ईश्वर में प्रेम | सदा ईश्वर में प्रेम रखो | सत्संग भजन करते रहो इसी में कल्याण है | Maharshi Mehi | Santmat Satsang | यहाँ सब कोई मुसाफिर हैं, फिर भी कहते हैं कि मेरा घर है।

ईश्वर में प्रेम 
प्यारे लोगो! 
संतों की वाणी में दीनता, प्रेम, वैराग्य, योग भरे हुए हैं। इसे जानने से, पढ़ने से मन में वैसे ही विचार भर जाते हैं। तभी निर्विकारता, विरक्ति आती है। इसलिए संतवाणी का पाठ अवश्य करना चाहिए। देखिए हमारी कैसी दशा है, हम अपने समय को फजूल बिताते हैं। अपने समय को फजूल नहीं बिताना चाहिए। जो समय निर्दिष्ट नहीं रखते वे भजन नहीं कर सकते हैं। जो नियम पूर्वक साधन नहीं करते और संयम से नहीं रहते वे भजन नहीं कर सकते हैं। पहले योग्य बनो तब अभिलाषा करो। केवल अभिलाषा से क्या  होता है। भजन करने की अभिलाषा यह है अपने को संयमित करना, ईश्वर प्रेमी बनना और विकारों से बचते रहना। लोभ- लालच परहेजगारी है। परहेज के बिना भजन में उन्नति नहीं हो सकती। योग्यता विहीन रहते हुए कोई भजन नहीं कर सकता है। संत कबीर साहब का वचन है- 

मोरे जियरा बडा अन्देसवा, मुसाफिर जैहौ कौनी ओर।।
मोह का  शहर  कहर नर  नारी, दुइ  फाटक  घनघोर।
कुमती नायक फाटक रोके, परिहौ  कठिन  झिंझोर।। 
संशय  नदी  अगाडी  बहती, विषम  धार  जल  जोर। 
क्या मनुवाँ तुम  गाफिल  सोवौ, इहवाँ मोर  न  तोर ।। 
निस दिन प्रीति करो साहेब से, नाहिंन कठिन कठोर। 
काम   दिवाना   क्रोध  है  राजा, बसैं  पचीसो  चोर ।। 
सत्त पुरुष इक बसैं पछिम दिसि तासों करो  निहोर । 
आवै  दरद  राह   तोहि  लावै, तब पैहो  निज  ओर ।। 
उलटि  पाछिलो   पैडो    पकडो, पसरा  मना बटोर। 
कहै कबीर  सुनो  भाइ  साधो, तब  पैहो  निज  ठौर ।। 

यहाँ सब कोई मुसाफिर हैं, फिर भी कहते हैं कि मेरा घर है। किसी को यह यकीन नहीं है कि मैं सदा नहीं रहूँगा। माया मुलुक को कौन चलावे संग न जात शरीर । हम किधर को जाएँगे, मालूम नहीं है। संत कबीर जी को बड़ी चिन्ता हो रही है कि संसार से जाना जरूर है। बहुत अन्देशे की बात है। लोग अपना मार्ग नहीं जानते कि कहाँ जाएँगे। यह संसार अज्ञानता का शहर है। इसमें दो जुल्मी फाटक है-एक पुरुष का देह है दूसरा स्त्री का देह है। स्त्री देह में आवे तो भी विकार, पुरुष देह में आवे तो भी विकार। यहाँ से जाने का विचार होता है तो कुबुद्धि उसको जाने नहीं देती। संसय में मत रहो, संसार से हटने (अनासक्त होने) की साधन करो। यहाँ गाफिल मत सोओ। यहाँ मेरा तुम्हारा कोई नहीं। सदा ईश्वर में प्रेम रखो। काम क्रोध लोभ और अहंकार बड़े कठिन कठोर हैं। यह सब शरीर के स्वभाव हैं। उनके वश जो रहते हैं, वे दुःख पाते हैं। जो साधु भजन करता है, उसकी वृत्ति प्रकाश में चली जाती है। उससे निहोरा करो। उस पुरुष का स्वभाव बाहर में बड़ा उत्तम होता है। वह बराबर भजन करता रहता है, जिससे उसका विकार दूर हो जाता है। उनको दया होगी और वे आपको सच्ची राह में लगा देगें। जो पुरुष सच्चा अभ्यासी हो, संयम-नियम से रहता हो उससे निवेदन करो। वह तुमको सही रास्ता पर चढ़ा देगा। उलटो अर्थात बहिर्मुख से अन्तर्मुख हो जाओ। नौ द्वारों से दसवें द्वार की ओर चलो, यह मकरतार है। आप जिस चेतन धारा से आए हैं वही आपका रास्ता है। वह चेतन धार ज्योति और शब्द रूप में है। अपने पसरे हुए मन को समेटो। सिमटाव होगा तो ऊर्ध्वगति होगी और ऊर्ध्वगति होने से अपने स्थान पर चले जाओगे। शब्द ही संसार का सार है। शब्द ही वह स्फोट है जिससे संसार बना है। सब बनावट कम्पनमय है। कम्प शब्दमय है। सृष्टि गतिशील, कम्पनमय है। जो उस शब्द को पकड़ता है वह सृष्टि के किनारे पर पहुँचता है। जिसके ऊपर सृष्टि नहीं है, वह परमात्मा है। मानसजप, मानसध्यान से दृष्टियोग करने की योग्यता होती है। दृष्टियोग से  शब्द मार्ग में चलने की योग्यता होती है। 
सद्गुरु वैद्य वचन विश्वासा।संयम यह न विषय की आशा । 
सद्गुरु वचन पर विश्वास करो, संयम से रहो सत्संग भजन करते रहो इसी में कल्याण है। 

🌼दान का महत्व🌼 Daan ka mahatva | एक बहुत प्रसिद्ध संत थे, जिन्होंने समाज कल्याण के लिए एक मिशन..... दान का स्वरूप दिखावा नहीं ....

🌼दान का महत्व🌼
एक बहुत प्रसिद्ध संत थे, जिन्होंने समाज कल्याण के लिए एक मिशन शुरू किया। जिसे आगे बढ़ाने के लिए उन्हें तन-मन-धन तीनों की ही आवश्यक्ता थी। इस कार्य में उनके शिष्यों ने तन-मन से भाग लिया और इन कार्य-कर्ताओं ने धन के लिए दानियों को खोजना शुरू किया।

एक दिन, एक शिष्य कलकत्ता पहुँचा। जहाँ उसने एक दानवीर सेठ का नाम सुना। यह जान कर उस शिष्य ने सोचा कि इन्हें गुरूजी से मिलवाना चाहिए, हो सकता है यह हमारे समाज कल्याण के कार्य में दान दे।

इस कारण शिष्य सेठ जी को गुरु जी से मिलवाने ले गए। गुरूजी से मिल कर सेठ जी ने कहा- हे महंत जी आपके इस समाज कल्याण में, मैं अपना योगदान देना चाहता हूँ, पर मेरी एक मंशा हैं जो आपको स्वीकार करनी होगी। आपके इस कार्य के लिए मैं भवन निर्माण करवाना चाहता हूँ और प्रत्येक कमरे के आगे मैं अपने परिजनों का नाम लिखवाना चाहता हूँ। इस हेतु मैं दान की राशि एवम् नामों की सूचि साथ लाया हूँ; और यह कह कर सेठ जी दान गुरु जी के सामने रख देते हैं।

गुरु जी थोड़े तीखे स्वर में दान वापस लौटा देते हैं; और अपने शिष्य को डाँटते हुए कहते हैं कि हे अज्ञानी तुम किसे साथ ले आये हो, ये तो अपनों के नाम का कब्रिस्तान बनाना चाहता है। इन्हें तो दान और मेरे मिशन दोनों का ही महत्व समझ नहीं आया है।

यह देख सेठ जी हैरान थे, क्यूंकि उन्हें इस तरह से दान लौटा देने वाले संत नहीं मिले थे। इस घटना से सेठ जी को दान का महत्व समझ आया कुछ दिनों बाद आश्रम आकार उन्होंने श्रध्दा पूर्वक हवन किया और निःस्वार्थ भाव से दान किया तब उन्हें जो आतंरिक सुख प्राप्त हुआ वो कभी पहले किसी भी दान से नहीं हुआ था।

Moral Of The Story:

दान का स्वरूप दिखावा नहीं होता जब तक निःस्वार्थ भाव से दान नहीं दिया जाता तब तक वह स्वीकार्य नहीं होता और दानी को आत्म-शांति अनुभव नहीं होती।

किसी की मदद करके भूल जाना ही दानी की पहचान है, जो इस कार्य को उपकार मानता है असल में वो दानी नहीं हैं ना उसे दान का अर्थ पता है।

