमानवता के उद्धारार्थ ऐसे आध्यात्मिक संकलन-ग्रंथों की पुनरावृत्ति संतों- द्वारा समय-समय पर होती रही है। ‘सत्संग-योग’ नामक संकलन-ग्रंथ भी इसकी ही कड़ी है। श्रीगुरु अर्जुनदेवजी ने रचना-संकलन के लिए जिस स्थान का चयन किया था, वह ‘रामसर’ था और परमाराध्य संत मेँहीँ ने जिस स्थान का चयन किया, वह गंगा के किनारे ‘बैकुण्ठपुर’ था। गुरुदेव के साथ ये भागलपुर-परबत्ती से बैकुंठपुर आये। यहाँ गुरुदेव ने इन्हें गुरुमुखी, बांग्ला लिपि और अन्य कई भाषाओं का ज्ञान कराया। एक महीने तक गुरुदेव ‘सत्संग-योग’ के लिए आध्यात्मिक रचनाओं का संकलन करते रहे-ये दत्तचित्तता से गुरुदेव-द्वारा सद्ग्रंथों में चिन्हित अंशों को संकलित करते जाते। 
गुरुदेव का वात्सल्यपूर्ण साहचर्य: 
बैकुंठपुर-दियरा से ये गुरुदेव के साथ भागलपुर-स्थित परबत्ती लौट आये। यहाँ इनकी योगसाधना और सत्संग का कार्यक्रम चलता रहा। इसी क्रम में ये बभनगामा (बाराहाट) नामक ग्राम के सत्संग में गुरुदेव के साथ गये। वहीं के एक वयोवृद्ध सत्संगी श्रीचरण परिहतजी ने इनकी मीठी आवाज और पाठ की शुद्धता के आधार पर गुरुदेव से प्रार्थना की- ‘सरकार! इनकी कंठध्वनि बड़ी मधुर है। संतवाणी आदि का पाठ भी ये अच्छी तरह करते हैं। इनको साथ रख लिया जाता, तो बड़ा अच्छा होता।’ गुरुदेव ने कहने की कृपा की- ‘मेरी भी तो इच्छा है कि ये मेरे साथ रहें, लेकिन अभी इनकी माँ जीवित हैं। उनको क्यों रुलायें ? ’इस तरह गुरुदेव के साथ ही रहने की इनकी प्रबल आकांक्षा अभी भी अधूरी रही। यहाँ से सत्संग कर ये गुरुदेव के साथ परबत्ती वापस लौट आए। परबत्ती आने पर ये सख्त बीमार पड़ गये। इनकी शारीरिक दुर्बलता काफी बढ़ गयी। इनके शीघ्र स्वस्थ होने की चिंता गुरुदेव को थी। तेज ज्वर और बेहाशी की अवस्था में ही इन्हें लेकर गुरुदेव सिकलीगढ़-धरहरा (बनमनखी) आश्रम आये। बनमनखी से गुरुदेव ने डॉक्टर को बुलवाकर इनकी चिकित्सा करवायी। ऐलोपैथी दवा में प्रायः कुछ आहार ग्रहण कर दवा लेने का प्रावधान है। एक दिन ये जमीन पर चटाई बिछाकर लेटे हुए थे। गुरुदेव खड़ाऊँ पहने हुए इनके सामने आकर बैठ गये। इन्होंने उठकर उनके श्री-चरणों में शीश नवाया और वहीं बैठ गए। गुरुदेव ने अपने रसोइया भूपलालजी से बार्लि उबलवाकर मँगवाया और स्नेहपूरित शब्दों में इनसे कहा-‘बार्लि खाइये।’ इन्होंने दो-चार चम्मच बार्लि खाने के बाद कहा कि अब खाने की इच्छा नहीं होती। गुरुदेव ने उसमें थोड़ी-सी चीनी मिलायी और इनसे कहा- ‘अब खाइये, अच्छा लगेगा।’ इन्होंने किसी तरह दो-चार चम्मच खाकर छोड़ दिया और कहा- ‘यह भी खाने में अच्छा नहीं लगता।’ गुरुदेव ने एक नींबू का रस बार्लि में निचोड़ते हुए कहा- ‘थोड़ा और खाइये। देखिये, कितना अच्छा लगता है?’ इनके द्वारा पुनः खाने की अनिच्छा व्यक्त किए जाने पर गुरुदेव ने इनसे कहने की कृपा की- ‘बिल्कुल नहीं खाने से तो कमजोरी बढ़ती ही जायेगी।’ उन्होंने रसोइये से दूध और मिश्री मिलवाकर इन्हें पीने को दिया। ये धीरे-धीरे गुरुदेव के वात्सल्यपूर्ण सान्निध्य में ही स्वस्थ हो गए। इनके स्वस्थ होते ही गुरुदेव ने इन्हें इनकी माँ की सेवा के लिए भेज दिया। ये वापस गमहरिया आ गए। इस दौरान ये पंद्रह-बीस दिनों या एक महीना के बाद गुरुदेव के दर्शन कर आया करते। इस तरह माँ की सेवा में ये संलग्न रहे। सन् 1946 ई0 में इनकी माँ परलोक सिधार गयीं। 

