(मेधा का चरमोत्कर्ष | प्रज्ञा-पुरुष | समन्वय-साधना के जीवन्त प्रतीक | दर्शन और अध्यात्म के गहन अध्येता | अपरिग्रही जीवन | समदर्शिता | वत्सलता | विनोदप्रियता | लघुता में महत्ता)
मेधा का चरमोत्कर्ष:
इनमें विलक्षण मेधा-शक्ति के दर्शन होते हैं। एक बार की घटना है कि ये पटना चिकित्सा महाविद्यालय के चिकित्सक डॉ0 शारदा प्रसाद सिंहजी के साथ नालंदा की यात्रा पर थे। वहाँ इनकी मुलाकात नवनालंदा बौद्ध विहार के निदेशक भिक्षु जगदीश काश्यपजी से हुई वार्तालाप के क्रम में भिक्षु काश्यपजी ने इनसे कहा कि मैंने भगवान की सेवा बीस हजार पृष्ठों में की है। उनके कहने का आशय यह था कि उन्होंने 20,000 पृष्ठों में ‘त्रिपिटक’ का अनुवाद किया है। इस पर इन्होंने उन्हें भगवान बुद्ध के ये वचन सुनाए-
नत्थिझानं अपळजस्स पळानत्थि अझायतो।
यम्हि झानळच पळाच स वे निव्वाण संतिके।
इसे सुनकर भिक्षु जगदीश काश्यप ने इनसे कहा कि यह ठीक ही है, मैंने ध्यान से सेवा नहीं की है। डॉक्टर साहब ने पूछा-‘भिक्षुजी! इन्होंने क्या कहा, जो आपने स्वीकृति दे दी। हमलोग तो कुछ समझे ही नहीं।’ इस पर भिक्षु जगदीश काश्यप जी बोले-‘इनका कहना सत्य है। ज्ञान के बिना ध्यान नहीं और ध्यान के बिना ज्ञान नहीं। जो ज्ञान और ध्यान दोनों रखते हैं, वे निर्वाण के समीप हैं। मैंने ज्ञान से तो भगवान की सेवा की है, पर ध्यान से सेवा नहीं की है। इसलिए ये ध्यान से सेवा करने के लिए कह रहे हैं। यह ठीक बात है।’ फलतः भिक्षु जगदीश काश्यपजी ने कालांतर में ‘संतमत-सत्संग’ में योग-साधना की दीक्षा परमाराध्य संत सद्गुरु मेँहीँ परमहंस से प्राप्त की।
प्रज्ञा-पुरुष:
ये एक प्रज्ञावान पुरुष हैं, जिसका संकेत इस घटना से मिलता है। एक बार ये गुरुदेव के साथ लखनऊ-प्रवास पर थे। वहाँ ये लोग श्री गंगाचरणलाल डी0आर0एम0, लखनऊ रेलवे के यहाँ टिके हुए थे। गंगाचरणलालजी को संपूर्ण ‘धम्मपद’ कंठाग्र था और उन्होंने लंका जाकर बौद्ध धर्म की दीक्षा ली थी। एक रात परमाराध्य गुरुदेव ने गंगाचरणलालजी से पूछा-‘बौद्ध धर्म में ईश्वर के संबंध में क्या कहा गया है?’ गंगाचरणलालजी ने गुरुदेव से कहा-‘इसमें ईश्वर की मान्यता नहीं है।’ गुरुदेव ने पुनः उनसे पूछा- ‘क्या भगवान बुद्ध ने ईश्वर को माना है?’ इसपर उन्होंने कहा-‘कहाँ माना है?’ गुरुदेव ने महर्षि संतसेवीजी की ओर देखा। इन्होंने गंगाचरणलाल जी से कहा-भगवान बुद्ध ने ‘धम्मपद’ के अत्तवग्गो में कहा है-
अत्ता हि अत्तनो नाथे को हि नाथो परो सिया।
अत्तना व सुदंतेन नाथं लभति दुल्लभं ।