महर्षि संतसेवी परमहंस का जीवन-चरित | PART-9 (वैश्विक चेतना | प्रत्युत्पन्नमतित्व | आतिथेयता | समाज-सुधारक | भ्रमणशीलता | सर्वज्ञता और अंतर्यामिता) Maharshi Santsevi Paramhans Jeevan-Charit

महर्षि संतसेवी परमहंस का जीवन-चरित | PART-9 
(वैश्विक चेतना | प्रत्युत्पन्नमतित्व | आतिथेयता | समाज-सुधारक | भ्रमणशीलता | सर्वज्ञता और अंतर्यामिता)

वैश्विक चेतना: 
इनकी चेतना वैश्विक रूप धारण किए हुए है। पश्चिमी देशों में भी संतों के ज्ञान के प्रचार-प्रसार हेतु ये कृतसंकल्प हैं। ये अपनी चेतना से वहाँ के कुछ लोगों को जाग्रत कर संतमत के प्रचार-प्रसार का दिशा-निर्देशन कर रहे हैं। इनकी चेतना विश्वकल्याण की भावना से परिपूरित है। 
प्रत्युत्पन्नमतित्व: 
इनमें प्रत्युत्पन्नमतित्व का गुण है। दैनिक वार्तालाप, विशेष अवसरों पर इनका यह गुण जगजाहिर होता है। एक बार की घटना है। नेपाल में ‘संतमत-सत्संग’ का आयोजन हुआ था। ये भी उस आयोजन में सम्मिलित हुए थे। सत्संग- समाप्ति के बाद, वहाँ के गणमान्य व्यक्तियों में से एक सज्जन ने मंच की कुर्सी पर गुरु महाराज की तस्वीर देखकर पूछा-‘आपलोग देवी-देवता की जगह गुरु की तस्वीर क्यों रखते हैं? यह बात हमारी समझ में नहीं आती।’ इन्होंने कहने की कृपा की-‘हमलोग भगवान को मानते हैं, इसलिए हमलोग भगवंत के भक्त हुए। अतः भगवंत की जो आज्ञा होगी, वह हमलोगों को माननी ही पड़ेगी।’ उस सज्जन ने जिज्ञासावश कहा-‘भगवन्त की क्या आज्ञा है?’ इन्होंने कहा- ‘भगवान श्रीराम ने शवरी के माध्यम से उपदेश दिया है कि ‘सातवँ सम मोहि मय जग देखा, मोतें संत अधिक करि लेखा’ अर्थात् सातवीं भक्ति है, समता-प्राप्ति और मेरे समान सबको देखना तथा मुझसे भी अधिक करके संत को मानना है। हमारे ही, गुण को मेरे मित्रों, सहयोगियों एवं विद्वानों गुरु महाराजजी संत हैं, इसलिए भगवंत के आज्ञानुसार उनको सबसे बढ़कर माना और उनकी तस्वीर को कुर्सी पर विराजमान किया है।’ 

आतिथेयता: 
इनके आतिथ्य-सत्कार-भाव से सभी अभिभूत रहते हैं। जो लोग भी आश्रम में आते हैं, ये उनकी सुख-सुविधा का पूरा ख्याल रखते हैं। ये उनकी छोटी-छोटी सुविधाओं पर भी ध्यान देते हैं। हरेक व्यक्ति को लगता है कि वह आश्रम का अतिथि नहीं, स्वयं महर्षि संतसेवी परमहंस का ही अतिथि है। 

समाज-सुधारक: 
ये एक सफल समाज-सुधारक हैं। नैतिक और स्वावलंबी जीवन के ये पक्षधर हैं। दैनिक जीवन में इनके साथ घटनेवाली हर घटना मानवमात्र को नैतिक जीवन के लिए प्रेरित करती रहती है। नैतिकता की स्थापना के लिए ये सतत प्रयत्नशील रहते हैं। एक बार की घटना है कि ये ट्रेन से यात्रा कर रहे थे। इनके सामनेवाली सीट पर एक सज्जन अपने पुत्र के साथ बैठे हुए थे। इन्हें साधुवेश में देखकर वे सज्जन इनसे विनम्रतापूर्वक बात करने लगे। बातचीत के क्रम में ही इन्होंने उनसे उनकी यात्रा का कारण पूछा। उक्त सज्जन ने बताया कि वे अपने लड़के का नाम विश्वविद्यालय में लिखवाने जा रहे हैं। इतना कहकर उन्होंने अपनी जेब से सिगरेट का पैकेट और माचिस निकाले। इन्होंने इस स्थिति को देखकर उनसे कहने की कृपा की-‘आपके पास तो पूर्णिमा और अमावस्या दोनों चीजें हैं।’ उक्त सज्जन ने कहा-‘महाराजजी! आपकी बात तो मेरी समझ में कुछ भी नहीं आयी कि आप क्या कह रहे हैं।’ फिर इन्होंने उनसे कहने की कृपा की-‘आप अपने लड़के का विश्वविद्यालय में नामांकन कराने जा रहे हैं, जिससे यह आगे पढ़-लिखकर कोई बड़ा आदमी बनेगा, तो इसका भविष्य उज्ज्वल होगा। दूसरी तरफ आप इसके सामने जो सिगरेट पीएँंगे और यह लड़का देखेगा, तो मन-ही-  मन सोचेगा, हमारे पिताजी बहुत पढ़े-लिखे आदमी हैं। इनकी समाज में अच्छी प्रतिष्ठा है। शायद सिगरेट कोई अच्छी चीज है, तब तो पिताजी इसे पी रहे हैं। जिससे आपकी देखा-देखी यह भी सिगरेट पीएगा। लड़के को पीने से यदि आप मना करेंगे या पीने के लिए पैसा नहीं देंगे, तो यह पैसे चुराकर सिगरेट खरीदेगा। यदि आप रोक लगाएँगे, तो घर के बदले यह दूसरी जगह से चोरी करके पैसा लाएगा। इस चौर्य कार्य में यदि पकड़ा गया, तो यह जेल में जाएगा, जिससे इसके भविष्य का जीवन अंधकारमय हो जाएगा। आपके पास पूर्णिमा और अमावस्या यानी प्रकाश और अंधकार दोनों हैं।’ इनकी विवेकभरी मार्मिक तथा हृदय को चुभनेवाली उपदेशात्मक बात को सुनकर उक्त महाशय ने गाड़ी की खिड़की से सिगरेट तथा माचिस का डिब्बा फेंकते हुए संकल्प किया कि लीजिए, अब मैं आज से सिगरेट कभी भी मुँह में नहीं लगाऊँगा। इस तरह की अनेकानेक घटनाएँ नित्यप्रति इनके कहने पर घटती रहती हैं।

भ्रमणशीलता
इनके स्वभाव में भ्रमण के प्रति गहरी रुचि है। देश-देशान्तर की यात्रा ये इसी उद्देश्य से करते हैं कि वहाँ के जनजीवन को समझें, वहाँ की परंपरा और संस्कृति को जानें। इससे इन्हें समन्वय के सूत्र ढूँढने में आसानी होती है। इनके भ्रमण में संतों के ज्ञान को जन-जन तक पहुँचाने की भावना मुख्य रूप से निहित है, जो इनके जीवन का महान लक्ष्य है। 

सर्वज्ञता और अंतर्यामिता
ये सर्वज्ञ हैं। इनकी दृष्टि अंतर्यामिता से युक्त है। इनकी दृष्टि में भूत, वर्तमान और भविष्य प्रत्यक्ष हैं। ऐसी अनेक घटनाएँ प्रकाश में आयी हैं, जिनसे इनकी सर्वज्ञता और अंतर्यामिता का पता चलता है। कुछ घटनाएँ प्रस्तुत अभिनंदन- ग्रंथ के संस्मरण-खण्ड में प्रकाशित हैं, जिनसे यह प्रमाणित होता है कि ये एक सिद्ध पुरुष हैं। निष्कर्षतः इनके जीवन और भव्य व्यक्तित्व की मनोरम झाँकी से यह ज्ञात होता है कि प्रारंभिक जीवनकाल से ही इनमें बुद्धि की कुशाग्रता, हृदय की विशालता, निर्लोभिता, दानशीलता और सात्त्विकता के गुण रहे हैं। बाल्यकाल से ही ये संवेदनशील रहे हैं। आध्यात्मिकता इनमें इसी समय से परिलक्षित होती हैं। इनका अध्ययन-क्षेत्र काफी व्यापक है। फलतः इनमें शास्त्रीय गरिमा आ पायी है तथा समन्वयवादी चेतना का विकास हुआ है। यही कारण है कि विश्व-वाङ्मय की व्यापक पृष्ठभूमि पर ये ‘संतमत’ का विवेचन-विश्लेषण प्रस्तुत करने में सक्षम हैं। 
परमाराध्य ब्रह्मलीन संत मेँहीँ परमहंस के साथ भ्रमण के क्रम में भारतीय समाज के अनेकानेक महान पुरुषों के सान्निध्य का लाभ भी इन्हें मिला है। उनके साथ विचारों के आदान-प्रदान से भी इनका व्यक्तित्व निखरा है। इनके व्यक्तित्व में सत्य, अहिंसा और मानव-कल्याण की भावना कूट-कूटकर भरी है। यह इनमें प्रायः गाँधीवादी युग की देन है। पर इनके व्यक्तित्व के पूर्ण निखार में परमाराध्य गुरुदेव संत मेँहीँ परमहंस की महती कृपा ही सर्वोपरि है। इनके पूर्ण निखरे हुए व्यक्तित्व का ही यह चुंबकीय प्रभाव है कि जब जालंधर में ये ‘संतमत-सत्संग’ के प्रचार- प्रसार-हेतु गए हुए थे, तो वहाँ कुछ लोगों ने इनसे कहा कि आपके ‘पटना साहब’ का प्रवचन हमलोगों ने पढ़ा है। गुरु गोविंद सिंहजी महाराज का जन्म पटना में हुआ था। वे जब पंजाब आए, तो यहाँ के लोगों ने उन्हें जाने नहीं दिया। हमलोग भी आपको बिहार वापस नहीं जाने देंगे। परमाराध्य संत मेँहीँ परमहंस ने अपनी कृपा का महत् फल अपने ‘अखिल भारतीय संतमत-सत्संग’ के उत्तराधिकारी महर्षि संतसेवी परमहंसजी महाराज के रूप में हमें सौंपा है। वस्तुतः परमाराध्य ब्रह्मलीन संत मेँहीँ परमहंस बिंब हैं और महर्षि संतसेवी परमहंसजी महाराज उनके प्रतिबिंब हैं।

