महर्षि संतसेवी परमहंस का जीवन-चरित | PART-9 (वैश्विक चेतना | प्रत्युत्पन्नमतित्व | आतिथेयता | समाज-सुधारक | भ्रमणशीलता | सर्वज्ञता और अंतर्यामिता) Maharshi Santsevi Paramhans Jeevan-Charit

महर्षि संतसेवी परमहंस का जीवन-चरित | PART-9 
(वैश्विक चेतना | प्रत्युत्पन्नमतित्व | आतिथेयता | समाज-सुधारक | भ्रमणशीलता | सर्वज्ञता और अंतर्यामिता)

वैश्विक चेतना: 
इनकी चेतना वैश्विक रूप धारण किए हुए है। पश्चिमी देशों में भी संतों के ज्ञान के प्रचार-प्रसार हेतु ये कृतसंकल्प हैं। ये अपनी चेतना से वहाँ के कुछ लोगों को जाग्रत कर संतमत के प्रचार-प्रसार का दिशा-निर्देशन कर रहे हैं। इनकी चेतना विश्वकल्याण की भावना से परिपूरित है। 
प्रत्युत्पन्नमतित्व: 
इनमें प्रत्युत्पन्नमतित्व का गुण है। दैनिक वार्तालाप, विशेष अवसरों पर इनका यह गुण जगजाहिर होता है। एक बार की घटना है। नेपाल में ‘संतमत-सत्संग’ का आयोजन हुआ था। ये भी उस आयोजन में सम्मिलित हुए थे। सत्संग- समाप्ति के बाद, वहाँ के गणमान्य व्यक्तियों में से एक सज्जन ने मंच की कुर्सी पर गुरु महाराज की तस्वीर देखकर पूछा-‘आपलोग देवी-देवता की जगह गुरु की तस्वीर क्यों रखते हैं? यह बात हमारी समझ में नहीं आती।’ इन्होंने कहने की कृपा की-‘हमलोग भगवान को मानते हैं, इसलिए हमलोग भगवंत के भक्त हुए। अतः भगवंत की जो आज्ञा होगी, वह हमलोगों को माननी ही पड़ेगी।’ उस सज्जन ने जिज्ञासावश कहा-‘भगवन्त की क्या आज्ञा है?’ इन्होंने कहा- ‘भगवान श्रीराम ने शवरी के माध्यम से उपदेश दिया है कि ‘सातवँ सम मोहि मय जग देखा, मोतें संत अधिक करि लेखा’ अर्थात् सातवीं भक्ति है, समता-प्राप्ति और मेरे समान सबको देखना तथा मुझसे भी अधिक करके संत को मानना है। हमारे ही, गुण को मेरे मित्रों, सहयोगियों एवं विद्वानों गुरु महाराजजी संत हैं, इसलिए भगवंत के आज्ञानुसार उनको सबसे बढ़कर माना और उनकी तस्वीर को कुर्सी पर विराजमान किया है।’ 

आतिथेयता: 
इनके आतिथ्य-सत्कार-भाव से सभी अभिभूत रहते हैं। जो लोग भी आश्रम में आते हैं, ये उनकी सुख-सुविधा का पूरा ख्याल रखते हैं। ये उनकी छोटी-छोटी सुविधाओं पर भी ध्यान देते हैं। हरेक व्यक्ति को लगता है कि वह आश्रम का अतिथि नहीं, स्वयं महर्षि संतसेवी परमहंस का ही अतिथि है। 

समाज-सुधारक: 
ये एक सफल समाज-सुधारक हैं। नैतिक और स्वावलंबी जीवन के ये पक्षधर हैं। दैनिक जीवन में इनके साथ घटनेवाली हर घटना मानवमात्र को नैतिक जीवन के लिए प्रेरित करती रहती है। नैतिकता की स्थापना के लिए ये सतत प्रयत्नशील रहते हैं। एक बार की घटना है कि ये ट्रेन से यात्रा कर रहे थे। इनके सामनेवाली सीट पर एक सज्जन अपने पुत्र के साथ बैठे हुए थे। इन्हें साधुवेश में देखकर वे सज्जन इनसे विनम्रतापूर्वक बात करने लगे। बातचीत के क्रम में ही इन्होंने उनसे उनकी यात्रा का कारण पूछा। उक्त सज्जन ने बताया कि वे अपने लड़के का नाम विश्वविद्यालय में लिखवाने जा रहे हैं। इतना कहकर उन्होंने अपनी जेब से सिगरेट का पैकेट और माचिस निकाले। इन्होंने इस स्थिति को देखकर उनसे कहने की कृपा की-‘आपके पास तो पूर्णिमा और अमावस्या दोनों चीजें हैं।’ उक्त सज्जन ने कहा-‘महाराजजी! आपकी बात तो मेरी समझ में कुछ भी नहीं आयी कि आप क्या कह रहे हैं।’ फिर इन्होंने उनसे कहने की कृपा की-‘आप अपने लड़के का विश्वविद्यालय में नामांकन कराने जा रहे हैं, जिससे यह आगे पढ़-लिखकर कोई बड़ा आदमी बनेगा, तो इसका भविष्य उज्ज्वल होगा। दूसरी तरफ आप इसके सामने जो सिगरेट पीएँंगे और यह लड़का देखेगा, तो मन-ही-  मन सोचेगा, हमारे पिताजी बहुत पढ़े-लिखे आदमी हैं। इनकी समाज में अच्छी प्रतिष्ठा है। शायद सिगरेट कोई अच्छी चीज है, तब तो पिताजी इसे पी रहे हैं। जिससे आपकी देखा-देखी यह भी सिगरेट पीएगा। लड़के को पीने से यदि आप मना करेंगे या पीने के लिए पैसा नहीं देंगे, तो यह पैसे चुराकर सिगरेट खरीदेगा। यदि आप रोक लगाएँगे, तो घर के बदले यह दूसरी जगह से चोरी करके पैसा लाएगा। इस चौर्य कार्य में यदि पकड़ा गया, तो यह जेल में जाएगा, जिससे इसके भविष्य का जीवन अंधकारमय हो जाएगा। आपके पास पूर्णिमा और अमावस्या यानी प्रकाश और अंधकार दोनों हैं।’ इनकी विवेकभरी मार्मिक तथा हृदय को चुभनेवाली उपदेशात्मक बात को सुनकर उक्त महाशय ने गाड़ी की खिड़की से सिगरेट तथा माचिस का डिब्बा फेंकते हुए संकल्प किया कि लीजिए, अब मैं आज से सिगरेट कभी भी मुँह में नहीं लगाऊँगा। इस तरह की अनेकानेक घटनाएँ नित्यप्रति इनके कहने पर घटती रहती हैं।

