महर्षि संतसेवी परमहंस का जीवन-चरित | PART-2 (बाल्यकाल, शिक्षा, कैशोर्य, धार्मिक प्रवृत्ति, अध्यापन और चिकित्सा-कार्य, वैराग्य, परमाराध्य गुरुदेव के प्रथम दर्शन, दीक्षा), Maharshi Santsevi Paramhans charit | Santmat

महर्षि संतसेवी परमहंस का जीवन-चरित | PART-2 
(बाल्यकाल, शिक्षा, कैशोर्य, धार्मिक प्रवृत्ति,  अध्यापन और चिकित्सा-कार्य, वैराग्य, परमाराध्य गुरुदेव के प्रथम दर्शन, दीक्षा)
बाल्यकाल:
स्नेहिल पिता और ममतामयी माता की गोद में शिशु महावीर का लालन-पालन होने लगा। पिता के स्नेह और माता की ममता की छत्रच्छाया में पलते शिशु का नामकरण पारिवारिक पंडितों के द्वारा ‘महावीर’ किया गया। धीरे-धीरे विकास पाता हुआ बालक ‘महावीर’ स्वाभाव का विनोदी पर अन्य बालकों की अपेक्षा कम नटखट था। उसके क्रियाकलाप को देखकर लोगों को कहना पड़ता था कि महावीर कोई साधारण बालक नहीं है। महानता के लक्षण बाल्य-काल से ही बालक महावीर में दृष्टिगोचर होने लगे थे। माता-पिता ने वैष्णव-धर्मानुसार बालक महावीर का मुंडन-  संस्कार कुलदेवी के सामने गोसाईंघर (पारिवारिक पूजागृह) में कराया था। भाइयों में सबसे छोटे होने के कारण माता-पिता और बड़े भाइयों का स्नेह इन्हें भरपूर मिला। इसी लाड़प्यार के बीच अचानक इनके पिता का देहावसान हो गया। तब से, सबलोग इनका ज्यादा ख्याल रखते कि इनकी सुख-सुविधा में किसी प्रकार की कमी न होने पाए। इनको कुछ लोग ‘बाबू’ कहकर पुकारा करते। बचपन से ही इनमें करुणा के भाव दीखने लगे थे। इनके इस भाव को देखते हुए प्रायः लोग इनको ‘हितसागर बाबू’ कहकर बुलाते। 

शिक्षा :
बाल्यकाल में पारिवारिक पंडित ने इन्हें परंपरागत रूप से सरस्वती की पूजा-आराधना कर कैथी लिपि का अक्षर-बोध कराया था। इसके पश्चात् इनकी प्रारंभिक शिक्षा जन्मभूमि गम्हरिया के प्राथमिक विद्यालय में हुई। इसके प्रधाना- ध्यापक श्रीअधिकलाल भगत थे। वे इनका विशेष ख्याल रखते थे। बालक महावीर कुशाग्र बुद्धि के थे। उस समय गम्हरिया में मिड्ल स्कूल नहीं था। अतएव अपने गाँव से एक कोस की दूरी पर अवस्थित बभनी नामक गाँव के ‘बोर्ड मिड्ल इंगलिश स्कूल’ में ये पढ़ने गए। गाँव से स्कूल तक प्रतिदिन इन्हें पैदल ही आना-जाना पड़ता था। अपनी कक्षा में इन्होंने कभी प्रथम तो कभी द्वितीय स्थान प्राप्त किया। हिंदी और गणित में इनकी विशेष रुचि थी। ये मिड्ल स्कूल के अपने प्रधानाध्यापक श्रीवेदानन्द ठाकुरजी से अत्यधिक प्रभावित थे। एक शिक्षक के रूप में श्रीवेदानन्द ठाकुरजी ने हिंदी भाषा के प्रति इनके रुझान को साहित्यिक संस्कार देकर विकसित किया। ठाकुरजी-द्वारा याद करायी गयी बहुत सारी पद्य रचनाएँ इन्हें आज भी कंठाग्र हैं। उनमें से एक है- 

है अद्वितीय अपूर्व अनुपम, दिन अलौकिक आज का। 
सब ओर सुखमय दृश्य है, शुभ सत्त्व गुण के साज का।।
भूभार-हारक ईश के, अवतार का अवसर मिला। 
ऋतुराज में क्या ही मनोहर, पुण्य कुसुमाकर खिला।।
अवतीर्ण होकर आज ही, रघुराज ने इस लोक में।
सन्मार्ग था दर्शित किया, निज रूप के आलोक में।। 
उपदेश देने को हमें, प्रभु ने मनुज लीला रची। 
शिक्षा न रामचरित्र से है एक भी बाहर बची।। 
करके कृपा संकट मिटाये, सुख सभी हमको दिये।
क्या-क्या नहीं करते पिता, संतान के हित के लिये।। 
किस भाँति करना चाहिये, यह लोकरंजन सर्वदा। 
किस भाँति रखना चाहिये, ध्रुव धर्म-मर्यादा सदा।। 
कर्तव्य कहते हैं किसे, है शील की सीमा कहाँ। 
आती सहज ही ध्यान में, हैं आज ये बातें यहाँ।। 