महर्षि संतसेवी परमहंस का जीवन-चरित | PART-8 (मेधा का चरमोत्कर्ष | प्रज्ञा-पुरुष | समन्वय-साधना के जीवन्त प्रतीक | दर्शन और अध्यात्म के गहन अध्येता | अपरिग्रही जीवन | समदर्शिता | वत्सलता | विनोदप्रियता | लघुता में महत्ता) Maharshi Santsevi Paramhans Jeevan-Charit

महर्षि संतसेवी परमहंस का जीवन-चरित | PART-8 
(मेधा का चरमोत्कर्ष | प्रज्ञा-पुरुष | समन्वय-साधना के जीवन्त प्रतीक | दर्शन और अध्यात्म के गहन अध्येता | अपरिग्रही जीवन | समदर्शिता | वत्सलता | विनोदप्रियता | लघुता में महत्ता) 

मेधा का चरमोत्कर्ष: 
इनमें विलक्षण मेधा-शक्ति के दर्शन होते हैं। एक बार की घटना है कि ये पटना चिकित्सा महाविद्यालय के चिकित्सक डॉ0 शारदा प्रसाद सिंहजी के साथ नालंदा की यात्रा पर थे। वहाँ इनकी मुलाकात नवनालंदा बौद्ध विहार के निदेशक भिक्षु जगदीश काश्यपजी से हुई वार्तालाप के क्रम में भिक्षु काश्यपजी ने इनसे कहा कि मैंने भगवान की सेवा बीस हजार पृष्ठों में की है। उनके कहने का आशय यह था कि उन्होंने 20,000 पृष्ठों में ‘त्रिपिटक’ का अनुवाद किया है। इस पर इन्होंने उन्हें भगवान बुद्ध के ये वचन सुनाए- 

नत्थिझानं अपळजस्स पळानत्थि  अझायतो। 
यम्हि झानळच पळाच स वे निव्वाण संतिके।
इसे सुनकर भिक्षु जगदीश काश्यप ने इनसे कहा कि यह ठीक ही है, मैंने ध्यान से सेवा नहीं की है। डॉक्टर साहब ने पूछा-‘भिक्षुजी! इन्होंने क्या कहा, जो आपने स्वीकृति दे दी। हमलोग तो कुछ समझे ही नहीं।’ इस पर भिक्षु जगदीश काश्यप जी बोले-‘इनका कहना सत्य है। ज्ञान के बिना ध्यान नहीं और ध्यान के बिना ज्ञान नहीं। जो ज्ञान और ध्यान दोनों रखते हैं, वे निर्वाण के समीप हैं। मैंने ज्ञान से तो भगवान की सेवा की है, पर ध्यान से सेवा नहीं की है। इसलिए ये ध्यान से सेवा करने के लिए कह रहे हैं। यह ठीक बात है।’ फलतः भिक्षु जगदीश काश्यपजी ने कालांतर में ‘संतमत-सत्संग’ में योग-साधना की दीक्षा परमाराध्य संत सद्गुरु मेँहीँ परमहंस से प्राप्त की।

प्रज्ञा-पुरुष:
ये एक प्रज्ञावान पुरुष हैं, जिसका संकेत इस घटना से मिलता है। एक बार ये गुरुदेव के साथ लखनऊ-प्रवास पर थे। वहाँ ये लोग श्री गंगाचरणलाल डी0आर0एम0, लखनऊ रेलवे के यहाँ टिके हुए थे। गंगाचरणलालजी को संपूर्ण ‘धम्मपद’ कंठाग्र था और उन्होंने लंका जाकर बौद्ध धर्म की दीक्षा ली थी। एक रात परमाराध्य गुरुदेव ने गंगाचरणलालजी से पूछा-‘बौद्ध धर्म में ईश्वर के संबंध में क्या कहा गया है?’ गंगाचरणलालजी ने गुरुदेव से कहा-‘इसमें ईश्वर की मान्यता नहीं है।’ गुरुदेव ने पुनः उनसे पूछा- ‘क्या भगवान बुद्ध ने ईश्वर को माना है?’ इसपर उन्होंने कहा-‘कहाँ माना है?’ गुरुदेव ने महर्षि संतसेवीजी की ओर देखा। इन्होंने गंगाचरणलाल जी से कहा-भगवान बुद्ध ने ‘धम्मपद’ के अत्तवग्गो में कहा है- 

अत्ता हि अत्तनो नाथे को हि नाथो परो सिया। 
अत्तना  व  सुदंतेन  नाथं लभति    दुल्लभं । 
अर्थात् मनुष्य अपना स्वामी आप है, उसका दूसरा स्वामी और कौन हो सकता है, जो अपने को अच्छी तरह दमन कर लेता है, वह दुर्लभ स्वामी को प्राप्त कर लेता है।’ उपर्युक्त बातें कहकर इन्होंने उनसे पूछा-‘‘ये दुर्लभ स्वामी कौन है?’ ‘नाथं लभति दुल्लभं’- यह नाथ कौन है? क्या वह ईश्वर नहीं है?’’ डी0आर0एम0 महोदय ऊपर की मंजिल से ‘धम्मपद’ ले आये और अत्तवग्गो के इस सूत्र को देखने के बाद इनसे कहा कि मुझे पूरा ‘धम्मपद’ याद है, पर इस पर कभी ध्यान ही नहीं दिया। इतना ही नहीं, इन्होंने डी0आर0एम0 साहब के समक्ष ‘धम्मपद’ के ही जरावग्गो की इन पंक्तियों को उद्धृत किया- 
गहकारक ! दिट्ठोसि   पुन  गेहं   न  काहसि । 
सब्बा ते फासुका भग्गा गहकूटं विसङ्खितं । 
विसङ्खारंगतं चित्तं तण्हानं  खयमज्झगा ।।
अर्थात् हे गृह के निर्माण करनेवाले! मैंने तुम्हें देख लिया, तुम फिर घर नहीं बना सकते। तुम्हारी कडि़याँ सब टूट गयीं, गृह का शिखर गिर गया। चित्त संस्काररहित हो गया, तृष्णाओं का क्षय हो गया। उपर्युक्त पंक्तियों को उद्धृत करने के पश्चात् इन्होंने पूछा-‘यह गृहनिर्माणकर्ता कौन है?’ डी0आर0एम0 महोदय-द्वारा यह कहे जाने पर कि वह तृष्णा है इन्होंने पुनः पूछा-‘गृहनिर्माण के बाद तृष्णा हुई कि पहले?’ डी0आर0एम0 महोदय जरावग्गो को उलटकर बोले कि यह भी ईश्वर की ओर संकेत करता है।