अर्थात् मनुष्य अपना स्वामी आप है, उसका दूसरा स्वामी और कौन हो सकता है, जो अपने को अच्छी तरह दमन कर लेता है, वह दुर्लभ स्वामी को प्राप्त कर लेता है।’ उपर्युक्त बातें कहकर इन्होंने उनसे पूछा-‘‘ये दुर्लभ स्वामी कौन है?’ ‘नाथं लभति दुल्लभं’- यह नाथ कौन है? क्या वह ईश्वर नहीं है?’’ डी0आर0एम0 महोदय ऊपर की मंजिल से ‘धम्मपद’ ले आये और अत्तवग्गो के इस सूत्र को देखने के बाद इनसे कहा कि मुझे पूरा ‘धम्मपद’ याद है, पर इस पर कभी ध्यान ही नहीं दिया। इतना ही नहीं, इन्होंने डी0आर0एम0 साहब के समक्ष ‘धम्मपद’ के ही जरावग्गो की इन पंक्तियों को उद्धृत किया-
गहकारक ! दिट्ठोसि पुन गेहं न काहसि ।
सब्बा ते फासुका भग्गा गहकूटं विसङ्खितं ।
विसङ्खारंगतं चित्तं तण्हानं खयमज्झगा ।।
अर्थात् हे गृह के निर्माण करनेवाले! मैंने तुम्हें देख लिया, तुम फिर घर नहीं बना सकते। तुम्हारी कडि़याँ सब टूट गयीं, गृह का शिखर गिर गया। चित्त संस्काररहित हो गया, तृष्णाओं का क्षय हो गया। उपर्युक्त पंक्तियों को उद्धृत करने के पश्चात् इन्होंने पूछा-‘यह गृहनिर्माणकर्ता कौन है?’ डी0आर0एम0 महोदय-द्वारा यह कहे जाने पर कि वह तृष्णा है इन्होंने पुनः पूछा-‘गृहनिर्माण के बाद तृष्णा हुई कि पहले?’ डी0आर0एम0 महोदय जरावग्गो को उलटकर बोले कि यह भी ईश्वर की ओर संकेत करता है।
समन्वय-साधना के जीवन्त प्रतीक:
ये संतों की समन्वय-साधना के जीवन्त प्रतीक हैं। अपने गुरुदेव की तरह ये भी ‘सार-सार को गहि लियो, थोथा दियो उड़ाय’ के पक्षधर हैं। किसी भी जाति-धर्म या मजहब के लिए इनके मन में विद्वेष नहीं है। ये सबके बीच एकता के सूत्र का प्रतिपादन करते हैं। इन्होंने भारत की महान सांस्कृतिक परम्परा के ज्ञान और परमाराध्य गुरुदेव के आशीर्वाद से मानवजीवन में समन्वय के सूत्र ढूँढ निकाले हैं। मानवजीवन का परम लक्ष्य यदि ‘आत्मानं विद्धि’ है, तो इसकी प्राप्ति का मार्ग, निस्संदेह एक ही हो सकता है, अनेक नहीं। सत्य की अभिव्यक्ति देश-काल और परिस्थिति के अनुकूल होने के कारण उनके बीच पार्थक्य दीखता है। परंतु यदि मोटी और बाहरी बातों को हटाकर देखा जाय, तो सबके बीच सत्य का आधार एक है। इन्होंने समन्वय के इसी सूत्र को मूल मंत्र माना है, जो इनकी ‘सर्वधर्म समन्वय’ नामक पुस्तक में पूर्णतः अभिव्यक्त हुआ है।
दर्शन और अध्यात्म के गहन अध्येता:
ये दर्शन और अध्यात्म के गहन अध्येता हैं। इन्होंने प्रायः पूर्वी और पश्चिमी सभी दार्शनिक विचारधाराओं का गहन अध्ययन किया है। कोई भी गूढ़ से गूढ़तर दर्शन या अध्यात्म के विषय हों, इन्होंने सबका अध्ययन कर उनके गूढ़ार्थ को खोला है। वैसे दार्शनिक और आध्यात्मिक विषय, जिनके लिए पूर्व के आचार्यों ने भ्रामक धारणाएँ फैला रखी थीं, इन्होंने अपने गहन अध्ययन और चिंतन के आधार पर उनका सूक्ष्म दार्शनिक विश्लेषण किया और उनके सही स्वरूप को सबके सामने रखा।
अपरिग्रही जीवन:
