महर्षि संतसेवी परमहंस का जीवन-चरित | PART-1 (पृष्ठभूमि, आविर्भाव, वंश-परम्परा) Maharshi Santsevi Paramhans charit | Santmat | Satsang | Kuppaghat | Bhagalpur

महर्षि संतसेवी परमहंस का जीवन-चरित | PART-1 (पृष्ठभूमि, आविर्भाव, वंश-परम्परा)
 
पृष्ठभूमि: 
विश्व-इतिहास में बीसवीं सदी का दूसरा दशक अनेक प्रकार के राजनीतिक परिवर्तनों, प्रथम विश्वयुद्ध की विभीषिका के बाद शांति की छद्म खोज, आर्थिक समृद्धि के नाम पर उसके श्रोत्तों के ध्रुवीकरण और मानवता के संहारक अस्त्र-शस्त्रों के निर्माण का युग रहा है। इस तरह यह समय अंतरराष्ट्रीय स्तर पर उथल-पुथल और अशांति का काल है, जो कालखंड राजनीतिक और आर्थिक समीकरणों के बदलाव के फलस्वरूप कालांतर में सामाजिक जीवन-मूल्यों के पतन का कारण बना। भारत के प्रायः सभी प्रदेशों में इस समय जहाँ एक ओर भय तथा आशंका के काले बादल मँडरा रहे थे, वहीं दूसरी ओर एक नयी चेतना का प्रवाह भी भारतीयों में देखने को मिल रहा था। प्रथम विश्वयुद्ध के उपरांत ब्रिटिश शासक अपनी सत्ता पर पूर्णरूप से नियंत्रण के लिए नए-नए कानून बना रहे थे। ऐसे ही समय में जालियाँवाला बाग की घटना से अंग्रेजों की अमानवीयता सामने आयी, जिसने भारतीयों की धारणा को बदलने का कार्य किया। इसी समय ‘रौलेट एक्ट’ के खिलाफ महात्मा गाँधी द्वारा सत्याग्रह लाया गया, पर यह सत्याग्रह गाँधीजी के आदर्शों का मूर्त-रूप नहीं बन पाया। अंग्रेजों द्वारा तुर्की पर कब्जा के फलस्वरूप भारत के बुद्धिजीवी मुसलमानों के विचार भी अंग्रेजों के प्रतिकूल हुए। इस तरह खिलाफत आंदोलन सामने आया, जिसे कालांतर में महात्मा गाँधी ने एक नया रूप देकर असहयोग आंदोलन का सूत्रपात किया। बालगंगाधर तिलक की मृत्यु के उपरांत किसी ऐसे राष्ट्रीय नेता का अभाव था, जो उत्तरी और दक्षिणी क्षेत्रों में समान रूप से समादृत हो। गाँधीजी के रूप में भारत ने उस राष्ट्रनेता को पाया, जिसपर सबका विश्वास था। हिन्दू और मुस्लिम एकता का जो रूप उस वक्त कायम था, वह भारतीय इतिहास में फिर कभी देखने को नहीं आया। असहयोग आंदोलन से संपूर्ण भारतवर्ष में एक नयी राजनीतिक चेतना की लहर दौड़ रही थी; क्योंकि महात्मा गाँधी ने इसे सत्य और अहिंसा का संबल प्रदान किया था। इसी कालखंड में समानान्तर आध्यात्मिक आन्दोलन, जो सांस्कृतिक पुनर्जागरण का प्रतिफल था, ने भारतीय जनमानस को प्रभावित किया। इस आन्दोलन में स्वाधीनता की चेतना को सांस्कृतिक नैतिक क्रांति में बदलने की दृष्टि मौजूद थी। इसी समय ‘संतमत-सत्संग’ के जनक परमसंत बाबा देवी साहब का महापरिनिर्वाण हुआ था और संतमत के महान् आचार्य परमाराध्य ब्रह्मलीन संत मेँहीँ परमहंस ने अनवरत योगसाधना के परिणामस्वरूप बाबा देवी साहब के ‘संतमत’ का पूरा बोध प्राप्त किया था। संतत्व की प्राप्ति के बाद परमाराध्य संत मेँहीँ परमहंस  संतों की महती योगसाधना के प्रचार-प्रसार के साथ-साथ उनके बीच समन्वय का सेतु भी स्थापित कर चुके थे। आशा और निराशा के इसी वर्णित परिवेश में महर्षि संतसेवी परमहंसजी महाराज का आविर्भाव हुआ था।
आविर्भाव :
किसने सोचा होगा कि परम संत बाबा देवी साहब के महापरिनिर्वाण और परमाराध्य ब्रह्मलीन संत मेँहीँ परमहंस के संतत्व-प्राप्ति के कालखंड में ही 20 दिसंबर, 1920 ई0 को बिहार राज्य के भागलपुर जिलान्तर्गत गमहरिया नामक ग्राम (वर्तमान में मधेपुरा जिलान्तर्गत) में श्रीबलदेवलाल दास और श्रीमती राधा देवी की कनिष्ठ संतान के रूप में जिस कमनीय कांति देवशिशु ने जन्म लिया, वह भविष्य में एक आश्चर्यजनक प्रतिभा, महान शक्ति और शांति की प्रतिमूर्ति बन जाएगा तथा जिसका प्रभाव देश-काल की मर्यादा के भीतर सीमाबद्ध नहीं रहेगा। किसने अनुमान किया होगा कि जो भिन्न-भिन्न समय के भिन्न-भिन्न परिस्थितियों में पले, असंख्य नर-नारियों के प्राण में सत्य और शांति की शाश्वत जिज्ञासा, न्याय और विश्व-बन्धुत्व की सजीव प्रेरणा एवं लोकमंगल की स्फूर्ति जगाता रहे, वह उपर्युकत दंपति के घर में अवतीर्ण होगा? वह देवशिशु ही आज महर्षि संतसेवी परमहंसजी महाराज के नाम से समादृत है। 