समन्वय-साधना के जीवन्त प्रतीक: 
ये संतों की समन्वय-साधना के जीवन्त प्रतीक हैं। अपने गुरुदेव की तरह ये भी ‘सार-सार को गहि लियो, थोथा दियो उड़ाय’ के पक्षधर हैं। किसी भी जाति-धर्म या मजहब के लिए इनके मन में विद्वेष नहीं है। ये सबके बीच एकता के सूत्र का प्रतिपादन करते हैं। इन्होंने भारत की महान सांस्कृतिक परम्परा के ज्ञान और परमाराध्य गुरुदेव के आशीर्वाद से मानवजीवन में समन्वय के सूत्र ढूँढ निकाले हैं। मानवजीवन का परम लक्ष्य यदि ‘आत्मानं विद्धि’ है, तो इसकी प्राप्ति का मार्ग, निस्संदेह एक ही हो सकता है, अनेक नहीं। सत्य की अभिव्यक्ति देश-काल और परिस्थिति के अनुकूल होने के कारण उनके बीच पार्थक्य दीखता है। परंतु यदि मोटी और बाहरी बातों को हटाकर देखा जाय, तो सबके बीच सत्य का आधार एक है। इन्होंने समन्वय के इसी सूत्र को मूल मंत्र माना है, जो इनकी ‘सर्वधर्म समन्वय’ नामक पुस्तक में पूर्णतः अभिव्यक्त हुआ है। 

दर्शन और अध्यात्म के गहन अध्येता: 
ये दर्शन और अध्यात्म के गहन अध्येता हैं। इन्होंने प्रायः पूर्वी और पश्चिमी सभी दार्शनिक विचारधाराओं का गहन अध्ययन किया है। कोई भी गूढ़ से गूढ़तर दर्शन या अध्यात्म के विषय हों, इन्होंने सबका अध्ययन कर उनके गूढ़ार्थ को खोला है। वैसे दार्शनिक और आध्यात्मिक विषय, जिनके लिए पूर्व के आचार्यों ने भ्रामक धारणाएँ फैला रखी थीं, इन्होंने अपने गहन अध्ययन और चिंतन के आधार पर उनका सूक्ष्म दार्शनिक विश्लेषण किया और उनके सही स्वरूप को सबके सामने रखा। 

अपरिग्रही जीवन:
इन्होंने अपने गुरुदेव की तरह अपरिग्रही जीवन को अपनाया है। न्यूनतम सुविधाओं के बीच जीवनयापन इनकी दिनचर्या है। संग्रह की वृत्ति से ये सदा दूर रहते हैं। लाखों-लाख सत्संगियों के द्वारा चढ़ाए गए रुपये, उपहार आदि को ये निस्संग भाव से जरूरतमंदों के बीच वितरित करते रहे हैं। इनका यह अपरिग्रही जीवन हमें पूर्व के ऋषि-मुनियों की याद दिलाता है। 

समदर्शिता: 
इनके लिए सभी समान हैं। न कोई बड़ा है और न कोई छोटा, न कोई धनी है और न कोई गरीब, न कोई विप्र है और न कोई शूद्र। जो भी इनके पास आते हैं, सबके साथ ये समान व्यवहार करते हैं। राजनयिकों से लेकर एक अदना कर्मचारी, विश्वविद्यालयों के बड़े-बड़े आचार्यों से लेकर अनपढ़ और बड़े-बड़े सेठ-साहूकारों से लेकर निर्धन मजदूर तक इनसे समान आदर पाते हैं। ये समान रूप से इन सबका आतिथ्य भी स्वीकार करते हैं। इनके पास आनेवाले ये सभी व्यक्ति इनमें अपने प्रति असमान व्यवहार नहीं पाते। यह इनके व्यक्तित्व की समदर्शिता का परिचायक है।

वत्सलता: 
इनमें वात्सल्य की पराकाष्ठा है। जीवमात्र के प्रति इनमें करुणा का भाव है। प्रत्येक मानव के कल्याण के लिए ही तो, ये आध्यात्मिकता का संदेश लेकर अपार कष्ट झेलकर भी सर्वत्र जाने को सदा प्रस्तुत रहते हैं। साथ-ही-साथ पशु-पक्षियों तथा क्षुद्र-से-क्षुद्र जीव-जंतुओं के प्रति भी इनके हृदय में करुणा का सागर लहराता रहता है। जीवमात्र के प्रति इनका यह करुणा का भाव ठीक वैसा ही है, जैसा कि किन्हीं माता-पिता के हृदय में अपनी संतान के प्रति होता है। 

विनोदप्रियता: 
ये विनोदी स्वभाव के हैं। नित्यप्रति के वार्तालाप में इनकी विनोदप्रियता झलक मारती रहती है। जब ये सत्संग-सभा में आध्यात्मिक प्रवचन करते होते हैं, उस समय भी ये विनोद की दो-चार बातें कर ही लेते हैं। इनसे सभा में उपस्थित जन को अध्यात्म का गंभीर, बोझिल वातावरण सहसा हल्का एवं आह्लादक महसूस होने लगता है।

लघुता में महत्ता: 
इनका व्यक्तित्व ‘लघुता में महत्ता’ का अप्रतिम उदाहरण है। इन्होंने सदा स्वयं को लघु ही दर्शाया है, परंतु इनके अनुयायियों ने इनकी उस लघुता में ही महत्ता के दर्शन किए हैं। इनकी यह लघुता भारतीय संस्कृति की गौरवमयी परंपरा के अनुरूप है। एक घटना से इनकी यह लघुता स्पष्ट रूप से हमारे सामने आती है। ‘महर्षि मेँहीँ-जन्मशती-अभिनंदन-ग्रंथ’ के संपादन के क्रम में, इन्होंने प्रधान संपादक की हैसियत से ‘निवेदन’ शीर्षक के अंतर्गत लिखा है, ‘òष्टा ने सृष्टि-सर्जन में गुण-दोषों का अद्भुत मिश्रण किया है। प्रस्तुत ग्रंथ भी विधि के इस विधान का अपवाद नहीं है। अध्येतागण हंस बन अवगुण-वारि का परिहार कर गुण-पय को स्वीकार करें। साथ का और दोष को मेरा मानकर उन्हें धन्यवाद दें तथा मुझे क्षमा करें।’ इस तरह इनकी इस लघुता में भी हमें इनकी महानता के दर्शन स्वतः ही हो जाते हैं।

महर्षि संतसेवी परमहंस का जीवन-चरित | PART-7 (संतमत-सत्संग’ का व्यापक विस्तार | भाषा-प्रेम | सुलेखन-कला | वाणी का वैभव | काव्यात्मक चेतना | विलक्षण स्मृति) Maharshi Santsevi Paramhans Jeevan-Charit

महर्षि संतसेवी परमहंस का जीवन-चरित | PART-7 
(संतमत-सत्संग’ का व्यापक विस्तार | भाषा-प्रेम | सुलेखन-कला | वाणी का वैभव | काव्यात्मक चेतना | विलक्षण स्मृति) 

‘संतमत-सत्संग’ का व्यापक विस्तार:
‘संतमत-सत्संग’ के उत्तराधिकारी और वर्तमान आचार्य होने के कारण महर्षि संतसेवी परमहंस का कार्यभार बढ़ा। ये ‘संतमत-सत्संग’ के प्रचार-प्रसार-हेतु अहर्निश प्रयत्नशील रहने लगे। परमाराध्य ब्रह्मलीन संत मेँहीँ परमहंस के विराट् व्यक्तित्व के अनुरूप महर्षि मेँहीँ आश्रम, भागलपुर में उनके समाधि-मंदिर की इन्होंने रूप-रेखा तैयार करवायी और उसके निर्माण-कार्य को नेतृत्व महर्षि संतसेवी -ज्ञान-गंगा प्रदान किया। इन्होंने ‘संतमत-सत्संग’ के व्यापक प्रचार-  प्रसार-हेतु अपने भक्तों  और अनुयायियों के साथ देश के विभिन्न भागों की यात्राएँ आरंभ कीं-स्थगित वार्षिक महाधिवेशनों की शुरुआत करवायी। इस क्रम में इन्होंने उत्तरप्रदेश, मध्यप्रदेश, दिल्ली, पंजाब, हरियाणा, राजस्थान, गुजरात, महाराष्ट्र, कर्नाटक, आंध्रप्रदेश, बंगाल आदि प्रांतों की सघन यात्राएँ कीं। इनकी इन यात्राओं से ‘संतमत-सत्संग’ में दीक्षितों और उसके अनुयायियों की संख्या बढ़ी और देश के विभिन्न प्रांतों में संतमत-सत्संग के मंदिर और आश्रमों का निर्माण भी हुआ। परमाराध्य गुरुदेव के पदर्चिोंं पर चलते हुए इन्होंने भी जगह-जगह विशेष ध्यान-शिविरों का आयोजन प्रारंभ करवाया। ऋषिकेश और राजस्थान के पुष्कर में संपन्न हुए विशेष ध्यान-शिविरों ने आम लोगों को संतमत की योग-साधना के प्रति आकृष्ट किया। मार्च 1996 ई0 में अखिल भारतीय संतमत-सत्संग के 86वें वार्षिक महाधिवेशन, ऋषिकेश में देश-विदेश के धर्माचार्यों, महामंडलेश्वरों एवं विद्वानों ने इनको ‘महर्षि परमहंस’ की उपाधि से विभूषित किया। इनके द्वारा दीक्षित शिष्यों की संख्या आज लाख से अधिक है और उत्तरोत्तर लोग इनसे दीक्षा लेकर सन्मार्ग पर अग्रसर हो रहे हैं। 