इनकी हस्तलिपि सुंदर और सुघड़ होती। स्कूली जीवन से ही इनके गले की आवाज मधुर और कोमल रही है। खेल-कूद में भी इनकी अभिरुचि थी। इन दिनों ये फुटबॉल खेला करते थे। इस तरह बभनी मिड्ल स्कूल से इन्होंने मिड्ल तक की शिक्षा पूरी की। यह इनकी मेधा का ही परिणाम था कि ‘मिड्ल बोर्ड’ की परीक्षा में इन्होंने गणित में विशिष्ट स्थान प्राप्त किया। 

कैशोर्य :
मिड्ल पासकर इन्होंने जैसे ही किशोरावस्था में प्रवेश किया कि एकाएक अपने चाचा श्री हरदेवलाल दास, अग्रज श्रीरघुनंदनलाल दास और श्री भोलालाल दास जी को भरे-पूरे यौवन में मृत्यु को वरण करते देखा। आत्मीय जनों के असामयिक निधन की इन घटनाओं ने इन्हें जीवन की क्षणभंगुरता का बोध कराया। इनकी आँखों के सामने संसार की निस्सारता नग्न रूप से नृत्य करने लगी। विरक्ति की भावना रह-रहकर इनमें प्रबल आवेग का रूप ले लेती और परिवार का ममत्व त्यागकर इनका मन किसी साधु-संत की संगति में रहने की चाहना करने लगता। पढ़ाई- लिखाई की ओर से इनका मन हट गया और इन्होंने स्कूली शिक्षा को तिलांजलि दे दी। 

धार्मिक प्रवृत्ति :
ये बचपन से ही देवाधिदेव शिव की पूजा किया करते थे। अपने गाँव से कुछ दूरी पर स्थित प्रसिद्ध सिंहेश्वर स्थान में जाकर ये वहाँ के शिवलिंग पर यदा-कदा जल भी चढ़ा आया करते थे। बजरंगबली हनुमान के प्रति भी इनके हृदय में श्रद्धाभक्ति परिपूर्ण थी। ये नित्यप्रति ‘हनुमान चालीसा’ का पाठ किया करते थे। गाँव की कीर्तनमंडली में ये अपने भाई श्रीभोलालाल दास (जो गायन और वादन में प्रवीण थे) और चाचा श्रीहरदेवलाल दासजी के साथ भगवान राम, योगेश्वर कृष्ण आदि से संबंधित भजन गाया करते थे। भजन-मंडली में इन्होंने अपने ही गाँव के श्रीसहदेवलाल दास, श्रीयोगेन्द्र मल्लिक और श्रीसत्यनारायणलाल दास को सम्मिलित कर रखा था। इनके साथ रौनियार टोली के इनके साथीगण ढोल, करताल आदि बजाया करते थे। ये बचपन से ही गोस्वामी तुलसीदास-कृत ‘रामचरितमानस’, ‘महाभारत’ और राधेश्यामकृत ‘रामायण’ का पाठ सस्वर किया करते थे। ‘श्रीमद्भगवद्गीता’ के पाठ में भी इनकी अभिरुचि थी, पर गीता-परायण के वक्त ये उसके अर्थ-खंड को अधिक महत्त्व देते थे। सगुण के प्रति अभिरुचि रखते हुए भी संत कबीर और गुरु नानक की निर्गुण विचारधारा से ये अत्यधिक प्रभावित थे।
अध्यापन और चिकित्सा-कार्य :
दो बड़े भाई और चाचा के आकस्मिक निधन से इनके सामने आर्थिक समस्या आ खड़ी हुई। पारिवारिक ममत्व से निस्संग होने और स्वावलंबी जीवन बिताने के उद्देश्य से इन्होंने सन् 1938 ई0 में घर छोड़ दिया। गमहरिया गाँव से चार मील की दूरी पर स्थित राजपुर गाँव में श्रीलक्षमीकांत झाजी के घर पर उनके बच्चों तथा गाँव के और लड़कों को भी ये खानगी तौर पर पढ़ाने लगे। राजपुर में पढ़ाई के बाद ये पूजा-पाठ एवं आध्यात्मिक पुस्तकों का अनुशीलन करते। श्री झा के यहाँ अनेक धार्मिक पुस्तकें थीं। इनको यहाँ उन पुस्तकों के अध्ययन का पर्याप्त अवसर मिला। एक योग्य शिक्षक समझकर श्री झा इनको बड़ा आदर और सम्मान के साथ रखते थे। इस तरह अध्यापन-कार्य करते हुए इन्हें एक वर्ष बीत गया। एक ही स्थान पर बहुत दिनों तक अध्यापन-कार्य करते हुए इनको नीरसता का अनुभव होने लगा था। कुछ दिनों बाद ये मोरंग (नेपाल) स्थित राजाबासा नामक स्थान पर चले गए। वहाँ पर इन्होंने अध्यापन के साथ-साथ होम्योपैथिक चिकित्सा भी शुरू की। यह चिकित्सा-सेवा इनकी उस करुणा का परिणाम थी, जो उस क्षेत्र के बीमार, पीडि़त और लाचार लोगों को देखकर इनके हृदय में उपजी थी। राजाबासा से भी ये निकट ही स्थित सैदाबाद (पूर्णियाँ) नामक स्थान पर चले आए, जहाँ इनकी नियुक्ति एक प्राथमिक विद्यालय में हुई। पर, यहाँ भी इन्होंने अध्यापन के साथ-साथ चिकित्सा कार्य जारी रखा। इस तरह अध्यापन और चिकित्सा कार्य में संलग्न रहते हुए इनका कुछ समय यहाँ बीता। 