संशोधन-कार्य में संलग्नता :
सन् 1946 ई0 में ही ‘सत्संग-योग’ का दूसरा संस्करण प्रकाशित हुआ था। उसमें छपाई की कुछ अशुद्धियाँ रह गयी थीं। उन अशुद्धियों को दूर कराने के लिए गुरुदेव ने इन्हें मनिहारी- आश्रम बुलवाया। उन दिनों गुरुदेव अधिकतर मनिहारी या सिकलीगढ़  धरहरा  आश्रम में ही निवास किया करते थे। मनिहारी (कटिहार) आकर इन्होंने वहाँ की सारी प्रतियों का संशोधन किया। ‘सत्संग-योग’ की कुछ प्रतियाँ धरहरा-आश्रम में भी थीं। इन्होंने वहाँ जाकर उन प्रतियों की अशुद्धियों को भी सुधारा। धरहरा से ये पुनः मनिहारी लौट आये।

शब्द जितना छोटा होगा, उतना ही सिमटाव होगा | ऊँ नमः सिद्धम् | Maharshi Mehi Paramhans ji Maharaj | Santmat Satsang | Kuppaghat-Bhagalpur


संत सद्गुरु महर्षि मेँहीँ परमहंस जी महाराज की वाणी:-

शब्द जितना छोटा होगा, उतना ही सिमटाव होगा और जितना बड़ा शब्द होगा, उतना ही फैलाव होगा। तन्त्र में एकाक्षर का ही जप करने का आदेश है और वेद में भी वही एक अक्षर। कबीर साहब कहते हैं- पढ़ो रे मन ओ ना मा सी धं ।
अर्थात् ‘ऊँ नमः सिद्धम्।’ तात्पर्य यह कि सृष्टि इसी ‘ऊँ’ से है। शब्द से सृष्टि हुई है। यह (ऊँ) त्रैमात्रिक है, इसीलिए इस प्रकार भी ‘ओ3म्’ लिखते हैं। इसको इतना पवित्र और उत्तम माना गया कि इस शब्द के बोलने का अधिकार अमुक वर्ण को ही होगा, अमुक वर्ण को नहीं। इतना प्रतिबन्ध लगाया गया कि बड़े ही कहेंगे। सन्तों ने कहा, कौन लड़े-झगड़े; ‘सतनाम’ ही कहो, ‘रामनाम’ ही कहो, आदि। बाबा नानक ने ‘ऊँ’ का मन्त्र ही पढ़ाया- *1ऊँ सतिगुरु प्रसादि।*  और कहा-  *चहु वरणा को दे उपदेश।* यह ईश्वरी शब्द है; किन्तु हमलोग इसका जैसा उच्चारण करते हैं, वैसा यह शब्द सुनने में आवे, ऐसा नहीं। यह तो आरोप किया हुआ शब्द है, जिसके मत में जैसा आरोप होता है। जैसे- पंडुक अपनी बोली में बोलता है, किन्तु कोई उस ‘कुकुम कुम’ और कोई उसी शब्द को ‘एके तुम’ आरोपित करता है। किन्तु यथार्थतः इस (ओ3म्) को लौकिक भाषा में नहीं ला सकते, यह तो अलौकिक शब्द है। इस अलौकिक शब्द को लौकिक भाषा में प्रकट करने के लिए सन्तों ने ‘ऊँ’ कहा। क्योंकि जिस प्रकार वह अलौकिक ¬ सर्वव्यापक है, उसी प्रकार यह लौकिक ‘ऊँ’ भी शरीर के सब उच्चारण-स्थानों को भरकर उच्चरित होता है। इस प्रकार का कोई दूसरा शब्द नहीं है, जो उच्चारण के सब स्थानों को भरकर उच्चरित हो सके। इसी शब्द का वर्णन सन्त कबीर साहब इस प्रकार करते हैं- 


आदि नाम पारस अहै, मन है मैला लोह। 
परसत ही कंचन भया, छूटा बन्धन मोह।। 
शब्द शब्द सब कोइ कहै, वो तो शब्द विदेह। 
जिभ्या पर आवै नहीं, निरखि परखि करि देह।। 
शब्द शब्द बहु अन्तरा, सार शब्द चित देय। 
जा शब्दै साहब मिलै, सोइ शब्द गहि लेय ।। 

आदिनाम वा शब्द सर्वव्यापक है। इसी प्रकार एक शब्द लो, जो उच्चारण के सब स्थानों को भरपूर करे, तो संतों ने उसी को ‘ऊँ’ कहा तथा इसी शब्द से उस आदि शब्द ¬ का इशारा किया। यह जो वर्णात्मक ओ3म् है, जिसका मुँह से उच्चारण करते हैं, यह वाचक है तथा इस शब्द से जिसके लिए कहते हैं, वह वाच्य है तथा उस परमात्मा के लिए वह भी वाचक है तथा परमात्मा वाच्य है। तो इस एक शब्द का दृढ़ अभ्यास, एक तत्त्व का दृढ़ अभ्यास करना है। (17-1-1951)
प्रेषक: शिवेन्द्र कुमार मेहता, गुरुग्राम