भव्य व्यक्तित्व की मनोरम झाँकी
वेश-भूषा: 
सुगठित छरहरा बदन, अद्भुत कांतियुक्त शांतिदायक मुखमंडल, बौद्धभिक्षु की याद दिलाता हुआ मुंडित सिर, शून्य में कुछ ढूँढते हुए-से सुदीप्त नेत्र, उन्नत ललाट, लंबी नाक, बड़े-बड़े कान, सत्पथ की ओर अग्रसर चरण और स्नेहाशीष के लिए सर्वदा उत्थित कर-कमल महर्षि संतसेवी परमहंस के व्यक्तित्व को प्रभावशाली बनाते हैं। ये सदा गैरिक वसन धारण करते हैं। कहीं चलते समय ये हाथ में एक छड़ी ले लेते हैं और पैरों में रबर की चप्पल अथवा कपड़े के जूते पहनते हैं। मौसम के अनुरूप ये खादी या ऊनी कपड़ों का व्यवहार करते हैं। धोती को ये आधा कमर में लपेटते हैं और आधी धोती कंधे पर डाल लेते हैं। ये पूरी बाँहों वाली गंजी और पूरी बाँह का कुरता पहनते हैं। शरदकाल में ये एक ऊनी स्वेटर पहनते हैं। उन दिनों ये कान तक ढँकनेवाली खादी कपड़े की गेरुए रंग में रंगी हुई टोपी पहनते हैं। इसके अतिरिक्त गेरुए रंग की चादर भी ओढ़ते हैं। 

भाषा-प्रेम: 
ये बहुभाषाविद् हैं। हिंदी, बांगला, मैथिली, अंगिका, माड़वाड़ी, फारसी, पंजाबी और अंग्रेजी भाषा के ये जानकार हैं। हिंदी भाषा के प्रति इनके मन में असीम अनुराग है। बचपन में इन्होंने व्यक्तिगत रूप से किसी मौलवी से कुछ दिनों तक फारसी भाषा पढ़ी थी। मैथिली तो इनकी मातृभाषा ही है। गुरुदेव के सान्निध्य में रहकर इन्होंने पंजाबी, बांगला और अंग्रेजी भाषा का विधिवत् ज्ञान प्राप्त किया है। भाषाओं के अनुरूप इन्हें देवनागरी, उर्दू, कैथी, गुरुमुखी, बांगला, रोमन लिपियों का भी अच्छा ज्ञान है। इनकी भाषा व्याकरणसम्मत होती है। तत्सम शब्दों की अधिकता लिए हुए इनकी भाषा भावों और विचारों को स्पष्टतः अभिव्यंजित करने की क्षमता रखती है। इनकी शब्द-योजना और वाक्य-संगठन मोहक हैं। इनकी भाषा में गजब का प्रवाह है। अनुप्रास इन्हें प्रिय है। उसे जुटाने में इन्हें प्रयास नहीं करना पड़ता। उसकी आकर्षक छटा इनकी भाषा में सर्वत्र छायी है। इनकी भाषा के अवलोकनार्थ इनका प्रकाशित साहित्य द्रष्टव्य है।
ये विभिन्न भाषाओं को इतने शुद्ध और स्वाभाविक रूप से बोलते हैं कि सुननेवालों को कभी विश्वास ही नहीं होता कि वे इनकी मातृभाषा नहीं हैं। एक बार ये ट्रेन से आ रहे थे। इनकी बगल में बैठे एक बांगलाभाषी सज्जन ने इनसे बांगला भाषा में बात-चीत शुरू की। ये भी बांगला में ही बोलने लगे। भाषा की शुद्धता और सहज उच्चारण देखकर, इन्हें उस बंगाली सज्जन ने बंगालवासी ही समझ लिया और आत्मीयतापूर्वक पारिवारिक सुख-दुःख की कथाएँ इन्हें कह सुनायीं। जब ये अगले स्टेशन पर उतरने लगे और वहाँ स्वागतार्थ आए व्यक्तियों से अंगिका भाषा में बोलने लगे, तो बंगाली महोदय को इनके बिहारी होने का भान हुआ। ग्रंथों के शुद्ध पाठ पर भी इनका विशेष ध्यान रहता है। यह भी इनके भाषा प्रेम का ही परिचालक है। एक छोटी-सी घटना से इनका यह भाषा-प्रेम उजागर होता है। एक बार परमाराध्य गुरुदेव सायंकालीन सत्संग में कुर्सी पर विराजमान थे। सत्संग में स्तुति-प्रार्थना के बाद गुरुदेव के आज्ञानुसार संतवाणियों का पाठ प्रारंभ हुआ। गुरुदेव ने अभेदानन्दजी से संत गुलाल साहब की वाणी- ‘उलटि देखो घट में जोति पसार।’ गाने को कहा। उन्होंने गाना आरंभ किया, पर गुरुदेव ने गाने से उन्हें रोक दिया। फिर एक अन्य आश्रमवासी को गाने के लिए कहा। दो शब्द गाने के बाद उन्हें भी रोक दिश। फिर गुरुदेव ने इन्हें गाने के लिए कहा। ये पूरा भजन गाए। आरती के बाद गुरुदेव ने उक्त दोनों सज्जनों से कहने की कृपा की- ‘‘उलटि’ के ‘ट’ में ह्रस्व ‘इ’ की मात्रा है, आप दोनों ने दीर्घकर के गाया था। इसलिए गाना बंद करवा दिया। संतसेवीजी ठीक से गाये। अब आपलोग भी ठीक से गाइएगा।’’ 

सुलेखन-कला :
इनकी लिखावट मोती के दानों की सजावट की भाँति होती है। इनमें यह कला बचपन से ही है। इनके सुलेख देखकर लोग आश्चर्यचकित हो जाते हैं। कभी-कभी तो लोग भ्रमवश उसे प्रेस का मुद्रित सामग्री ही समझ बैठते हैं। 

वाणी का वैभव: 
इनकी वाणी में चिंतन और मनन के धरातल पर जहाँ एक ओर तार्किक गुरु-गंभीरता है, वहीं दूसरी ओर स्वानुभूत सत्य की भावाभिव्यक्ति का आकर्षण है। इन दोनां के मणिकांचन संयोग से इनकी वाणी स्वतः ही वैभवयुक्त हो जाती है। इनकी ओजस्विनी वाणी में चुंबकीय आकर्षण है। दर्शन की वैचारिक पृष्ठभूमि और स्वानुभूत सत्य के निरूपण के फलस्वरूप स्वतः ही इनके शब्द-संयोजन में एक संगीत की सृष्टि हो जाती है। इनकी वाणी में आरोह और अवरोह के सृजन, शब्द और अर्थ के अनुरूप अनायास ही होते चलते हैं। इस तरह इनके सांगीतिक स्वर से विमुग्ध होकर श्रोता इनके वशीभूत हो जाते हैं। 

काव्यात्मक चेतना: 
इनकी चेतना मूलतः काव्यात्मक है। इन्हें एक कवि का हृदय मिला है। जीवन और जगत को देखने की इनकी दृष्टि एक कवि की है। संसार की असारता और परमात्मा की नित्यता के बीच ये एक लय की खोज में सतत संलग्न रहते हैं। जीवन और जगत के प्रति इनका यह लयात्मक भावबोध इन्हें स्वतः ही एक कवि के रूप में उपस्थित कर देता है, जिसका निदर्शन हमें इनके साहित्य और प्रवचनों में होता है। इनका संपूर्ण साहित्य हमें गद्य-गीत की याद दिलाता है। इन्होंने कुछ कविताओं की भी रचना की है। 

विलक्षण स्मृति:
इनकी स्मरण-शक्ति अप्रतिम है। बाल्यकाल इनकी लिखावट मोती के दानों की सजावट में पढ़े गये पाठ इन्हें आज भी याद हैं। कोई भी ग्रंथ या कोई भी पाठ, जिसे ये एक बार पढ़ या सुन लेते हैं, इन्हें उसकी स्मृति रहती है। यही कारण है कि विश्व-वांगमय में ज्ञात, जो भी साहित्य इन्होंने पढ़ा है, उन सबकी स्मृति इन्हें है। इनके प्रवचनों में इनके द्वारा दिए गए उद्धरणों से इस बात का पता चलता है।

महर्षि संतसेवी परमहंस का जीवन-चरित | PART-6 (यात्राएँ | विशेष व्यक्तियों से साहचर्य-संपर्क | परमाराध्य गुरुदेव का पुत्रवत् स्नेह | भावी उत्तराधिकार | आचार्यत्व का उत्तराधिकार) Maharshi Santsevi Paramhans Jeevan-Charit