वंश-परम्परा :
गमहरिया नामक गाँव, मधेपुरा जिला मुख्यालय से ग्यारह मील उत्तर-पश्चिम में अवस्थित है। यहाँ वर्षों से मैथिल कर्ण-कायस्थ कुलभूषण श्रीभैयालाल दासजी रहते आ रहे थे। ये गमहरिया एस्टेट में पटवारी का काम करते थे। इनके पुण्यशील पूर्वज वर्षों पूर्व अठहरक-कोइलख से आकर यहाँ बस गये थे। श्रीभैयालाल दासजी को श्रीनेवालाल दास और श्रीतनुकलाल दास नाम के दो पुत्र हुए। इन्होंने भी मुख्यतया अपने पिता के व्यवसाय को अपनाया। श्रीनेवालाल दासजी को चार पुत्र-रत्न प्राप्त हुए थे। ये थे-श्रीबलदेव लाल दास, श्रीवासुदेव लाल दास, श्रीहरदेवलाल दास और श्रीसुखदेव लाल दास। इन्हें एक पुत्री भी थी, जिसका नाम श्रीमती सरस्वती देवी था। इन सबने भी पैतृक व्यवसाय को ही अपनाया, किंतु श्रीबलदेवलाल दासजी कुछ समय तक इस व्यवसाय में संलग्न रहने के उपरान्त घर पर ही रहकर खेती का काम करने लगे थे। श्रीबलदेवलाल दास और उनकी पत्नी श्रीमती राधा देवी ने अपने कुलगुरु से दीक्षा लेकर अपने जीवन को वैष्णव  धर्म के अनुकूल ढाल लिया था। श्रीबलदेवलाल दासजी को चार पुत्र और एक पुत्री की प्राप्ति हुई, जिनके नाम क्रमशः इस प्रकार हैं-श्रीयदुनन्दन लाल दास, श्रीरघुनन्दनलाल दास, श्रीभोलालाल दास, श्री महावीरलाल दास और श्रीमती सीता देवी। श्री रघुनंदनलाल दास और श्रीभोलालाल दास युवावस्था में ही गुजर गए। इन दोनों भाइयों ने मिड्ल तक की शिक्षा प्राप्त की थी। ये ‘संतमत- सत्संग’ में दीक्षित थे।  श्रीयदुनंदनलाल दासजी सन् 1981 ई0 दिसम्बर महीने में 85 वर्ष की आयु में चल बसे। इन्होंने मिड्ल तक की शिक्षा पाई थी। कुछ दिनों तक इन्होंने अध्यापन-कार्य भी किया था। पर, बाद में येअध्यापन-कार्य छोड़कर खेती के द्वारा जीविकोपार्जन करने लगे थे। ये भी परमाराध्य संत मेँहीँ परमहंस के दीक्षित शिष्य थे। श्रीमती सीता देवीजी का शुभ विवाह दरभंगा जिलान्तर्गत धुरलख-निवासी श्रीइंद्रनारायण मल्लिकजी से हुआ। ये दरभंगा कचहरी में काम करते हैं। श्रीमहावीरलाल दासजी ही परमाराध्य ब्रह्मलीन संत मेँहीँ परमहंसजी महाराज द्वारा प्रदत्त संज्ञा ‘संतसेवी’ से अभिहित होकर आज पूज्यपाद महर्षि संतसेवी परमहंसजी महाराज के नाम से विश्वविख्यात हैं।

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