वैराग्य :
जीवन की क्षणभंगुरता और संसार की निस्सारता ने इनके भीतर जिस वैराग्य को जन्म दिया था, वह समय के साथ अंकुरित होता गया। 5 साधु-महात्माओं के प्रति इनके लगाव से इनके परिवारवाले चिंतित रहने लगे थे। इनके बड़े भाई श्रीयदुनंदनलाल दासजी ने इनकी इस विरक्ति- भावना को भाँप लिया था। अतएव उन्होंने इन्हें पारिवारिक जीवन में लाने के लिए इनका विवाह कर देना चाहा। उन्होंने इसके लिए इनसे बार-बार आग्रह किया, पर इनके भीतर अंकुरित हो रहे वैराग्य ने इन्हें इसकी सहमति न देने दी। गार्हस्थ्य जीवन व्यतीत करने की इच्छा, इस तरह इनके मन में कभी जाग्रत ही नहीं हुई। 

परमाराध्य गुरुदेव के प्रथम दर्शन :
सैदाबाद से कुछ दूरी पर कनखुदिया नामक गाँव में सन् 1939 ई0 के मार्च महीने में ‘संतमत-सत्संग’ के मास-ध्यान का कार्यक्रम था। इस कार्यक्रम में परमाराध्य संत मेँहीँ परमहंस भी सम्मिलित हुए थे। सैदाबाद से कुछ सत्संगी भी इस मास-ध्यान-कार्यक्रम में भाग लेने आ रहे थे। संत मेँहीँ के आने की खबर जब इन्होंने सुनी, तो इनके प्रबल वैराग्य ने उनके दर्शनार्थ इन्हें भी प्रेरित किया। फलतः ये सत्संगियों के साथ सैदाबाद से संत मेँहीँ परमहंस के दर्शनार्थ कनखुदिया आए। संत-समागम के लिए व्याकुल इनकी आँखों ने जैसे ही संत मेँहीँ परमहंस के भव्य आकर्षक शांतिमय मुखमंडल के दर्शन किए, वैसे ही इनकी सारी भक्ति-भावना उमड़कर उनके श्री-चरणों में समर्पित हो गयी। परमाराध्य संत मेँहीँ परमहंस इनको चिर-परिचित से लगे। मानो, वे जन्म-जन्मांतर से इनके अपने रहे हों। ये सिर्फ उनके दर्शन के निमित्त आये थे। पर, परमाराध्य गुरुदेव ने तो कुछ और ही विधान कर रखा था। यह क्या? ये उनसे दीक्षा देने और सदा के लिए उनके साथ रह जाने की प्रार्थना करने लगे। जब इनकी भक्ति के भावातिरेक को संत मेँहीँ परमहंस ने देखा, तो उनकी प्रसन्नता का क्या कहना? मानो, श्रीरामकृष्ण परमहंस को नरेन्द्र, भगवान बुद्ध को आनंद और स्वामी विरजानंद को दयानंद मिल गए हों। परमाराध्य गुरुदेव की अंतर्भेदिनी दृष्टि ने इनके व्याकुल मन को शांति का संबल दिया अपराह्नकालीन सत्संग के उपरांत परमाराध्य गुरुदेव कुछ विद्वान सज्जनों के साथ टहल रहे थे। ये भी परमाराध्य गुरुदेव के पीछे-पीछे टहलने लगे। वार्तालाप के क्रम में एक विद्वान सज्जन ने परमाराध्य गुरुदेव से कहा-‘वर्णात्मक शब्द लिखे जाते हैं, ध्वन्यात्मक नहीं।’ इनके साहित्यिक संस्कार ने इन्हें एकाएक कुछ कहने को प्रेरित किया और ये बोल पड़े, ‘कितने वर्णात्मक शब्द भी ऐसे होते हैं, जो लिखे नहीं जाते।’ इसपर विद्वान सज्जन ने इनसे पूछा-‘ऐसे कौन से वर्णात्मक शब्द हैं जो लिखे नहीं जाते ? इन्होंने मिथिला में प्रचलित कुछ बोलियों में उदाहरण प्रस्तुत किये। इनकी मेधा से न सिर्फ वे विद्वान सज्जन प्रभावित हुए बल्कि परमाराध्य गुरुदेव ने भी काफी प्रसन्नता व्यक्त की। परमाराध्य गुरुदेव इनकी तरफ मुखातिब हुए और स्नेहिल भाव से मुस्कुराते हुए इनसे इनका पूरा परिचय पूछा। 