महर्षि संतसेवी परमहंस का जीवन-चरित | PART-6 
(यात्राएँ | विशेष व्यक्तियों से साहचर्य-संपर्क | परमाराध्य गुरुदेव का पुत्रवत् स्नेह | भावी उत्तराधिकार | आचार्यत्व का उत्तराधिकार)      
यात्राएँ: 
इन्होंने गुरुदेव के साथ ‘संतमत-सत्संग’ के प्रचार-प्रसार-हेतु निरंतर यात्राएँ की हैं। महानगर से लेकर सुदूर देहात तक की यात्राओं में ये गुरुदेव के साथ रहे। इन यात्राओं में इन्होंने गुरुदेव की सेवा-सुश्रूषा में कोई कमी नहीं आने दी। उत्तर में कश्मीर से लेकर दक्षिण में महाराष्ट्र तक और पूरब में आसाम से लेकर पश्चिम में पंजाब तक की यात्राएँ इन्होंने की। अमृतसर के प्रसिद्ध दरबार साहब, आगरा के दयालबाग और स्वामी बाग, पुष्कर, ऋषिकेश, हरिद्वार, दिल्ली, राजगीर आदि में आयोजित विशेष सत्संग-सभाओं में ये गुरुदेव के साथ सम्मिलित रहे। सुदूर देहातों में, जहाँ आवागमन की सुविधा के नाम पर या तो पगडंडियाँ हैं या ऊबड़-खावड़ कच्ची सड़क, जिस पर बैलगाड़ी ही चल सकती है, ये गुरुदेव के साथ या तो पैदल चलते या फिर बैलगाड़ी पर। बैलगाड़ी के मध्य में सामान का गट्ठर लाद दिया जाता, गट्ठर के आगे गुरुदेव बैठा करते और पीछे की ओर ये बैठ जाते। इस तरह मीलों लंबी यात्राएँ तय की जातीं। यात्रा का एक प्रसंग है। ये गुरुदेव के साथ मोरंग (नेपाल) की यात्रा पर थे। गंतव्य स्थान तक पर पहुँचने के रास्ते में एक नदी पड़ती थी। स्नान-ध्यान का वक्त हो जाने की वजह से गुरुदेव के आदेश पर बैलगाड़ी नदी के किनारे ही खोल दी गयी। स्नान-ध्यान के बाद भोजन में पत्ते पर दही, चूड़ा और चीनी रखी गयी। इतने में जोरों से हवा चलने लगी और बालू के कण आकर भोजन में मिल गये। इन्होंने गुरुदेव के साथ बालू मिले भोजन को ही ग्रहण किया।

विशेष व्यक्तियों से साहचर्य-संपर्क :
ये अपने जीवन में विभिन्न विशेष व्यक्तियों के साहचर्य-संपर्क में आये। ऐसे व्यक्तियों में प्रमुख रूप से उल्लेख्य हैं-श्रीभूपेन्द्रनाथ सान्याल, श्रीजैन मुनि धनराज, श्रीजयदयालजी गोयन्दका, श्रीस्वामी रामसुख दासजी, आचार्य विनोवा भावे, आचार्य सुशील मुनि, श्रीप्रमुख स्वामीजी, बौद्ध भिक्षु जगदीश काश्यपजी, स्वामी हरिनारायण, श्रीआशाराम बापू, श्रीमोरारी बाबू, महर्षि महेश योगी, स्वामी सत्यानंद, महापंडित राहुल सांकृत्यायन, फादर कामिल बुल्के, पंडित परशुराम चतुर्वेदी आदि। इनके साहचर्य-संपर्क से ये विभिन्न नैतिक मूल्यों, अनेक प्रकार के सिद्धांतों और विविध जीवन-मान्यताओं से परिचित हुए। इनके परिप्रेक्ष्य में इन्हें ‘संतमत-सत्संग’ की विशिष्टता को समझने का मौका मिला। 

परमाराध्य गुरुदेव का पुत्रवत् स्नेह:
एक बार की घटना है। एक रात इन्होंने स्वप्न में देखा कि इनका शरीर श्मशान में मृत पड़ा हुआ है, जिसे दो गिद्ध नोंच-नोंच कर खा रहे हैं। ब्राह्ममुहूर्त्त में जब इनकी नींद टूटी, तो ये गुरुदेव को प्रणाम करने गए। उन्होंने इन्हें देखकर कहा-‘देखिए तो, मेरी चौकी के नीचे दो गिद्ध भी हैं?’ इन्होंने चौकी के नीचे देखकर कहा-‘हुजूर! गिद्ध तो नहीं हैं।’ गुरुदेव ने इनसे कहा-‘अच्छा, काल था, चला गया।’ ये परमाराध्य गुरुदेव के साथ कुप्पाघाट-आश्रम में प्रातःकालीन भ्रमण हेतु चले गये। इस भ्रमण के क्रम में ही अचानक एक कौआ ने इनके माथे पर झपट्टा मारना चाहा। वह कौआ क्रोध में इनकी ओर बढ़ा। परमाराध्य गुरुदेव ने ठीक उसी समय अपने आप बोलने की कृपा की- ‘भाग रे दुष्ट, भाग, पिता के रहते पुत्र को ले जाएगा? कदापि नहीं।’ ऐसी ही एक और घटना 1982 ई0 में घटी थी। दिनांक 29 दिसंबर की रात बीत चुकी थी। पौने तीन बजे का समय था। ये सोकर उठने ही वाले थे कि एकाएक इन्हें झपकी आयी और ये स्वप्न देखने लगे। इन्होंने देखा कि किसी नदी के किनारे सत्संग का विशाल आयोजन है। यत्र-तत्र के बहुत लोग वहाँ एकत्र हैं। वहाँ बहुत बड़ा पंडाल बनाया गया है। लोग पंडाल में और उसके बाहर इधर-उधर घूम रहे हैं। प्रातःकाल का सत्संग समाप्त हो चुका है। स्नान का समय होने के कारण जहाँ-तहाँ लोग स्नान भी कर रहे हैं। प्रातःस्मरणीय परम पूज्य गुरुदेव के आदेशानुसार उनके साथ ये भी नदी में स्नान करने जाते हैं। परमाराध्य गुरुदेव की धोती, लंगोटी आदि इनके पास हैं। गुरुदेव को स्नान करने के लिए जाते देखकर चार-पाँच और सज्जन इनके साथ हो गये। सब-के-सब गुरुदेव के निकट ही एकसाथ स्नान करने लगे। ये भी गुरुदेव की ओर देखते हुए स्नान करने लगे। गुरुदेव दो डुबकियाँ लगाकर अपने ही हाथों अपनी देह मलने लगे कि एकाएक वे पानी के वेग से वहीं पानी में गिर गये। इन्होंने दौड़कर उनको पकड़ना चाहा, किंतु नदी की वेगवती धारा में ये उनको पकड़ नहीं पाये। थोड़ी देर तक ये उनको भँसते देखते रहे। इस तरह गुरुदेव को भँसते देखकर इनकी छाती फटी जाती थी, किंतु कोई चारा नहीं था। गुरुदेव पानी के नीचे होते-होते लापता हो गये। ये सत्संगियों के साथ पानी में डूबकी लगाकर उनको काफी देर तक ढूँढते रहे, किंतु फिर भी उनका पता नहीं चला। ये व्याकुल और अधीर होकर रोने लगे। व्याकुलता इनकी बढ़ती ही चली गयी। कोई अवलंब इन्हें नहीं दीख पड़ा। दशों दिशाएँ इन्हें शून्य प्रतीत होने लगीं। ये क्या करें? किधर जाएँ? इस तरह के अनेक प्रश्न इनके मन को झकझोरने लगे। इन्हें ऐसा प्रतीत होने लगा कि इनकी हृदय-गति रूक जाएगी। इनके स्वप्न की यह स्थिति बनी ही हुई थी कि महाकरुणाकर गुरुदेव अपने कमरे से इनका नाम लेकर पुकारने लगे। इनकी नींद टूटी-इनका स्वप्न भंग हुआ और ये परमदेव के निकट जाकर उनके चरणों पर नतमस्तक हुए। संयोगवश, उस समय वहाँ गुरुसेवी श्रीभगीरथजी तथा महर्षि मेँहीँ परमहंस-पुस्तकागार के संचालक श्रीकेदारजी भी उपस्थित थे। परम कृपालु गुरुदेव ने इनसे पूछने की कृपा की- ‘क्या आप स्वप्न देख रहे थे?’ इन्होंने हाथ जोड़कर कहा-‘जी हाँ, स्वप्न देख रहा था।’ पुनः गुरुदेव ने पूछने की कृपा की-क्या देख रहे थे?’ ये कहना ही चाह रहे थे कि गुरुदेव इनसे पूछने लगे-‘आपका क्या विचार है?’ इन्होंने दीन भाव में कहा-‘हुजूर, मेरा क्या विचार होगा। जो हुजूर का विचार होगा, वही होगा।’ पुनः गुरुदेव ने इनसे पूछने की कृपा की- ‘नहीं, नहीं, आपका क्या विचार है?’ ये भीतर से प्रकंपित थे। ये कुछ कहना ही चाह रहे कि गुरुदेव ने इनसे कहा-‘बाबू अमर सिंह के यहाँ चलना है।’ इन्होंने साहस बटोरकर गुरुदेव से पूछा-‘किसे-किसे वहाँ चलना है हुजूर।’ आराध्यदेव ने कहा-‘मेरे साथ आपको तो चलना ही है।’ गुरुदेव के साथ जाने के वचन सुनकर इनका हृदय शांत हुआ। उपर्युक्त घटनाओं से यह जाहिर होता है। कि परमाराध्य गुरुदेव इनको पुत्रवत् मानते थे और इनको भी गुरुदेव का वियोग सह्य नहीं था। जाग्रत को कौन कहे, स्वप्न में भी गुरुदेव इन्हें अपने से वियुक्त रखना नहीं चाहते थे। 

