महर्षि संतसेवी परमहंस का जीवन-चरित | PART-7
(संतमत-सत्संग’ का व्यापक विस्तार | भाषा-प्रेम | सुलेखन-कला | वाणी का वैभव | काव्यात्मक चेतना | विलक्षण स्मृति)
‘संतमत-सत्संग’ का व्यापक विस्तार:
‘संतमत-सत्संग’ के उत्तराधिकारी और वर्तमान आचार्य होने के कारण महर्षि संतसेवी परमहंस का कार्यभार बढ़ा। ये ‘संतमत-सत्संग’ के प्रचार-प्रसार-हेतु अहर्निश प्रयत्नशील रहने लगे। परमाराध्य ब्रह्मलीन संत मेँहीँ परमहंस के विराट् व्यक्तित्व के अनुरूप महर्षि मेँहीँ आश्रम, भागलपुर में उनके समाधि-मंदिर की इन्होंने रूप-रेखा तैयार करवायी और उसके निर्माण-कार्य को नेतृत्व महर्षि संतसेवी -ज्ञान-गंगा प्रदान किया। इन्होंने ‘संतमत-सत्संग’ के व्यापक प्रचार- प्रसार-हेतु अपने भक्तों और अनुयायियों के साथ देश के विभिन्न भागों की यात्राएँ आरंभ कीं-स्थगित वार्षिक महाधिवेशनों की शुरुआत करवायी। इस क्रम में इन्होंने उत्तरप्रदेश, मध्यप्रदेश, दिल्ली, पंजाब, हरियाणा, राजस्थान, गुजरात, महाराष्ट्र, कर्नाटक, आंध्रप्रदेश, बंगाल आदि प्रांतों की सघन यात्राएँ कीं। इनकी इन यात्राओं से ‘संतमत-सत्संग’ में दीक्षितों और उसके अनुयायियों की संख्या बढ़ी और देश के विभिन्न प्रांतों में संतमत-सत्संग के मंदिर और आश्रमों का निर्माण भी हुआ। परमाराध्य गुरुदेव के पदर्चिोंं पर चलते हुए इन्होंने भी जगह-जगह विशेष ध्यान-शिविरों का आयोजन प्रारंभ करवाया। ऋषिकेश और राजस्थान के पुष्कर में संपन्न हुए विशेष ध्यान-शिविरों ने आम लोगों को संतमत की योग-साधना के प्रति आकृष्ट किया। मार्च 1996 ई0 में अखिल भारतीय संतमत-सत्संग के 86वें वार्षिक महाधिवेशन, ऋषिकेश में देश-विदेश के धर्माचार्यों, महामंडलेश्वरों एवं विद्वानों ने इनको ‘महर्षि परमहंस’ की उपाधि से विभूषित किया। इनके द्वारा दीक्षित शिष्यों की संख्या आज लाख से अधिक है और उत्तरोत्तर लोग इनसे दीक्षा लेकर सन्मार्ग पर अग्रसर हो रहे हैं।
भव्य व्यक्तित्व की मनोरम झाँकी
वेश-भूषा:
सुगठित छरहरा बदन, अद्भुत कांतियुक्त शांतिदायक मुखमंडल, बौद्धभिक्षु की याद दिलाता हुआ मुंडित सिर, शून्य में कुछ ढूँढते हुए-से सुदीप्त नेत्र, उन्नत ललाट, लंबी नाक, बड़े-बड़े कान, सत्पथ की ओर अग्रसर चरण और स्नेहाशीष के लिए सर्वदा उत्थित कर-कमल महर्षि संतसेवी परमहंस के व्यक्तित्व को प्रभावशाली बनाते हैं। ये सदा गैरिक वसन धारण करते हैं। कहीं चलते समय ये हाथ में एक छड़ी ले लेते हैं और पैरों में रबर की चप्पल अथवा कपड़े के जूते पहनते हैं। मौसम के अनुरूप ये खादी या ऊनी कपड़ों का व्यवहार करते हैं। धोती को ये आधा कमर में लपेटते हैं और आधी धोती कंधे पर डाल लेते हैं। ये पूरी बाँहों वाली गंजी और पूरी बाँह का कुरता पहनते हैं। शरदकाल में ये एक ऊनी स्वेटर पहनते हैं। उन दिनों ये कान तक ढँकनेवाली खादी कपड़े की गेरुए रंग में रंगी हुई टोपी पहनते हैं। इसके अतिरिक्त गेरुए रंग की चादर भी ओढ़ते हैं।
भाषा-प्रेम:
ये बहुभाषाविद् हैं। हिंदी, बांगला, मैथिली, अंगिका, माड़वाड़ी, फारसी, पंजाबी और अंग्रेजी भाषा के ये जानकार हैं। हिंदी भाषा के प्रति इनके मन में असीम अनुराग है। बचपन में इन्होंने व्यक्तिगत रूप से किसी मौलवी से कुछ दिनों तक फारसी भाषा पढ़ी थी। मैथिली तो इनकी मातृभाषा ही है। गुरुदेव के सान्निध्य में रहकर इन्होंने पंजाबी, बांगला और अंग्रेजी भाषा का विधिवत् ज्ञान प्राप्त किया है। भाषाओं के अनुरूप इन्हें देवनागरी, उर्दू, कैथी, गुरुमुखी, बांगला, रोमन लिपियों का भी अच्छा ज्ञान है। इनकी भाषा व्याकरणसम्मत होती है। तत्सम शब्दों की अधिकता लिए हुए इनकी भाषा भावों और विचारों को स्पष्टतः अभिव्यंजित करने की क्षमता रखती है। इनकी शब्द-योजना और वाक्य-संगठन मोहक हैं। इनकी भाषा में गजब का प्रवाह है। अनुप्रास इन्हें प्रिय है। उसे जुटाने में इन्हें प्रयास नहीं करना पड़ता। उसकी आकर्षक छटा इनकी भाषा में सर्वत्र छायी है। इनकी भाषा के अवलोकनार्थ इनका प्रकाशित साहित्य द्रष्टव्य है।