भ्रमणशीलता
इनके स्वभाव में भ्रमण के प्रति गहरी रुचि है। देश-देशान्तर की यात्रा ये इसी उद्देश्य से करते हैं कि वहाँ के जनजीवन को समझें, वहाँ की परंपरा और संस्कृति को जानें। इससे इन्हें समन्वय के सूत्र ढूँढने में आसानी होती है। इनके भ्रमण में संतों के ज्ञान को जन-जन तक पहुँचाने की भावना मुख्य रूप से निहित है, जो इनके जीवन का महान लक्ष्य है। 

सर्वज्ञता और अंतर्यामिता
ये सर्वज्ञ हैं। इनकी दृष्टि अंतर्यामिता से युक्त है। इनकी दृष्टि में भूत, वर्तमान और भविष्य प्रत्यक्ष हैं। ऐसी अनेक घटनाएँ प्रकाश में आयी हैं, जिनसे इनकी सर्वज्ञता और अंतर्यामिता का पता चलता है। कुछ घटनाएँ प्रस्तुत अभिनंदन- ग्रंथ के संस्मरण-खण्ड में प्रकाशित हैं, जिनसे यह प्रमाणित होता है कि ये एक सिद्ध पुरुष हैं। निष्कर्षतः इनके जीवन और भव्य व्यक्तित्व की मनोरम झाँकी से यह ज्ञात होता है कि प्रारंभिक जीवनकाल से ही इनमें बुद्धि की कुशाग्रता, हृदय की विशालता, निर्लोभिता, दानशीलता और सात्त्विकता के गुण रहे हैं। बाल्यकाल से ही ये संवेदनशील रहे हैं। आध्यात्मिकता इनमें इसी समय से परिलक्षित होती हैं। इनका अध्ययन-क्षेत्र काफी व्यापक है। फलतः इनमें शास्त्रीय गरिमा आ पायी है तथा समन्वयवादी चेतना का विकास हुआ है। यही कारण है कि विश्व-वाङ्मय की व्यापक पृष्ठभूमि पर ये ‘संतमत’ का विवेचन-विश्लेषण प्रस्तुत करने में सक्षम हैं। 
परमाराध्य ब्रह्मलीन संत मेँहीँ परमहंस के साथ भ्रमण के क्रम में भारतीय समाज के अनेकानेक महान पुरुषों के सान्निध्य का लाभ भी इन्हें मिला है। उनके साथ विचारों के आदान-प्रदान से भी इनका व्यक्तित्व निखरा है। इनके व्यक्तित्व में सत्य, अहिंसा और मानव-कल्याण की भावना कूट-कूटकर भरी है। यह इनमें प्रायः गाँधीवादी युग की देन है। पर इनके व्यक्तित्व के पूर्ण निखार में परमाराध्य गुरुदेव संत मेँहीँ परमहंस की महती कृपा ही सर्वोपरि है। इनके पूर्ण निखरे हुए व्यक्तित्व का ही यह चुंबकीय प्रभाव है कि जब जालंधर में ये ‘संतमत-सत्संग’ के प्रचार- प्रसार-हेतु गए हुए थे, तो वहाँ कुछ लोगों ने इनसे कहा कि आपके ‘पटना साहब’ का प्रवचन हमलोगों ने पढ़ा है। गुरु गोविंद सिंहजी महाराज का जन्म पटना में हुआ था। वे जब पंजाब आए, तो यहाँ के लोगों ने उन्हें जाने नहीं दिया। हमलोग भी आपको बिहार वापस नहीं जाने देंगे। परमाराध्य संत मेँहीँ परमहंस ने अपनी कृपा का महत् फल अपने ‘अखिल भारतीय संतमत-सत्संग’ के उत्तराधिकारी महर्षि संतसेवी परमहंसजी महाराज के रूप में हमें सौंपा है। वस्तुतः परमाराध्य ब्रह्मलीन संत मेँहीँ परमहंस बिंब हैं और महर्षि संतसेवी परमहंसजी महाराज उनके प्रतिबिंब हैं।

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