दीक्षा :
29 मार्च, 1939 ई0 को परमाराध्य संत मेँहीँ परमहंस ने इन्हें विशेष करुणावश संतमत- साधना (मानस जप, मानस ध्यान और दृष्टियोग) की दीक्षा दी। योग-साधना की विधि पाकर इन्हें आत्मतुष्टि का बोध हुआ था। जबतक कनखुदिया में ध्यान-मास-साधन चलती रही, तब तक इन्होंने भी उसमें भाग लिया। दीक्षा के दिन से ही ये योग-  साधना में लीन रहने लगे थे। पूर्व जन्म के संस्कार और परमाराध्य सद्गुरु की अहैतुकी कृपा से इनका मन ध्यानाभ्यास में अधिकाधिक लगने लगा था। इन्हें दीक्षा लिए दो दिन भी नहीं बीते थे कि परमाराध्य गुरुदेव इन्हें सद्ग्रंथों के पाठ-हेतु बुलवाने लगे। इनके द्वारा किये गये ग्रंथ-पाठ से साधक-सत्संगीगण अतिशय प्रभावित होते। परमाराध्य गुरुदेव भी इनके ग्रंथ-पाठ की प्रशंसा किया करते। इनकी आवाज की प्रभावोत्पादकता को देखते हुए परमाराध्य गुरुदेव इनसे संत दादू दयाल के निम्न पद्य सस्वर पढ़वाते। ये पद्य का पाठ किया करते और पीछे-पीछे सारे सत्संगीगण इसे दुहराते जाते- 
                   (1) 

मेरी तुम ही राखनहार, दूजा कोइ नहीं। 
यह चंचल  चहुँ दिशि जाय, काल तहीं-तहीं।। 
मैं बहुतक कियो उपाय, निश्चल ना रहे। 
जहाँ बरजूँ तहँ जाय, मद माता बहे।। 
जहाँ बरजूँ तहँ जाय, तुमसे ना डरे। 
तासे कहा बसाय, भावे त्यों करे।। 
सकल पुकारे साध, और मैं केता कहा। 
गुरु अंकुश माने नाहिं, निर्भय हो रहा।। 
मेरे तुम बिन और न कोय, जो इस मन को गहे। 
अब  राखो  राखनहार  दादू  त्यों  रहे।।               
                    ( 2)  
तू  स्वामी  मैं  सेवक तेरा, भावे  सिर  दे सूली  मेरा।
भावे  करवत  सिर  पर  सार, भावे  लेकर  गरदन  मार।। 
भावे चहुँदिशि अगनि लगाय। भावे काल दसों दिशि खाय।।  
भावे गिरिवर गगन  गिराय। भावे दरिया माहिं बहाय।।  
भावे कनक कसौटी देय। दादू सेवक कसि-कसि लेय।। 

ग्रन्थपाठ के क्रम में कभी-कभी परमाराध्य गुरुदेव इनसे पठित अंश का भावार्थ और भाष्य भी पूछते। इस तरह कनखुदिया में आयोजित इस एक महीने के ध्यान-कार्यक्रम में इन्होंने परमाराध्य गुरुदेव के सान्निध्य में ग्रंथपाठ और ध्यानाभ्यास किया। जन्म-जन्मांतर के इनके संचित पुण्य-संस्कार ने अंततः इन्हें उस महाकरुणा-सिंधु के पास पहुँचा ही दिया, जिसके साथ इनका जन्म-जन्मांतर का साथ था।

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