भावी उत्तराधिकार: 
ऐसे अनेक अवसर आये जब परमाराध्य गुरुदेव ने इन्हें अपने भावी उत्तराधिकारी के रूप में प्रस्तुत किया। गुरुदेव बराबर कहा करते कि संतसेवीजी और मुझमें ‘क्यू’ और ‘यू’ का-सा संबंध है। यानी जैसे जहाँ ‘क्यू’ रहता है, वहाँ ‘यू’ भी रहता है। उसी तरह जहाँ मैं रहूँगा, वहाँ संतसेवीजी रहेंगे। मेरे बिना इनको नहीं बनेगा और इनके बिना मुझको नहीं बनेगा। ऐसे अवसर भी आए जब उन्होंने कहा-‘अब विशेष क्या कहूँ? संतसेवीजी बहुत कह चुके, उनसे जो सुने हैं, सो कीजिए। संसार के काम में कोई त्रुटि नहीं आएगी। मुझमें और संतसेवीजी में कोई फर्क नहीं है। जो मैं हूँ, सो संतसेवीजी हैं।’ महर्षि मेँहीँ आश्रम, कुप्पाघाट के सत्संग- प्रशाल में सत्संग के दौरान एक बार ये किसी अत्यावश्यक कार्यवश मंच से नीचे गये। इनके रिक्त स्थान की ओर इशारा करते हुए परमाराध्य गुरुदेव ने सत्संगप्रेमियों को संबोधित करते हुए कहा, ‘अगर कोई इनकी तरह बेसी जानते हैं, तो आवें और जहाँ संतसेवीजी बैठे थे, वहाँ बैठ जाएँ-यह भी होने योग्य नहीं है। इसलिए कोई नहीं आते हैं।’ 

आचार्यत्व का उत्तराधिकार:
गुरुदेव की अनवरत सेवा में इनका समय व्यतीत हो रहा था। जीवन के उत्तरकाल में गुरुदेव की यात्राएँ बंद हो गई थीं। अतः उन दिनों गुरुदेव की सेवा ही इनका एकमात्र लक्ष्य रह गया था। गुरुदेव की दिनचर्या इनकी बन गयी थी। गुरुदेव की सतत सेवा में इनकी संलग्नता की भावना को उस वक्त झटका लगा, जब 8 जून, 1986 ई0 को परमाराध्य संत मेँहीँ परमहंस इस भौतिक काया का परित्याग कर महापरिनिर्वाण को प्राप्त हुए। इनकी स्थिति अनाथ बालक की तरह हो गयी। इनके साथ ही लक्ष-लक्ष सत्संगीजन भी गुरुदेव के वियोग से विकल हो उठे। सबकी आँसूभरी आँखें इन्हें खोज रही थीं; क्योंकि उनके अवलंब अब एकमात्र ये ही थे। गुरुदेव के साथ हमेशा छाया की तरह रहकर ये सत्संगी- समाज को धैर्य, ज्ञान और साहस का पाठ पढ़ाते रहते थे। आज उन सत्संगियों के सिसकते हृदय को इन्हीं में गुरुदेव की झाँकी मिल रही थी। परमाराध्य संत मेँहीँ परमहंस के अग्रगण्य शिष्य और योग्यतम उत्तराधिकारी होने के नाते इन्होंने लाखों सत्संगियों के बीच गुरुदेव की भौतिक काया चंदन की चिता को अर्पित की, जिसे चिता की लाल-लाल लपटों ने अपनी गोद में समेट लिया। संतमत-सत्संगियों के बीच अब ये ही ब्रह्मलीन संत मेँहीँ परमहंस के एकमात्र उत्तराधिकारी दिखायी पड़े, जिनमें भक्त-जन संत मेँहीँ परमहंस की आध्यात्मिक विभूति के दर्शन कर सकते थे। परम संत बाबा देवी साहब से जो संतमत का दाय संत मेँहीँ परमहंस को मिला था और जिसे अपने परम शिष्य महर्षि संतसेवी परमहंस को सौंपा था, उस दाय का संबल लेकर अब महर्षि संतसेवी परमहंस ही भक्तजनों के सामने थे। गुरुदेव की पंचभौतिक काया की दाहक्रिया के अवसर पर देश-विदेश से कुप्पाघाट आश्रम, भागलपुर में लाखों भक्त उपस्थित हुए थे। परमाराध्य ब्रह्मलीन संत मेँहीँ परमहंस के पार्थिव शरीर के दाह-संस्कार के उपरांत महर्षि संतसेवी परमहंस ने असंख्य दीन-दुखियों के बीच अन्न और वस्त्र बाँटे थे। इन्होंने अनगिनत भक्तों और श्रद्धालुओं को भोजन करवाया था। परमाराध्य ब्रह्मलीन सद्गुरु को अपनी-अपनी श्रद्धांजलि देने के उपरांत सभी भक्तों ने उत्तराधिकारी के रूप में महर्षि संतसेवी परमहंस की जय-जयकार की और इन्हें ‘गुरुदेव’ की संज्ञा से अभिहित किया। संप्रति ये ही ‘संतमत-सत्संग’ के वर्तमान उत्तराधिकारी के रूप में पूजनीय हैं। ये ही उसके वर्तमान आचार्य हैं।

महर्षि संतसेवी परमहंस का जीवन-चरित | PART-5 (शब्द-साधना की दीक्षा | संन्यास-वेश | सफल संदेशवाहक | श्रुतिलेखन | परमाराध्य गुरुदेव से मानसिक संलग्नता | दीक्षा-गुरु के पद की प्राप्ति | गुरुदेव की सतत सेवा | आध्यात्मिक और दार्शनिक लेखन | संपादकीय सहयोग) Maharshi Santsevi Paramhans Jeevan-Charit

महर्षि संतसेवी परमहंस का जीवन-चरित | PART-5 
(शब्द-साधना की दीक्षा | संन्यास-वेश | सफल संदेशवाहक | श्रुतिलेखन | परमाराध्य गुरुदेव से मानसिक संलग्नता | दीक्षा-गुरु के पद की प्राप्ति | गुरुदेव की सतत सेवा | आध्यात्मिक और दार्शनिक लेखन | संपादकीय सहयोग) 

शब्द-साधना की दीक्षा: 
गुरुदेव की सेवा करते हुए इनका ध्यानाभ्यास भी चलता रहा। अंततः ध्यानाभ्यास में इनकी संलग्नता और इनकी पराकाष्ठा की गुरु-भक्ति से प्रसन्न होकर गुरुदेव ने 2 जून, 1952 ई0 को इन्हें ‘संतमत’ की सर्वोच्च साधना-विधि ‘सुरत-शब्द योग’ की दीक्षा दी।
संन्यास-वेश: 
सन् 1957 ई0 में गुजरात प्रांत के अहमदाबाद नगर में ‘अखिल भारतीय साधुसमाज’ का सम्मेलन हो रहा था। पूर्णियाँ जिले की इस साधु-समाज-समिति के सदस्यों ने संत मेँहीँ परमहंस से उक्त सम्मेलन में सम्मिलित होने का आग्रह किया। लेकिन, किसी कारणवश वे उसमें जाने का समय नहीं निकाल सके। परमाराध्य गुरुदेव संत मेँहीँ परमहंस, श्रीश्रीधर बाबा के साथ इन्हें अपना प्रतिनिधि बनाकर भेजने के लिए सहमत हुए। ये श्वेत वस्त्र धारण करते थे। इसी अवसर पर 17 अक्टूबर, 1957 ई0 को गुरुदेव ने इनकी दाढ़ी-मूँछ और इनके सर के बालों का मुंडन करवाकर इन्हें गैरिक वस्त्र धारण कराया। ये गुजरात गये। ‘अखिल भारतीय साधुसमाज’ की सभा में इनका प्रवचन हुआ। इनके सारगर्भित आध्यात्मिक प्रवचन को सुनकर वहाँ के लोग मंत्रमुग्ध हो गए। 