इन्होंने अपने गुरुदेव की तरह अपरिग्रही जीवन को अपनाया है। न्यूनतम सुविधाओं के बीच जीवनयापन इनकी दिनचर्या है। संग्रह की वृत्ति से ये सदा दूर रहते हैं। लाखों-लाख सत्संगियों के द्वारा चढ़ाए गए रुपये, उपहार आदि को ये निस्संग भाव से जरूरतमंदों के बीच वितरित करते रहे हैं। इनका यह अपरिग्रही जीवन हमें पूर्व के ऋषि-मुनियों की याद दिलाता है।
समदर्शिता:
इनके लिए सभी समान हैं। न कोई बड़ा है और न कोई छोटा, न कोई धनी है और न कोई गरीब, न कोई विप्र है और न कोई शूद्र। जो भी इनके पास आते हैं, सबके साथ ये समान व्यवहार करते हैं। राजनयिकों से लेकर एक अदना कर्मचारी, विश्वविद्यालयों के बड़े-बड़े आचार्यों से लेकर अनपढ़ और बड़े-बड़े सेठ-साहूकारों से लेकर निर्धन मजदूर तक इनसे समान आदर पाते हैं। ये समान रूप से इन सबका आतिथ्य भी स्वीकार करते हैं। इनके पास आनेवाले ये सभी व्यक्ति इनमें अपने प्रति असमान व्यवहार नहीं पाते। यह इनके व्यक्तित्व की समदर्शिता का परिचायक है।
वत्सलता:
इनमें वात्सल्य की पराकाष्ठा है। जीवमात्र के प्रति इनमें करुणा का भाव है। प्रत्येक मानव के कल्याण के लिए ही तो, ये आध्यात्मिकता का संदेश लेकर अपार कष्ट झेलकर भी सर्वत्र जाने को सदा प्रस्तुत रहते हैं। साथ-ही-साथ पशु-पक्षियों तथा क्षुद्र-से-क्षुद्र जीव-जंतुओं के प्रति भी इनके हृदय में करुणा का सागर लहराता रहता है। जीवमात्र के प्रति इनका यह करुणा का भाव ठीक वैसा ही है, जैसा कि किन्हीं माता-पिता के हृदय में अपनी संतान के प्रति होता है।
विनोदप्रियता:
ये विनोदी स्वभाव के हैं। नित्यप्रति के वार्तालाप में इनकी विनोदप्रियता झलक मारती रहती है। जब ये सत्संग-सभा में आध्यात्मिक प्रवचन करते होते हैं, उस समय भी ये विनोद की दो-चार बातें कर ही लेते हैं। इनसे सभा में उपस्थित जन को अध्यात्म का गंभीर, बोझिल वातावरण सहसा हल्का एवं आह्लादक महसूस होने लगता है।
लघुता में महत्ता:
इनका व्यक्तित्व ‘लघुता में महत्ता’ का अप्रतिम उदाहरण है। इन्होंने सदा स्वयं को लघु ही दर्शाया है, परंतु इनके अनुयायियों ने इनकी उस लघुता में ही महत्ता के दर्शन किए हैं। इनकी यह लघुता भारतीय संस्कृति की गौरवमयी परंपरा के अनुरूप है। एक घटना से इनकी यह लघुता स्पष्ट रूप से हमारे सामने आती है। ‘महर्षि मेँहीँ-जन्मशती-अभिनंदन-ग्रंथ’ के संपादन के क्रम में, इन्होंने प्रधान संपादक की हैसियत से ‘निवेदन’ शीर्षक के अंतर्गत लिखा है, ‘òष्टा ने सृष्टि-सर्जन में गुण-दोषों का अद्भुत मिश्रण किया है। प्रस्तुत ग्रंथ भी विधि के इस विधान का अपवाद नहीं है। अध्येतागण हंस बन अवगुण-वारि का परिहार कर गुण-पय को स्वीकार करें। साथ का और दोष को मेरा मानकर उन्हें धन्यवाद दें तथा मुझे क्षमा करें।’ इस तरह इनकी इस लघुता में भी हमें इनकी महानता के दर्शन स्वतः ही हो जाते हैं।