जो सत्संग से जुड़े रहते हैं, उनको चेत होता है कि सब कुछ छूटेगा, साथ जानेवाले धन की कमाई करो | Maharshi Harinandan Paramhans | Santmat Satsang

जो सत्संग से जुड़े रहते हैं, उनको चेत होता है कि सब कुछ छूटेगा, साथ जानेवाले धन की कमाई करो। 

कबीर सो धन संचिये, जो आगे को होय।
माथे चढ़ाये गाठरी, जात न देखा कोय।।

भगवान श्रीराम कहते हैं कि केवल यही जीवन नहीं है, परलोक में भी सुख से रहने के लिए यत्न करो। परलोक को उत्तम, सुखमय, शांतिमय बनाने के लिए प्रयत्न करो और वह प्रयत्न क्या होगा? परमात्मा की भक्ति की पूर्णता हो जाने पर सदा के लिए बंधन से मुक्त हो जाओगे, आवागमन के चक्र से छूट जाओगे। 
इसलिए संत-महात्मा कहते हैं कि उस सुख को प्राप्त करने का प्रयत्न करो, तब तुम्हारा इहलोक और परलोक- दोनों उत्तम बन जाएगा।

जौं परलोक इहाँ सुख चहहू। 
सुनि मम वचन हृदय दृढ़ गहहू।। -रामचरितमानस 

यह तभी होगा, जब मनोयोगपूर्वक साधना करेंगे। संसार के कामों को करते हुए ईश्वर-भजन करो। 

कर से कर्म करो विधि नाना। 
चित राखो जहँ कृपा निधाना।।

हाथ से संसार के कार्यों को करते रहो और अपने ख्याल को ईश्वर-परमात्मा की भक्ति में लगाये रखो। ऐसा करोगे तो तुम्हारा इहलोक और परलोक दोनों उत्तम बन जाएगा। यही संतों का ज्ञान है। यह शरीर सब दिन नहीं रहने वाला है। जो समय बीत गया, फिर वापस नहीं आनेवाला है। 

"मन पछतइहैं अवसर बीते।"

अवसर बीत जाने पर पश्चाताप करना पड़ेगा और बाद में पश्चाताप करने से कुछ होगा भी नहीं। इसलिए संत-महापुरुष कहते हैं कि गफलत में मत रहो, ठीक-ठीक ख्याल करो। अपने कर्तव्य कर्म का ज्ञान करो और अपने कर्तव्य को करने में आलस्य मत करो। इस तरह से भगवान श्रीराम के कहे मुताबिक तुम्हारा इहलोक और परलोक उत्तम बन जाएगा। -महर्षि हरिनन्दन परमहंस जी महाराज
प्रेषक: शिवेन्द्र कुमार मेहता, गुरुग्राम

हमलोग आर्य हैं। आर्य का अर्थ-बुद्धिमान, विद्वान, सभ्य आदि है। Hamlog Arya hain | Budhiman-Vidwan-Sabhya | Maharshi Mehi Paramhans Ji | Santmat Satsang

हमलोग आर्य हैं। 

हमलोग आर्य हैं। आर्य का अर्थ-बुद्धिमान, विद्वान, सभ्य आदि है। गीता में, महाभारत में, बौद्ध ग्रन्थों में हमारे लिए ‘आर्य’ शब्द छोड़कर दूसरा नहीं आया है। हाल में तुलसीदासजी हुए, इनकी रचना में ‘आर्य’ के सिवा दूसरा शब्द नहीं है। ‘आर्य’ कहते हैं-बुद्धिमान को। हमको बुद्धिमान बनना चाहिए। ‘बुद्धि’ वह हो, जिसमें आत्मज्ञान हो।  
हमलोग सत्संग करते हैं। यह सत्संग तीर्थराज है। इस सत्संग में सरस्वती की धारा अधिक बहती है। गोस्वामी तुलसीदासजी का कहना है कि सत्संग तीर्थराज है। तीर्थराज में गंगा, यमुना और सरस्वती की धारा बहती है।

राम भगति जहँ सुरसरि धारा।
सरसइ ब्रह्म विचार प्रचारा ।। 
विधि निषेधमय कलिमय हरनी। 
करम कथा रविनंदिनी बरनी ।। 
मुझको सरस्वती की धारा में स्नान करना है और आपको भी इसी में स्नान कराना है। 
-संत सद्गुरु महर्षि मेँहीँ परमहंस जी महाराज
संकलन: शिवेन्द्र कुमार मेहता, गुरुग्राम

ईश्वर में प्रेम | सदा ईश्वर में प्रेम रखो | सत्संग भजन करते रहो इसी में कल्याण है | Maharshi Mehi | Santmat Satsang | यहाँ सब कोई मुसाफिर हैं, फिर भी कहते हैं कि मेरा घर है।

ईश्वर में प्रेम  प्यारे लोगो!  संतों की वाणी में दीनता, प्रेम, वैराग्य, योग भरे हुए हैं। इसे जानने से, पढ़ने से मन में वैसे ही विचार भर जाते...