सफल संदेशवाहक
गुरुदेव के सेवा-सान्निध्य में रहकर योग- साधना करते हुए इनका आधा दशक बीत गया। इस अवधि में ये सत्संग-सभाओं में केवल ग्रंथपाठ और गुरुदेव के प्रवचनों का श्रुति-लेखन करते अच्छी थी। गुरुदेव के सान्निध्य में वह और निखरी ही। पर अब गुरुदेव इनसे कभी-कभी सत्संग प्रारंभ करने को भी कहते। इसी दौरान इनकी मधुर आवाज और हिंदी भाषा के इनके उत्तम ज्ञान को देखते हुए सत्संगियों ने गुरुदेव से इन्हें भी प्रवचन करने की अनुमति देने की प्रार्थना की। अंततः गुरुदेव ने इन्हें नियमित रूप से प्रवचन करने की अनुमति दे दी और ये प्रवचन करने लगे। इन्हें प्रवचन करने की अनुमति देकर गुरुदेव ने मानो अपने एक सफल संदेशवाहक के रूप में इनका चयन कर लिया। गुजरात में संपन्न साधु-समाज सम्मेलन में हुए इनके गुरु-गंभीर प्रवचन ने इनकी जिस प्रतिभा को पहले ही सबके सामने ला दिया था, अब वह निरंतर निखरती गयी।

श्रुतिलेखन: 
परमाराध्य संत मेँहीँ परमहंस चार-चार घंटों तक अनवरत संतमत-संत्संगों में प्रवचन किया करते थे। उनके प्रवचनों को इन्होंने नियमित रूप से लेखनीबद्ध करना जारी रखा। संकेत-लिपि से परिचय नहीं होने के बावजूद भी इन्होंने देवनागरी लिपि में ही अतिशीघ्रतापूर्वक उन्हें पूरा-पूरा लिखा और बाद में ‘शांति-संदेश’ नाम की मासिक पत्रिका में ‘सत्संग-सुधा’ शीर्षक के अंतर्गत उनको प्रकाशित कराया। श्रुतिलेखन के क्रम में इन्होंने कभी भी परेशानी का अनुभव नहीं किया। ये सहज भाव से प्रवचनों को लिखते रहे। युग-युग तक विश्वमानवता को सन्मार्ग दिखानेवाला परमाराध्य संत मेँहीँ परमहंस के प्रवचनों को लिपिबद्ध कर उन्हें जन-जन तक पहुँचाने के इस स्तुत्य कार्य के लिए कोटि-कोटि जन इनके सदा ऋणी रहेंगे। 

परमाराध्य गुरुदेव से मानसिक संलग्नता
गुरुदेव के सान्निध्य में ये बहुपठित, बहुश्रुत, रहे। अध्यापनकाल से ही इनकी हिंदी भाषा काफी और श्रुतधर हो गये। गुरुदेव की अहैतुकी कृपा से इनके मस्तिष्क को अद्भुत ज्ञान-कोष कहने में कोई अत्युक्ति नहीं। सत्संग के समय यदि गुरुदेव महर्षि संतसेवी -ज्ञान-गंगा कहने में कुछ भूल जाते, तो वे इनकी ओर देखने लगते। वे जो कहने में भूल जाते, ये झट उन्हें कह देते। मानो जो वे कहना चाहते हों, ये पूर्व से ही जानते हों। तभी तो गुरुदेव प्रायः कहा करते, ‘महावीरजी मेरे मस्तिष्क हैं।’ 

दीक्षा-गुरु के पद की प्राप्ति:
शारीरिक रूप से अशक्त हो जाने पर गुरुदेव ने सन् 1970 ई0 में इन्हें अपनी दीक्षा-पुस्तिका सौंपते हुए आदेश दिया-‘लीजिए, आज से आप ही मेरे बदले दीक्षा दीजिए।’ इस प्रकार परमाराध्य गुरुदेव से इन्हें ‘संतमत’ की योग-साधना की दीक्षा देने का अधिकार प्राप्त हुआ। हालाँकि बहुत पहले से ही, कभी-कभी गुरुदेव की आज्ञा से ये दीक्षा लेनेवालों को दीक्षा दिया करते थे। 

गुरुदेव की सतत सेवा: 
इन्होंने जीवनपर्यंत गुरुदेव की सेवा की। इनकी अनन्य गुरुभक्ति एक आदर्श उपस्थित करती है। इन्होंने ‘आज्ञा सम न सुसाहिब सेवा’ की उक्ति को चरितार्थ किया। छोटे-से-छोटा काम भी ये गुरुदेव की अनुमति पाये बिना नहीं करते थे। मनसा-वाचा-कर्मणा इन्होंने अपने को उनके साथ जोड़े रखा। ये सदैव गुरुदेव के आय-व्यय का लेखा-जोखा रखते थे और उसे महीने के अन्त में उन्हें दिखा दिया करते थे। एक पैसे की गड़बड़ी होने पर भी पूरे महीने का हिसाब ये फिर से लिखकर दिखाया करते। हिसाब के अंत में गुरुदेव अपने दस्तखत कर दिया करते थे। गुरुदेव की अपूर्व विश्वसनीयता इन्हें प्राप्त थी। एक-दो दिनों के लिए भी किसी आवश्यक कार्यवश ये उनसे दूर हो जाते, तो गुरुदेव को इनकी अनुपस्थिति खलने लगती थी। कोई अन्य व्यक्ति इनके अभाव की पूर्ति करने में उन्हें सक्षम नहीं दीखते। गुरुदेव के जीवन के उत्तरकाल में ही जब उनकी सेवा में इनके अतिरिक्त और भी कुछ संन्यासी सेवक आये, फिर भी उनके सभी सेवा-कार्यों का सम्पादन इनके बिना सुचारु रूप से नहीं हो पाता था। इनकी आवश्यकता उनके सेवा-कार्यों में हो ही जाती। ब्राह्ममुहूर्त्त में  उठकर दतवन-आचमन कराना, सुबह-शाम हाथ-पाँव धुलाना, स्नान-भोजन कराना, नख काटना, उनके औषधि सेवन का ख्याल रखना, उनके नाम से आये पत्रों को उन्हें पढ़कर सुनाना और उनसे पूछकर उनके उत्तर देना-ये सारे सेवाकार्य इन्हीं के द्वारा संपादित होते थे। दशनार्थी, जिज्ञासु एवं अन्य जरूरतमंद व्यक्तियों को में ही गुरुदेव तक पहुँचाते। गुरु देव के दर्शनार्थ आये हुए अभ्यागतों के भोजन, आवास आदि की व्यवस्था भी यही करते थे। इन सारे कार्यां के लिए इनके समान कोई दूसरा व्यक्ति नहीं हो पाया। गुरुदेव की सेवा में सतत संलग्न रहने के कारण इन्होंने बहुलांश में उनके गुणों को आत्मसात कर लिया है। अतः परमाराध्य गुरुदेव इनमें प्रतिबिंबित होते रहते हैं। 
आध्यात्मिक और दार्शनिक लेखन: 
सन 1950 ई0 से ही ‘संतमत-सत्संग’ की मासिक पत्रिका ‘शांति-संदेश’ में विधिवत् आध्यात्मिक और दार्शनिक निबन्ध लिखते रहे। ये ही निबंध इनकी विभिन्न पुस्तकों के रूप में प्रकाशित हुए हैं। इनके लेखन में दार्शनिक गंभीर चिन्तन, आध्यात्मिक सुलझे विचार और साधनात्मक अनुभूति की झाँकी देखते बनती है।

संपादकीय सहयोग: 
गुरुदेव के प्रवचनों के संपादन के अतिरिक्त इन्होंने उनके द्वारा रचित ‘संतवाणी-सटीक’, ‘श्रीगीता-योग-प्रकाश’, ‘महर्षि मेँहीँ-पदावली’, ‘वेद-दर्शन-योग’, ‘सत्संग-सुधा’ तथा ‘ईश्वर का स्वरूप और उनकी प्राप्ति’ तथा ’ज्ञानयोगयुक्त ईश्वर-भक्ति’ के संपादन और प्रकाशन में सहयोग दिया है।

ईश्वर में प्रेम | सदा ईश्वर में प्रेम रखो | सत्संग भजन करते रहो इसी में कल्याण है | Maharshi Mehi | Santmat Satsang | यहाँ सब कोई मुसाफिर हैं, फिर भी कहते हैं कि मेरा घर है।

ईश्वर में प्रेम  प्यारे लोगो!  संतों की वाणी में दीनता, प्रेम, वैराग्य, योग भरे हुए हैं। इसे जानने से, पढ़ने से मन में वैसे ही विचार भर जाते...