ये विभिन्न भाषाओं को इतने शुद्ध और स्वाभाविक रूप से बोलते हैं कि सुननेवालों को कभी विश्वास ही नहीं होता कि वे इनकी मातृभाषा नहीं हैं। एक बार ये ट्रेन से आ रहे थे। इनकी बगल में बैठे एक बांगलाभाषी सज्जन ने इनसे बांगला भाषा में बात-चीत शुरू की। ये भी बांगला में ही बोलने लगे। भाषा की शुद्धता और सहज उच्चारण देखकर, इन्हें उस बंगाली सज्जन ने बंगालवासी ही समझ लिया और आत्मीयतापूर्वक पारिवारिक सुख-दुःख की कथाएँ इन्हें कह सुनायीं। जब ये अगले स्टेशन पर उतरने लगे और वहाँ स्वागतार्थ आए व्यक्तियों से अंगिका भाषा में बोलने लगे, तो बंगाली महोदय को इनके बिहारी होने का भान हुआ। ग्रंथों के शुद्ध पाठ पर भी इनका विशेष ध्यान रहता है। यह भी इनके भाषा प्रेम का ही परिचालक है। एक छोटी-सी घटना से इनका यह भाषा-प्रेम उजागर होता है। एक बार परमाराध्य गुरुदेव सायंकालीन सत्संग में कुर्सी पर विराजमान थे। सत्संग में स्तुति-प्रार्थना के बाद गुरुदेव के आज्ञानुसार संतवाणियों का पाठ प्रारंभ हुआ। गुरुदेव ने अभेदानन्दजी से संत गुलाल साहब की वाणी- ‘उलटि देखो घट में जोति पसार।’ गाने को कहा। उन्होंने गाना आरंभ किया, पर गुरुदेव ने गाने से उन्हें रोक दिया। फिर एक अन्य आश्रमवासी को गाने के लिए कहा। दो शब्द गाने के बाद उन्हें भी रोक दिश। फिर गुरुदेव ने इन्हें गाने के लिए कहा। ये पूरा भजन गाए। आरती के बाद गुरुदेव ने उक्त दोनों सज्जनों से कहने की कृपा की- ‘‘उलटि’ के ‘ट’ में ह्रस्व ‘इ’ की मात्रा है, आप दोनों ने दीर्घकर के गाया था। इसलिए गाना बंद करवा दिया। संतसेवीजी ठीक से गाये। अब आपलोग भी ठीक से गाइएगा।’’
सुलेखन-कला :
इनकी लिखावट मोती के दानों की सजावट की भाँति होती है। इनमें यह कला बचपन से ही है। इनके सुलेख देखकर लोग आश्चर्यचकित हो जाते हैं। कभी-कभी तो लोग भ्रमवश उसे प्रेस का मुद्रित सामग्री ही समझ बैठते हैं।
वाणी का वैभव:
इनकी वाणी में चिंतन और मनन के धरातल पर जहाँ एक ओर तार्किक गुरु-गंभीरता है, वहीं दूसरी ओर स्वानुभूत सत्य की भावाभिव्यक्ति का आकर्षण है। इन दोनां के मणिकांचन संयोग से इनकी वाणी स्वतः ही वैभवयुक्त हो जाती है। इनकी ओजस्विनी वाणी में चुंबकीय आकर्षण है। दर्शन की वैचारिक पृष्ठभूमि और स्वानुभूत सत्य के निरूपण के फलस्वरूप स्वतः ही इनके शब्द-संयोजन में एक संगीत की सृष्टि हो जाती है। इनकी वाणी में आरोह और अवरोह के सृजन, शब्द और अर्थ के अनुरूप अनायास ही होते चलते हैं। इस तरह इनके सांगीतिक स्वर से विमुग्ध होकर श्रोता इनके वशीभूत हो जाते हैं।
काव्यात्मक चेतना:
इनकी चेतना मूलतः काव्यात्मक है। इन्हें एक कवि का हृदय मिला है। जीवन और जगत को देखने की इनकी दृष्टि एक कवि की है। संसार की असारता और परमात्मा की नित्यता के बीच ये एक लय की खोज में सतत संलग्न रहते हैं। जीवन और जगत के प्रति इनका यह लयात्मक भावबोध इन्हें स्वतः ही एक कवि के रूप में उपस्थित कर देता है, जिसका निदर्शन हमें इनके साहित्य और प्रवचनों में होता है। इनका संपूर्ण साहित्य हमें गद्य-गीत की याद दिलाता है। इन्होंने कुछ कविताओं की भी रचना की है।
विलक्षण स्मृति:
इनकी स्मरण-शक्ति अप्रतिम है। बाल्यकाल इनकी लिखावट मोती के दानों की सजावट में पढ़े गये पाठ इन्हें आज भी याद हैं। कोई भी ग्रंथ या कोई भी पाठ, जिसे ये एक बार पढ़ या सुन लेते हैं, इन्हें उसकी स्मृति रहती है। यही कारण है कि विश्व-वांगमय में ज्ञात, जो भी साहित्य इन्होंने पढ़ा है, उन सबकी स्मृति इन्हें है। इनके प्रवचनों में इनके द्वारा दिए गए उद्धरणों से इस बात का पता चलता है।




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